मूल्यपरक जीवन का अभाव

– राजीव मिश्र

आज जिंदगी समस्याओं से संकुल बन रही है, क्योंकि भौतिकता प्रधान एवं अध्यात्मिकता गौण हो रही है। आवेश, उत्तेजना एवं चंचलता से जीवन की धारा बदल गई है, इसलिए मन में अशांति बढ़ रही है। इसी कारण सृजन की नवीन दिशाओं का उद्धाटन नहीं हो पा रहा है। साधारणतः हम कार्य तनाव ग्रस्त होकर करते हैं। बहुत सामान्य सी बात है कि जो खुशी से किया जाए वह कला है जो मजबूरी से किया जाए वह काम है। असल में वर्तमान समय में काम तो बहुत हो रहा है, पर सृजन नदारद है। हमें काम को कला बनाना होगा, सृजन करना होगा। ईश्वर भी हमेशा नये और मौलिक विचारों के साथ होता है। जब हम ईश्वर में खो जाते हैं तब हम रचयिता हो जाते हैं।

हमारे बहुत पुराने संस्कार रहे हैं कि प्रातः काल उठ कर भजन सुने और भजन गाएँ क्योंकि इससे घर का वातावरण शुद्ध होता है, मन शुद्ध होता है। परंतु आज ये बातें गौण हो गई हैं। भगवान के भजनों की जगह पश्चिमी संगीत ने ले ली है। लोग आजकल सुनने और गाने को भूल जाते हैं क्योंकि पश्चिमी संगीत की धुनों पर नाचना नहीं भूलते।

आखिर यह सब क्या कर रहे हैं हम। हम पश्चिमी संस्कृति और संस्कारों को अपने जीवन में अपनाते जा रहे हैं। ऐसा करना हमारे आस्तित्व के लिए संकट पैदा कर सकता है। हमें जागना होगा। जिस तरह हमारे पूर्वजों ने हमें अच्छे संस्कार और संस्कृति विरासत में दी है, हम इस अमूल्य विरासत को चिरकाल तक जीवित रखें। हमें अपने बच्चों को सिखाना चाहिए कि वे अपनी संस्कृति और संस्कारों के प्रति हमेशा समर्पित रहें। हमेशा जागरूक रहें। कभी भी किसी दूसरी संस्कृति के सामने आकर्षित न हों। हमें अपने आने वाले भविष्य को संस्कारी और विवेकी बनाना होगा। जिससे एक संस्कारी सशक्त समाज का निर्माण हो सके। इसी में हमारा हित है, समाज का हित है और देश का हित है।

नई जीवन शैली तथा आर्थिक व्यवस्था के चक्कर में फंस कर आज हमारे उदांत्त जीवन मूल्य उपेक्षित हो रहे हैं। आज हमारा देश विदेशी मुद्रा अर्जित करने के लोभ में पड़कर आधुनिकता के व्यामोह में पड़कर गया है। भौतिकता की चकाचौंध और आयातित विदेशी सभ्यता का खुलापन और स्वच्छंदता ने आज हमारी युवा पीढ़ी को बुरी तरह जकड़ लिया है। परिणामस्वरूप हमारे समाज के चरित्र एवं जीवन-मूल्यों में निरंतर गिरावट आ रही हैं। हमारा यह तात्पर्य नहीं हैकि नवीनता अथवा आधुनिकता से परहेज किया जाए। परंतु कम से कम अपनी सभ्यता, संस्कृति और अपनी जमीन से जुड़े रह कर आधुनिकता को ग्रहण किया जाये जिससे अभद्रता और अनैतिकता आचरण से बचा जा सके।

आज भी अधिकांश भारतीय परिवारों में पर्याप्त शालीनता एवं भद्रता है। अच्छे और बूरे में भेद करने का विवेक उनमें हैं। अधिकतर परिवारों में परंपरागत संस्कार तथा मूल्य परकता वर्तमान है। किंतु हमारे समाज का एक बर्ग स्वच्छंदता और उत्छृंखलता के मोहजाल में फंस कर पाश्चात्य जीवन शैली से अभिभूत है। यह वर्ग गुमराह हो अपनी सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा कर पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण कर रहा है। किंतु हमारे देश में नैतिकता के मूल्य भी वर्तमान हैं।

आज बदलते जीवन-मूल्यों की हमारे राष्ट्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित हो नई जीवन शैली की ओर आकर्षित हो रही है। इससे संस्कृति में उन्हें स्वच्छंदता और खुलापन महसूस होता है। हमारी यह नई पीढ़ी और समाज का एक वर्ग विशेष भौतिकवाद की आंधी में बहा जा रहा है। यह दिग्भ्रमित हो मौज-मस्ती में जीवन-यापन करना चाहता हैं। भारतीय संस्कृति के जीवन-मूल्य और नैतिकता आचरण के मानदंड उनके लिए बेमानी हैं। मादक-द्रव्यों का खुल कर प्रयोग करने वाला एक वर्ग हमारे समाज से कटता जा रहा है। अतः बुध्दिजीवियों और समाज के रहनुमाओं का यह दायित्व है कि नई जीवन शैली की धुन में गुमराह हो रहे इस वर्ग को सही दिशा की ओर उन्मुख कर उनका पथ प्रदर्शन करें।

* लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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