गाँधी नेहरु का पुनर्मूल्यांकन

3
196

केरल में संघ परिवार से जुड़े एक अख़बार में किसी का लेख छप गया जिसमे लिखा

था कि विभाजन के लिए गांधी से अधिक नेहरू जिम्मेदार थे.उसने यहाँ तक लिख

दिया कि गोडसे ने अपना लक्ष्य गलत चुना.कांग्रेस के लोगों द्वारा इसका

विरोध किया जाना स्वाभाविक ही है.और संघ तथा समाचार पत्र द्वारा उस लेख

को लेखक का निजी विचार कहकर उससे किनारा कर लिया.ये भी स्वाभाविक ही

था.लेकिन यहाँ इस बात पर विचार होना चाहिए कि अभी तक हम गांधी, नेहरू को

“डेमी गॉड” मानकर उनके जीवन और कार्यों पर खुली और सार्थक बहस से बचते

रहे हैं.एक लोकतान्त्रिक देश में जहाँ सबको विचार, आस्था और अभिव्यक्ति

की स्वतंत्रता संविधान द्वारा मौलिक अधिकार के रूप में दी गयी है वहां

बड़े लोगों के जीवन और कार्यों का अलग अलग विचारों के लोगों द्वारा अलग

अलग ढंग से मूल्यांकन से परहेज क्यों हो?१९७७ में जब जनता पार्टी की

सरकार बनी थी तो उस समय भी मथाई द्वारा नेहरूजी पर और कुछ अन्य लोगों

द्वारा गांधीजी और उनके ब्रह्मचर्य के विवादास्पद प्रयोगों पर पुस्तकें

लिखी गयी थीं. और उस समय भी उन पर हंगामा किया गया था.अब आज़ादी के सड़सठ

वर्ष बीत जाने के बाद भी आज़ादी के और “ट्रांसफर ऑफ़ पावर” के पीछे के बहुत

से रहस्य ऐसे हैं जिनके बारे में देश की जनता को जानकारी होने देने की

बजाय तथ्यों को छुपाने का प्रयास ही अधिक हुआ है.सुभाष चन्द्र बोस की

गुमशुदगी भी ऐसा ही एक विषय है जिस पर जानकारी देने से प्रधान मंत्री

कार्यालय लगातार इंकार करता रहा है.किसे बचाना चाहता है प्र.म. कार्यालय?

पिछली यु.पी.ए. सरकार के दौरान एक विदेशी फिल्म निर्माता द्वारा

नेहरू-एडविना संबंधों को लेकर फिल्म बनाने का प्रस्ताव किया गया तो उसे

फिल्म नहीं बनाने दी गयी.किसी ने भी इस nehru नहीं उठाये.

अब समय आ गया है कि जब गांधी, नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन के अनेकों

नायकों के जीवन और कार्यों का सही और विश्लेषणात्मक विवेचन करते हुए केवल

छोटे मोटे लेख ही नहीं बल्कि पूरी थीसिस लिखी जानी चाहिए.राष्ट्रिय

नायकों के जीवन में घटी घटनाओं और उनके द्वारा किये गए कार्यों का असर

पूरे देश और समाज पर पड़ता है. अतः उनके बारे में भिन्न विचारों के

चिंतकों द्वारा अलग अलग नजरिये से मूल्यांकन एक स्वाभाविक प्रक्रिया होनी

चाहिए.सवाल पूछा जाना चाहिए कि अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व तत्कालीन

उपप्रधान मंत्री और गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा २६ नवम्बर १९४९ को

नेहरू जी को चीन की हरकतों के संभावित खतरों के बारे में आगाह करते हुए

एक लम्बा पत्र लिख कर आपस में एक बैठक का अनुरोध किया था लेकिन नेहरूजी

ने उस पत्र की पावती तक देना मुनासिब क्यों नहीं समझा?सवाल ये भी पूछा

जाना चाहिए कि देश के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े सभी राष्ट्रवादी नेताओं

के विरोध के बावजूद गांधी जी ने देश की स्वतंत्रता से कोई सम्बन्ध न होने

के बावजूद खिलाफत आंदोलन ( टर्की के सुल्तान की मुस्लिम जगत का खलीफा

बनाने की कोशिश) क्यों शुरू किया?वरिष्ठ पत्रकार स्व. दुर्गा दास ने अपनी

पुस्तक “इंडिया फ्रॉम कर्ज़न टू नेहरू एंड आफ्टर” में इसे गांधी जी की एक

‘हिमालयन ब्लंडर’ बताया था.ऐसे अनेकों प्रश्न हैं. जिनके सही और तर्क

संगत विश्लेषण किये बिना आज की अनेकों समस्याओं की तह तक नहीं पहुंचा जा

सकता है.

