किसानों को जल्द न्याय मिलने की बेहद दरकार

आज़ाद भारत में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा लंबे समय से विवादों के घेरे में निरंतर चलता चला आ रहा है, देश के जिला न्यायालयों से लेकर के सर्वोच्च न्यायालय तक में भूमि अधिग्रहण के प्रकरणों से जुड़े मुकदमों की लंबी फेहरिस्त आज भी न्याय मिलने की उम्मीद में तारीख पर तारीख के रूप में चल रही है। हालात को देखकर के देश के कानूनविद व किसानों को लगता है कि आज़ाद भारत के  सरकारी तंत्र ने विभिन्न विकास के कार्यों हेतु इस्तेमाल करने के लिए व भविष्य में सरकारी योजनाओं के लिए अपना भूमि बैंक बढ़ाने की हड़बड़ी में अधिग्रहीत की गयी भूमि के विभिन्न मसलों में बहुत सारी जगहों पर भूमि अधिग्रहण कानून का सही ढंग से पालन नहीं किया। जिन भूमि अधिग्रहण से जुड़े हुए छुटपुट मसलों को हमारे देश का सरकारी तंत्र थोड़े से ही प्रयासों के बाद ही मौके पर ही सुलझा सकता था, आज उनको कानूनी दांवपेंच में बुरी तरह से उलझा दिया गया है‌, जिसके चलते सरकार व किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है और सिस्टम व किसानों का अनमोल समय खराब होता है वह अलग है। जिसके चलते देश में आज भी अन्नदाता किसान बेवजह की मुकदमेबाजी व आंदोलनों में बुरी तरह से फंसा हुआ है। आलम यह है कि देश में आज भी कहीं पर किसानों की उचित मुआवजा धनराशि से जुड़े विवाद की समस्या चलती आ रही है, कहीं पर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में पारदर्शिता ना होने का विवाद चल रहा है, कहीं पर भूमि अधिग्रहण के विस्थापित किसानों के अधिकार और उनके उचित ढंग से पुनर्वास करने का विवाद चल रहा है। वहीं देश के बहुत सारे शहरों व कस्बों में आवासीय योजनाओं में विस्थापित किसानों को मिलने वाले आवासीय, व्यवसायिक भूखंड व दुकान ना मिल पाने का विवाद चल रहा है और उनके मूल्य तय होने का विवाद चल रहा है।

*”आज देश के नीतिनिर्माताओं व आम जनमानस दोनों के सामने ही विचारणीय तथ्य यह है कि भूमि अधिग्रहण के मसलों पर आज़ादी के 75 वर्ष बीतने के बाद भी देश के अन्नदाता किसान की समय से सुध लेने के लिए आखिरकार क्यों तैयार नहीं हैं हमारे देश का सरकारी तंत्र”*

वैसे तो देश में केन्द्र व हर राज्यों की सरकार अन्नदाता किसानों के हिमायती होने के लंबे चौड़े दावे आयेदिन करती है, लेकिन वास्तव में धरातल का हाल देखा जाये तो शायद ही बिना किसी आंदोलन व कोर्ट-कचहरी जाये, देश में कभी किसानों को उनका तय हक मिल पाया हो ऐसे उदाहरण बमुश्किल  ही शायद मिल पायेंगे। सरकारी तंत्र की इसी सोच व कार्यप्रणाली के चलते इसी इस तरह का ही एक मसला पिछले कई दशकों से उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद में लंबित चला आ रहा है, जहां पर “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” के द्वारा “वसुंधरा योजना” के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि का विवाद समझौता होने बाद भी परिषद के द्वारा निस्तारित नहीं किया गया है। यहां आपको बता दें कि उक्त वसुंधरा योजना के लिए “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” के द्वारा गाजियाबाद जनपद के 6 गांव साहिबाबाद, प्रहलादगढ़ी, कनावनी, अर्थला, करहेड़ा व मकनपुर गांव के किसानों की लगभग 2100 एकड़ जमीन अधिग्रहित की गयी थी। इस भूमि के अधिग्रहण के लिए 26 जून 1982 को धारा 28 का नोटिस प्रशासन के द्वारा जारी किया गया था, जिसके पश्चात 18 फरवरी 1987 व 15 मई 1987 को शासन द्वारा धारा 7/17 की अधिसूचना निर्गत की गई थी। इस अधिग्रहीत की गयी भूमि का प्रतिकर 20 से 50 रुपए प्रति वर्ग गज तय हुआ था। जिस भूमि का कब्जा परिषद के द्वारा वर्ष 1989 से  लेना स्टार्ट कर दिया था और भूमि कब्जे के उपरान्त उक्त भूमि पर परिषद ने अपनी स्कीम लॉन्च करके भूखंड व मकान बेचने शुरू कर दिये थे।

