चुनाव राजनीति

फ़ारूक और उमर दे रहे अपनी भविष्य की राजनीति के संकेत

–डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री-
INDIA-POLITICS-UNREST

आम तौर पर माना जाता है कि चुनाव के दिनों में नेता जो बोलते और कहते हैं, उसे ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिये। क्योंकि उन्हें बहुत सी बातें अपनी राजनैतिक विवशता के चलते कहनी पड़ती हैं। इसके बावजूद किसी भी पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं के भाषणों और उनकी बातों के प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थों को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। अनेक बार उनके ये भाषण प्रत्यक्ष रूप से उस पार्टी की मूल विचारधारा, कार्यनीति और व्यवहार को भी इंगित करते हैं। इस पृष्ठभूमि में सोनिया गान्धी की पार्टी और केन्द्र में सत्ता सुख भोग रहे फ़ारूक अब्दुल्ला और जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री बने हुये उनके सुपुत्र उमर अब्दुल्ला के हाल ही में दिये गये भाषणों और उनके उद्गारों का विश्लेषण करना जरुरी है।

भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में कहा है कि वह संघीय संविधान के अनुच्छेद ३७० के मामले में सभी से बातचीत करेगी और पार्टी इस अनुच्छेद को समाप्त करने की अपनी बचनबद्धता दोहराती है। पार्टी के प्रधान राजनाथ सिंह ने यह भी कहा कि इस बात पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये कि इस अनुच्छेद से राज्य के लोगों को लाभ हो रहा है, या हानि। हो सकता है कि इस अनुच्छेद से लाभ केवल अब्दुल्ला परिवार और उनके गिने चुने व्यवसायिक मित्रों को हो रहा हो और वे उसको बरक़रार रखने के लिये जम्मू कश्मीर के लोगों की आड़ ले रहे हों। वैसे भी जहां तक राज्य की आम जनता का ताल्लुक़ है, वह तो इस अनुच्छेद के कारण पैदा हुये भेदभाव की चक्की में बुरी तरह पिस रही है। जो मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिले हुये हैं, उनसे राज्य की जनता को महरुम रखा जा रहा है। वे सभी अधिकार और सुविधाएं, जो अन्य सभी को, विशेष कर दलित और पिछड़े वर्गों को मिलती हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं मिल रहीं। ऐसा नहीं कि फ़ारूक़ और उमर, दोनों बाप बेटा अनुच्छेद ३७० के कारण राज्य की आम जनता को हो रहे नुक़सान को जानते न हों । लेकिन इसके बावजूद वे अड़े हुये हैं कि इसकी रक्षा के लिये अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हैं। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो और भी दो क़दम आगे निकल गये। उनका कहना है कि लोकसभा में कोई पार्टी चाहे कितनी भी सीटें क्यों न जीत ले, लेकिन वह अनुच्छेद ३७० को हाथ नहीं लगा सकती। यदि कोई सरकार अनुच्छेद ३७० को समाप्त करने के लिये सांविधानिक विधि का प्रयोग भी करती है तो उन्हें (अब्दुल्ला परिवार को) को इस बात पर नये सिरे से विचार करना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा रहे या न रहे। उधर उनके पिताश्री दहाड़ रहे हैं कि जब तक मेरे शरीर में ख़ून का अन्तिम क़तरा है, तब तक मैं अनुच्छेद ३७० को समाप्त नहीं होने दूंगा। उन्होंने धमकी तक दी कि जब तक नेशनल कान्फ्रेंस का एक भी कार्यकर्ता ज़िन्दा है तब तक अनुच्छेद ३७० की ओर कोई आंख उठाकर नहीं देख सकता। वैसे तो फ़ारूक़ अब्दुल्ला केन्द्रीय सरकार में मंत्री हैं, लेकिन जैसे ही वे बनिहाल सुरंग पार कर घाटी में प्रवेश करते हैं तो उनकी भाषा धमकियों की हो जाती है और धमकियां भी वे चीन और पाकिस्तान को देने की बजाय, जो राज्य के दो हिस्सों गिलगित और बल्तीस्तान के लोगों, ख़ासकर शिया समाज, का दमन कर रहा है, को न देकर भारत को ही देने लगते हैं। उनका मानना है कि लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने का अर्थ होगा, अनुच्छेद ३७० को समाप्त करने का समर्थन करना। इसलिये वे पूरी घाटी में लोगों को ललकारते घूम रहे हैं कि लोग मोदी का समर्थन न करें। अपनी बात लोगों में रखने का अब्दुल्ला परिवार को लोकतांत्रिक अधिकार है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। अपनी पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस की नीतियां जनता को बताने और उस आधार पर समर्थन मांगना भी उनका लोकतांत्रिक अधिकार है। लेकिन चुनाव परिणामों के आधार पर यह कहना कि जम्मू कश्मीर देश का हिस्सा नहीं रहेगा। देशद्रोह ही नहीं, बल्कि देश के शत्रुओं का परोक्ष समर्थन करना ही कहा जायेगा।

