प्रमोद भार्गव
आम बजट को ऊपरी तौर से देखने पर ऐसा आभास हो रहा है कि यह बजट खेती-किसानी से जुड़े लोगों की चिंता करने वाला है। इस वर्ग की चिंता इसलिए भी जरूरी थी,क्योंकि 2014 के राष्ट्रिय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा पेष आंकड़ों के मुताबिक कृषि पर निर्भर लोगों की आमदनी प्रति व्यक्ति महज 3078 रूपए प्रतिमाह है। जबकि खेती-किसानी पर अभी भी 60 फीसदी आबादी की आजीविका टिकी है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 18 प्रतिषत होने के बावजूद देश के अन्नदाता को जबरदस्त आर्थिक विषमता से जूझना पड़ रहा है। केन्द्रीय सत्ता परिवर्तन के बावजूद किसान आत्महत्या का सिलसिला थमा नहीं है। इस लिहाज से वित्त मंत्री अरुण जेटली से उम्मीद तो यह थी कि वे किसानों को राहत के लिए वित्तीय पैकेज की घोषणा करते ? ऐसा नहीं होने के बावजूद इस बजट में गांव,किसान,पशु पालक और कृषि मजदूरों की चिंता दिखाई देती है। सरकार ने मनरेगा को बंद नहीं करके इस संदेश को पुख्ता किया है कि ग्रामीण व अकुषल मजदूरों की रोजी-रोटी की चिंता नरेंद्र मोदी सरकार को है।
कृषि क्षेत्र पर सरसरी निगाह डालने पर लगता है कि इस बजट में खेती-किसानी से जुड़े बजट आबंटन के जो प्रावधन सामने आए है,उनके अमल में आने पर कृषि की रफ्तार बढ़ने वाली है। किसानों को साहूकारों और सूदखोरों से बचाने की दृष्टि से 8.5 लाख करोड़ रूपए का बजट प्रस्ताव अरुण जेटली ने रखा है। यह बजट पिछले साल की तुलना में 50,000 करोड़ रूपए ज्यादा है। इसके अतिरिक्त खेती और ग्रामीण विकास पर भी चौतरफा नजर रखी गई है। इनमें 25000 करोड़ रूपए से ग्रामों का बुनियादी ढांचा विकसित होगा। 15000 करोड़ रूपए बतौर ग्रामीण ऋृण कोष सुरक्षित किया गया है। 45000 करोड़ रूपए तात्कालिक जरूरतों के पूर्ति के ऋृण कोष में रखे गए हैं। इस कर्ज को किसान के्रडिट कार्ड के जरिए ले सकते हैं। सिंचाई के लिए 3000 करोड़ रूपए का अतिरिक्त प्रावधान है। इसके अलावा सिंचाई बाबत करमुक्त बाण्ड भी जारी किए हैं। जबकि प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत कुल बजट प्रावधान 53000 करोड़ का है। 3321 करोड़ रूपए कृषि क्षेत्र में नए अनुसंधानों के लिए और 3257 करोड़ रूपए कृषि को उन्नत बनाने की योजना मद में शामिल हैं।
इसी तरह डेयरी विकास के लिए 481 करोड़ रूपए और नीली क्रांति के लिए 411 करोड़ रूपए प्रस्तावित हैं। नीली क्रांति से आशय अंतरदेशीय मत्स्य पालन उद्योग से है। पिछले बजट में इसकी शुरूआत महज 50 करोड़ रूपए से की गई थी। कृषि में लागत की कमी की दृष्टि से सरकार का रुख परंपरागत खेती की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है। जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के उपाय भी बजट में किए गए हैं। इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सरकार ने पूर्वोत्तर के राज्यों को जैविक खेती का नाभि-केंद्र बनाने का फैसला किया है। यह एक अच्छी शुरूआत है,इससे खेती को आनुवंशिक बीजों,रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से छुटकारा मिलेगा। इन उपायों से मिट्टी में लोहा,जस्ता और नाइट्रोजन जैसे जिन पोषक तत्वों की कमी महसूस की जा रही है,वह बढ़ेगी। मृदा अनुसंधानों में यह कमी 40 प्रतिषत तक पाई गई है।