हालांकि उपरोक्त वसुंधरा योजना के लिए अधिग्रहित की गयी भूमि में से लगभग 731 एकड़ भूमि “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” ने वर्ष 1986 में “गाजियाबाद विकास प्राधिकरण” को कुछ शर्तों के साथ स्थानांतरित कर दी थी। कुछ समय के बाद भूमि अधिग्रहण से प्रभावित किसानों के द्वारा अपनी लंबे समय से चली आ रही अपनी विभिन्न मांगों को लेकर समय-समय पर परिषद का कार्य रोका गया और लगातार धरना प्रदर्शन के रूप में एक आंदोलन चलाया गया, योजना का कार्य किसानों के द्वारा रुकने के उपरांत कुंभकर्णी नींद में सोया हुआ तत्कालीन शासन-प्रशासन जागा और विस्थापित किसानों से विवाद के निस्तारण के लिए आवास आयुक्त, परिषद के अन्य विभिन्न उच्चाधिकारियों, जिलाधिकारी गाजियाबाद व किसानों के प्रतिनिधियों के साथ 10 जुलाई 1999 को एक बैठक संपन्न करने का कार्य किया, जिस बैठक में किसानों के द्वारा की जा रही विभिन्न मांगों पर प्रशासन ने सकारात्मक रुख रखते हुए सभी पक्षों के बीच आपसी सहमति बनाकर किसानो और परिषद अधिकारियों एवम तत्कालीन जिला अधिकारी के बीच एक समझौता हुआ जिसमें किसानों की मांगो को  मान लेने के साथ-साथ किसानों के द्वारा भविष्य में योजना का काम ना रोकने की शर्त भी थी। वर्ष 1999 के इस समझौते के बाद विस्थापित किसानों को लगने लगा था कि अब उनको जल्द ही उनका तय हक मिल जायेगा, उसके बाद किसानों ने समझौते के अनुरूप कभी भी योजना का काम नहीं रोका। लेकिन बहुत ही अफसोस की बात यह है कि आंदोलन से जुड़े ना जाने कितने किसान अपना हक मिलने की आस दिल में लिए दुनिया तक छोड़कर चले गये हैं, लेकिन वह अपना तय हक कभी भी परिषद से नहीं ले पाये। आज लंबे समय के बाद भी किसानों को आश्वासन के सिवाय धरातल पर कुछ विशेष समाधान नहीं मिला पाया है, लेकिन भोलेभाले किसानों को परिषद के द्वारा पत्रचार व कानूनी दांवपेंच में उलझाने की नित-नई तैयारी निरंतर जारी है। परिषद के तंत्र के टालू रवैए ने वसुंधरा योजना के प्रभावित किसानों को केवल अधिकारियों के दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर करने का बेहद शर्मनाक कार्य किया है जो आज तक भी अनवरत जारी है।

लेकिन विस्थापित किसानों के अधिकारों की लंबे समय से निरंतर लड़ाई लड़ रही “किसान संघर्ष समिति गाजियाबाद” के प्रतिनिधियों ने भी विपरीत से विपरीत स्थिति उत्पन्न होने के बाद भी हार नहीं मानी, जिसकी मेहनत के परिणामस्वरूप स्वरूप 

10 जुलाई 1999 की बैठक में हुए समझौते के क्रम में ही एक बार फिर से 8 अक्टूबर 2012 को सचिव, उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद की अध्यक्षता में एक बैठक संपन्न हुई, जिस बैठक में किसानों की दशकों से लंबित चली आ रही बहुत सारी मांगों पर एकबार पुनः सहमति बनी। इन मांगों में मुख्य रूप से विस्थापित किसानों को आवासीय भूखंड लेने हेतु 1 हजार रुपए व व्यवसायिक दुकान व भूखंड लेने हेतु 5 हजार रुपए पंजीकरण धनराशि जमा कराने व वर्ष 1999 के समझौते के अनुसार बिना किसी लाभ व हानि  की गणना के सिद्धांत पर भूखंड आवंटित किये जाने की बात फिर तय हुई थी, साथ ही आम जनमानस की सुविधा के लिए बरातघर आदि के लिए बनने थे। लेकिन “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” के अधिकारियों व कर्मचारियों ने समझौते को अघोषित रूप से ठेंगा दिखाते हुए, कुछ किसानों को बरगला कर व विभिन्न प्रकार के भय दिखाकर के उनको बाजार मूल्य पर भूखंड आवंटित करके समझौते की शर्तों का उल्लघंन करने का अपराध करते हुए दिन दहाड़े सरेआम वसुंधरा योजना के विस्थापित भोलेभाले किसानों को छलने का कार्य किया। 