दरअसल, इस बार चुनावों में राज्य की आम जनता ही अनुच्छेद ३७० को लेकर अब्दुल्ला परिवार से प्रश्न पूछ रही है। घाटी के गुज्जर-बकरवाल, बल्ती, शिया और जनजाति समाज तो इस मामले में बहुत ज़्यादा मुखर है। ये सभी पूछ रहे हैं कि साठ साल में इस अनुच्छेद से उन्हें क्या लाभ मिला, जनता के इन प्रश्नों का अब्दुल्ला परिवार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है । अब वे सार्वजनिक रुप से यह तो कह नहीं सकते कि आपको लाभ हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन हमारे परिवार और हमारे व्यवसायिक दोस्तों को तो बहुत लाभ हुआ है। जनता को कोई संतोषजनक उत्तर न दे पाने के कारण ही बाप बेटा धमकियों पर उतर आये हैं। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तो धमकियां देते काफ़ी दूर निकल गये। उन्होंने कहा, यदि मोदी सत्ता में आते हैं तो उनको समर्थन देने की बजाय मेरे लिये पाकिस्तान चले जाना ही श्रेयस्कर रहेगा। अपने इस इरादे को और भी दृढ़ करते हुये उन्होंने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान जाने के लिये अब उन्हें दिल्ली जाने की भी जरूरत नहीं है। घाटी में ही दूसरी ओर मुज्जफराबाद जाने के लिये बस मिल जाती है और वे उसी से सरहद पार कर जायेंगे। इससे यह तो स्पष्ट हो ही रहा है कि मुज्जफराबाद तक बस चलवाने के लिये अब्दुल्ला परिवार ने जो कई साल यत्न किया था, उसके पीछे उनकी अपनी भविष्य की योजनाएं भी एक कारण था। एक संकेत यह भी मिलता है कि आज तक एलओएसी पर उग्रवादियों का सरहद से पार आना जाना क्यों नहीं रुक सका।

वैसे पाकिस्तान में चले जाने से पहले यदि उमर अब्दुल्ला, उन कश्मीरीभाषी मुसलमानों से जो बार-बार कभी इस बस में और कभी बिना बस के ही, सरहद पार आते जाते रहते हैं, थोड़ा दरयाफ़्त कर लेते कि इनकी पाकिस्तान के मालिकों ने क्या दुर्दशा की, तो शायद अपना पाकिस्तान चले जाने का इरादा जगज़ाहिर करने से पहले वे सौ बार सोचते। पाकिस्तान चले जाने के प्रश्न पर उमर से ज़्यादा समझदारी तो उनके दादा शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने ही दिखाई थी। वे समझ गये थे कि सामन्तवादी पाकिस्तान में कश्मीरीभाषी मुसलमानों के लिये सम्मानजनक स्थान नहीं है। जो शिया समाज उस समय ग़लती से पाकिस्तान में रह गया था, वह भी अब वहां के मुसलमानों के हाथों पिटने और प्रताड़ित होने के बाद हिन्दोस्तान की ओर देख रहा है। जम्मू कश्मीर के गिलगित और बल्तीस्तान के लोग पाकिस्तान से मुक्ति के लिये संघर्ष कर रहे हैं। शेख़ अब्दुल्ला ने अपने जिन मित्रों को ज़बरदस्ती या धोखे से पाकिस्तान में धकेल दिया था, उनका वहां क्या हश्र हुआ, यह सब जानते हैं। परन्तु फ़ारूक और उमर का अनुच्छेद ३७० से इतना मोह हो गया है कि वे उसकी ग़ैरहाज़िरी में पाकिस्तान की ओर दौड़ रहे हैं। घाटी में खिसकता जनसमर्थन देखकर और वहां के लोगों के अनुच्छेद ३७० को लेकर पूछे जा रहे तीखे प्रश्नों से घबराकर, यह अब्दुल्ला परिवार का ब्लैकमेल करने का पुराना तरीक़ा ही है, या फिर सचमुच ही सरहद के पार चले जाने का इरादा, इसका पता तो चुनाव परिणाम आ जाने के बाद ही पता चलेगा। कश्मीर घाटी के लोगों समेत देश के बाक़ी लोगों की नज़र भी इसी पर लगी हुई है।