कविता

ज्ञान बांटने में नहीं कुछ खोने का डर

—विनय कुमार विनायक
मैं शब्दों का हमसफर
मैं शब्द की साधना करता हूं
मैं स्वर की अराधना करता हूं
अक्षर-अक्षर नाद ब्रह्म है
मैं अक्षर की उपासना करता हूं!

मैं लेखनी का मसीधर
मैं भावचित्र बनाता कागज पर
लेखनी से लिपि उकेरकर
मन के उद्गार को देता स्वर
मैं वाणी की वंदना करता हूं!

मैं पुस्तकों का हूं सहचर
पुस्तक के पन्नों को खोलकर
बंद विचारों को उन्मुक्त करता हूं
पुस्तकों के लुप्त होने का डर
मैं पुस्तक रक्षण याचना करता हूं!

मैं गीत गान ज्ञान का सौदागर
मैं गीत ज्ञान बेचता हूं दर दर घूमकर
मैं बिना लाभ हानि का व्यापार करता हूं
ज्ञान बांटने से नहीं कुछ खोने का डर
मैं सत चित्त विस्तारण में रहता हूं!

मैं हूं पुस्तक पथ का राहगीर
पुस्तक है विनाश होने के कगार पर
लेकिन पुस्तक है शाश्वत अजर अमर
इंटरनेट की दुनिया भी पुस्तकों पर निर्भर
मैं पुस्तकों का अभिनंदन करता हूं!

मैं ग्रंथ की ग्रंथि खोलने का पक्षधर
मैं ग्रंथ में ग्रहण लगना अस्वीकार कर
पूजता हूं ग्रंथ मूर्तिमान ईश्वर समझकर
ग्रंथ में ग्रंथित ज्ञान हो सब जग जाहिर
मैं ग्रंथ ज्ञान को नमन करता हूं!

मैं श्रुति मंत्रकार का वंशधर
मैं वैदिक ज्ञान धरोहर का पहरेदार
मैं सामवेद गान का उद्गीतकार
संकल्पित वैदिक संस्कृति संभार
मैं मां भारती को स्मरण करता हूं!
—-विनय कुमार विनायक