*”जबकि हम देखें तो केंद्र से लेकर के राज्य सरकार तक हर पार्टी की सरकार समय-समय पर किसानों के हित में कार्य करने के लंबे चौड़े दावे करती रहती है, उसके बाद भी निरंतर लिखित समझौते होने के बाद भी “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” अपनी वसुंधरा योजना के विस्थापित किसानों को निरंतर परेशान करके ना जाने क्यों आज 40 वर्ष बाद भी टरकाने पर ही लगा हुआ है।”*

किसानों को मात्र 20 से 50 रुपए गज तक का भूमि अधिग्रहण का  मुआवजा देकर के दशकों के बीत जाने के बाद भी आज वसुंधरा योजना के प्रभावित किसानों से आवासीय व व्यवसायिक भूखंड आवंटन के लिए बाजार भाव की दर की मांग तक की जा रही जो कि वर्ष 1999 व 2012 के समझौते की शर्तों का सरासर उलंघन है व किसानों के साथ बड़ी नाइंसाफी और कानूनी दृष्टिकोण से अपराध है। किसानों का मानना है कि समझौते की शर्तों का समय रहते ठीक से अनुपालन ना करके परिषद के अधिकारियों के द्वारा पिछले कई दशकों से किसानों का आर्थिक व मानसिक उत्पीड़न किया जा रहा है, जो कि एक तरह से भ्रष्टाचार का ही एक बहुत बड़ा उदाहरण है। वैसे भी कानूनी रूप से देखा जाये तो कोई व्यक्ति, संस्था या निजी बिल्डर अगर परिषद के साथ किये गये समझौतों की शर्तों का उल्लघंन करता तो सरकार अब तक उसको जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा कर कब का उसकी सल्तनत को पूरी तरह से ध्वस्त कर चुकी होती। लेकिन अफसोस की बात यह है कि किसानों को अपने तय हक के लिए दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर करने वाले “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” के अधिकारी व कर्मचारी अपने आलीशान एसी कमरों में बैठकर वर्ष 1999 व वर्ष 2012 के समझौते की शर्तों का पूरी तरह से अनुपालन ना करने का गंभीर अपराध कर रहे हैं, वह  किसानों की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को अंधकारमय करने का जघन्य अपराध खुलेआम दिन दहाड़े बेखौफ होकर अंजाम दे रहे हैं और अफसोस हमारे देश के कर्ताधर्ता व नीति निर्माता उस पर अभी तक आंख मूंद कर ना जाने क्यों चुपचाप तमाशबीन बनकर बैठे हुए हैं।

लेकिन जब से उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने हैं तब से किसानों को उनके आम जनमानस के हित वाली कार्यशैली को देखकर, किसानों को वर्ष 1999 के समझौते के अनुसार अपने हक मिलने की उम्मीद लंबे समय बाद एक बार फिर से जागी हैं, किसानों को लगता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ वसुंधरा योजना के विस्थापित किसानों के दुःख दर्द को समझ करके, जल्द ही स्वत: संज्ञान लेकर किसान प्रतिनिधियों को मुलाकात का समय देकर कई दशकों से लंबित चली आ रही विस्थापित किसानों की पूरी समस्या को विस्तार से समझकर उसका तत्काल समाधान करवाएंगे और वर्ष 1999 व 2012 के समझौते के अनुपालन ना करने वाले “उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद” के समझौते व नियम कायदे व कानून को ठेंगा दिखाने वाले दोषी लापरवाह व भ्रष्ट अधिकारियों व कर्मचारियों के विरुद्ध सख्त से सख्त कार्यवाही करते हुए, दशकों से अधिकारियों के दर की ठोकरें खाने वाले अन्नदाता किसानों को उनका खोया मान सम्मान व तय हक जल्द से जल्द दिलवाएंगे।

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