दुनिया के सभी देशों में नेताओं के कार्यों पर खुली बहसें चलायी जाती

हैं.तो फिर भारत में ही इससे परहेज क्यों? एक और बात है की भिन्न विचार

धाराओं के लोगों द्वारा लिखे जाने पर अनेकों ऐसी बातें भी सामने आती हैं

जो कुछ ‘बड़े’ लोगों को पसंद नहीं आतीं.लेकिन उस पर गाली गुफ़्तार की भाषा

में प्रतिक्रिया देने की बजाय उनके द्वारा दिए गए तथ्यों और विश्लेषण के

बारे में अपना नजरिया प्रस्तुत किया जाये ताकि उस पर एक स्वस्थ बहस हो

सके.क्या देश इसके लिए तैयार है?

 

3 COMMENTS

  1. गांधीजी ने भावनाओं में आ कर कई गलतियां की तो नेहरू की भी गलतियां देश की आज की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। गांधी खुद विभाजन के कतई पक्ष में नहीं थे, नेहरू की राज करने की लालसा ने उन्हें यह विभाजन स्वीकार करना पड़ा और इसीलिए वे 15 अगस्त 1947 को दिल्ली से बंगाल चले गए थे। अच्छी खासी जीत रही भारतीय सेना को रोक यू एन ओ में जाना, उनकी बड़ी भूल थी जिसे आज देश भुगत रहा है , महाराजा हरिसिंह ने कश्मीर का बिना शर्त विलय किया था लेकिन अपने मित्र शेख अब्दुल्ला के कहने पर ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो हमेशा के लिए सर्दार्धो गया अब उसका अलग संविधान तो नहीं पर फिर भी कई ऐसे पेंच इसमें फंसे हैं जिनकी वजह से आज अलगाववाद की आवाज उठती है। चीन के साथ सम्बन्ध क्या रहे इसका अंजाम 1962 में देख ही चुके हैं , केवल विश्व राजनीति में अगली पंक्ति का नेता बन ने की उनकी आकांक्षा ने देश के हितों को कितनी ही बार दोराहे पर ला खड़ा कर दिया , इस लिए यह पुर्न परीक्षण जरुरी तो है कि आखिर उन्होंने हमें क्या दिया व किस कीमत पर दिया

  2. आपका विषय सही होते हुए भी सामयिक नहीं है । आज दिल्ली में बी जे पी । सरकार है । बा जे पी व इससे सहमत लगभग यही कहते व मानते आए है कि विभाजन के लिए नैहरु ही जुम्मेदार है । गाधी जी अगर जुम्मेदार है तो इतने की उनमें नैहरु का विरोध करने का साहस नहीं था । दुसरे उनका यह मानना की मुसालमानों के बिना आजादी नहीं मिल सकती । उनके यह आकलन व हिन्दू समाज को भीरू समझना व मानना और भारत का असली मालिक ना स्वीकार करना भयंकर भूले थी ।
    लेकिन आज इनपर चर्चा करना ठीक है । समाज को अपने आप आगे बढने दो व आकलन करने दो । संघ से जुड़े किसी समाचार में एसा लेख आना भी ठीक नहीं है । संघ घृणा व चरित्र हनन नही करता ।
    अगर किसी पाश्चात्य से जुड़े अखबार को कु छ करना है तो करे । वो हमेशा संघ व हिन्दुत्व के बारे में अनाप सनाप लिखते ही रहते है ।
    हम वैये कयों बने ।

    लेकिन कुछ प्रशनो के उत्तर समाज हमेशा माँगता रहेगा ।
    जैसे विभाजन कयों हुआ, कौन कौन जुम्मेदार है । सरदार पटेल वरिष्ठ होते हुए भी प्रधान मंत्री कयों नहीं बने ।सुभाष बोस को अंग्रेजो को सौंपने के लिए कयों नैहरु जी माने ।
    चीन से भारत कयों पराजित हुआ, तिब्बत चीन ने कयों हथिया लिया
    ऐसे अनेक प्रशन है जिनका जवाब समाज माँगता रहेगा लेकिन इनके उत्तर मालुम भी हैै
    सवाल यह है कि एसी स्िथति आगे कभी निर्माण ना हो और जो भूले हो गई गै उन्हे ठीक करें ।

    • मैंने अपने आलेख में किसी संघ संचालित समाचार पत्र या पत्रिका में इस विषय को उठाने के लिए कहीं नहीं कहा है.बल्कि गांधी नेहरू की ऐतिहासिक भूलों के परिप्रेक्ष्य में उनके समुचित मूल्यांकन और उनके कार्यों पर समसामयिक इतिहास की दृष्टि से शोध की आवश्यकता को रेखांकित किया है.अस्तु आपने कृपा पूर्वक कॉमेंट किया उसके लिए आभारी हूँ.

Leave a Reply to Anil Gupta Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here