विविधा

अलगाव का एहसास और निजी ईमानदारी

-हरिकृष्ण निगम

आज कभी-कभी लगता है कि भावनाओं के लोक में विचरण करने वाले ही सुखी हैं। यथार्थ की कड़वाहट, जीवन के संघर्ष और मन के मुताबिक कुछ न कुछ होने से हम सब हतास होते रहते हैं। अत्तिशय महत्वाकांक्षी और असंतुष्ट साथी या जो बहुत संवेदनशील है, हर दम लोकलाज की बात करते हैं या सोचते है कि लोग क्या कहेंगे, उनका तो आज जिंदा रहना भी दुभर है। जिधर देखिए लोग यही कहते मिलेंगे – मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है? मैंने किसी का कभी क ुछ नहीं बिगाड़ा! फिर मैं क्यों कष्टों की आग में जल रहा हूँ? यह पुरूषों की बातें हैं। यदि आपने कभी किसी स्त्री की ओर देखा होगा तो जैसे वह कह रही हो कि वह तो जन्म की दुखिया है। किसके लिए उसने क्या नहीं किया पर उसे यश नहीं मिलने का।

इस स्थिति से अलग कभी-कभी लगता है कि पलायनवाद में ही कुछ चैन, संतोष और शांति बची है। हतबुध्दी, अवाक निर्बोध या बेवकुफ का बाना धारण कर कभी-कभी लगता हैं असली सुख मिल गया। न किसी दौड़ में शामिल होना, न किसी का प्रतिद्वंदी बनना, न किसी प्रतिबद्धता का लबादा ओढ़ना-ऐसी मानसिकता वातावरण के तनावों, विषमताओं और हर संभव प्रतिकूलता से छुटकारा दे सकता है। कभी सामाजिक अहंकार या वर्ग – दंभ की वजह से हम अनेक औपचारिकताओं के भी शिकार होते रहते है और मन हीं मन घुटते रहते हैं। कुछ लोग इन अनिवार्य सामाजिक तकलिफों से भी निजात पाना चाहते हैं। निःसंगता में भी एक नशा है, एक दूसरी तरह की मस्ती है। हर तरह के व्यक्तित्व के अलग-अलग रूप हैं, पहलू हैं। यदि हम अपनी सीमाएं समझ जाए तो सैकड़ों तरह के राग-द्वेष से भी बच सकते है। कि धर भी देखे अधिकांश लोग किसी अज्ञात भय से ग्रसित हैं, विवश हैं और किसी उस पल का इंतजार कर रहे हैं जब उनकी सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। पर ऐसा क्षण वस्तुतः आता नहीं है।

सच बात तो यह है कि या तो अतीत में आनेवाले सुनहरे भविष्य के इंतजार में ही सम्मोहन है, वह रोमांचक है और पुलकित कर सकता है इसलिए कि वह हमारी स्मृत्तियों या आकांक्षाओं में रचावसा होता है। बीते कल का जादू तो वर्तमान की किसी भी घटना या कीर्तिमान से अधिक आकर्षित होता है – शायद दूरी समय के अंतराल के कारण।

हम कितनी ही ईमानदारी या पारदर्शिता का दावा करें अधिकतर हम अपनी धारणाओं या मानसिकता को ही एक कसौटी बनाकर हर विचार-विनिमय या विमर्श में आगे बढ़ते हैं। हमारे पैमाने हमारे अपने बनाए होते हैं जिसमें हमारा आत्मकेंद्रित होना स्वाभाविक होता है। उसमें अहं की तुष्टि या स्वप्रचार की दमित इच्छा भी हो सकती है। जब हम दूसरों की बातों को तौलते हैं तो ऐसा लगता हैं हम अंदर ही अंदर कह रहें हों- क्या तीर मार लिया बड़बोले। सच तो यह है, जो मै सोचता हूंॅ।

एक स्वामी जी ने कहा है – बदलाव के लिए आप एक मंदबुध्दि जैसे व्यक्ति का आचरण करें। शायद तब आपको ज्ञात होगा कि हर ओर आपका शोषण करने, भयादोहन करने, आपको दिग्भ्रमित करने के लिए लोग लालायित होकर खड़े हैं। अखंड बालवत स्वभाव रखें की जगह सदैव न होने पर भी मंदबुद्वि या मुर्ख जैसा आचरण करें और दुनिया की चतुर व दक्ष रिश्तेदारों, सहयोगियों, पड़ोसियों व मित्रों के असली रंग को परखे।

पर कोई माने या न माने मेरे एक मित्र तो यह मानते है कि गूढ़, रहस्यों व प्रतिक्रियाओं का नाम ही जिंदगी है। इसे अनबूझ पहेली भी कह सकते हैं। कभी-कभी तो वे कहते है जब उनकी तबीयत बेचैन होती है वे ऐसा देशी-विदेशी साहित्य ढूढ़ने लगते हैं जिसके द्वारा उनकी अपनी समस्याओं पर प्रकाश पड़े, कुछ राहत मिले, कोई दिशा दिखाई दे। कोई ऐसा उपन्यास पढ़ने को मिल जाए जिसमें उनकी जैसी समस्या वाले व्यक्ति का चरित्र अंकित किया गया हो। संभव है उस लेखक ने जो कहा है उसके विचार मेरे काम के निकले। इसे एक आत्मग्रस्त शोध भी कहा जा सकता है। सच तो यह है कि इस नितांत निजी नाजुक घड़ी में मुझे एक मार्गदर्शी दोस्त की एक आत्मीय सलाहकार की जरूरत है और कदाचित एक सही ग्रंथ ही मुझे आश्वस्त कर सकता है। निस्संदेह विभिन्न समयों पर अलग-अलग देशों में मेरी जैसी ऊहापोह या समस्याओं वाले, स्वभाव वाले अनेकों व्यक्ति रहें होंगे। इसी तरह मेरे मित्र का कहना है कि उनकी यह खोज जारी है। उन्हें ऐसे ग्रंथ चाहे कितने बड़े लोगों ने रचे हो नहीं चाहिए जो समस्या को बड़ा करके बताते हैं, और आदमी को छोटा अव्यक्त बनाते है। वे इस अभिव्यक्ति को भी नाटकीयता या स्वांग मानते हैं।

इस अलगाव के लिए कया करें? सिर्फ किनारे पर रहकर तटस्थ रहकर, मात्र एक दृष्टा बनकर कब तक शांति की तलाश अपने सीमित अनुभवों में करें? लगता हैं आज के मनुष्य की यह पहचान बची है।

* लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।