कविता

ईश्वर का अंश लिए आँखें चिड़िया की

शहर से बड़ी दूर ढलती शाम में

सचमुच ही कोलाहल जहां हो गया था निराकार और निर्विकार

कहीं दूर दूर होती ध्वनियों पर बैठ जाया करती थी जहां एक चिड़िया

चिड़िया के पंखों पर लटक जाते थे शब्द

वे शब्द खो देते थे अपने अर्थों को

और हो जाते थे भारहीन.

मुझे याद है वो सुन्दर चिड़िया

चोंच जिसकी थी रक्ताभ

और पंख जैसे सुनहरी

आँखों में वह लिए उडती थी

स्वयं ईश्वर के एक अंश को.

अच्छा लगता था बड़ी दूर से

उसकी आँखों से मुझे देखा जाना

मैं बड़ी दूर होता था फिर भी

ईश्वर के अंश वाली उस चिड़िया की आँखों में

भय तो होता ही था

मेरे दुनियावी सरोकारों से डरती थी.

किन्तु समय के साथ साथ

भय उसका मुझसे बोलते बतियाते

कुछ हल्का हो गया था

और मैं

उसकी ईश्वरीय अंश वाली आँखों से प्रेम करने लगा था.