इस बजट से यह अनुभव होता है कि सरकार का जोर कृषि में संस्थागत सुधारों पर है। इसीलिए ग्रामीण क्षेत्रों में कौशल दक्षता और उद्यमिता विकास का खयाल बजट प्रावधानों में है। कृषि में एक संयुक्त राष्ट्रिय बाजार व्यवस्था इस मंशा की पुष्टि करती है। लेकिन मंशा से यह संदेह भी उत्पन्न होता है कि सरकार किसानों को कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम के दायरे से मुक्त करने का रास्ता तो प्रषक्त नहीं कर रही शस्त? क्योंकि संयुक्त बाजार व्यवस्था कृषि ऋृण कोशों में बढ़ोत्तरी से यह संकेत सहज ही मिलता है कि किसान की निर्भरता एग्रो व्यपार से जुड़े उद्योगों पर बढ़ने वाली है। यही वे उद्योग हैं,जो ट्रैक्टर व अन्य कृषि यंत्रों के अलावा बीज,कीटनाशक और रासायनिक खाद के उत्पादक व निर्माता हैं। किसान को जो भी खेती-किसानी संबंधी कर्ज मिलेगा,वह सीधे न मिलने की बजाय,उपरोक्त वस्तुओं की खरीद पर मिलेगा। ऐसा वाकई होता है तो किसान के नहीं उद्योगपतियों के पौ बारह इस बजट से होने जा रहे हैं। लाचार किसान तो इनके रहमो-करम पर जीने-मरने को मजबूर हो जाएगा ? इससे अच्छा होता कृषि उपज मंडियों का जाल बिछाया जाता और किसान को उपज का मूल्य मंडी परिसर में ही दिलाने के प्रबंध किए जाते। इसी तरह किसान को कर्ज वस्तु के बदले नगद दिया जाता। ऐसा होता तो किसान खुले बाजार से वस्तु या यंत्र खरीदने को स्वतंत्र रहता। ऐसा होने पर उसे ये वस्तुएं सस्ती व अच्छी भी मिलती।
यह सही है कि मौजूदा परिदृष्य में खेती-किसानी बड़ी चुनौतियों से दो-चार रही है। इसीलिए लागत घटाकर उपज बढ़ाने वाली नीतियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। यह इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि केंद्र सरकार द्वारा तमाम औद्योगिक प्रोत्सहानों के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र में उतनी बढ़त नहीं मिली है,जितनी सरकार और उद्योग-जगत को उम्मीद थी। अपेक्षा के अनुसार नए रोजगारों का भी सृजन नहीं हुआ है। शायद इसी वजह से सरकार ने इस बजट में बड़ा नीतिगत बदलाव लाते हुए विकास में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित की है। इसी नजरिए से अब राज्यों को केंद्र की आय की सीधी 62 फीसदी धनराशि दी जाएगी। केंद्र के पास महज 38 प्रतिषत धन रहेगा। इसके साथ ही संभवतः अब यह जबावदेही राज्य की ही होगी कि वह कृषि,शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मदों में कितनी धनराशि खर्च करते हैं। राजस्व के इस बंटवारे से यह शंका भी उत्पन्न हुई है कि केंद्र घीरे-धीरे जनकल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींच लेगा और इन्हें अमल में लाने की जिम्मेबारी राज्यों के सुपुर्द कर दी जाएगी। राष्ट्रिय कृषि बाजार की परिकल्पना इस दृष्टि संघीय ढांचे को मजबूत करने के साथ समावेषीकरण का भी एक उम्दा उपाय हो सकता है।
इस बजट में मनरेगा को नया जीवनदान मिला है। वरना आशंका तो यह तो थी कि इस योजना से सरकार हाथ खींच लेगी। क्योंकि मोदी सरकार के वजूद में आने के बाद मनरेगा का दायरा सिमटने लगा था। लेकिन वित्त मंत्री ने इस मद में 34699 करोड़ रूपए का भारी-भरकम बजट प्रावधान करके यह जता दिया है कि ग्रामीण विकास और गरीब की आजीविका के प्रति यह सरकार सजग है। मनरेगा में इस बार 5000 करोड़ रूपए ज्यादा दिए गए हैं,जो अब तक की सार्वधिक वृद्धि है। इस वृद्धि से पूजीपतियों के उन पैरोकारों को परेशानी हुई है,जो मनरेगा समेत अन्य सब्सिडी आधारित योजनाओं को ‘घर फूंक तमाशा देख करार‘ देते रहे हैं। गरीबों की भूख मिटाने के इन उपायों को तथाकथित अर्थशास्त्री लोकलुभावन हथकंडों और फिजूलखर्ची बताते रहे हैं। जबकि इन्हें न तो वे पेंशनधारी दिखते हैं,जो 50-60 हजार रूपए प्रतिमाह घर बैठे बतौर पेंशन और अन्य लोक कल्याणकारी सुविधाएं ले रहे हैं। इन्हें उद्योगों को दी जा रहीं कर रियायतें भी दिखाई नहीं देती ? बावजूद वित्तमंत्री की यह टिप्पणी चुभने वाली है कि ‘मध्यवर्ग खुद अपना खयाल रखे‘। बहरहाल मनरेगा समेत इस बजट में खेती-किसानी के सरंक्षण के जो उपाय किए गए हैं,उससे कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की संभावनाएं बढ़ेगी। परंपरागत व जैविक खेती को बढ़ावा देने की योजनाएं किसानों के लिए भविष्य में संजीवनी सिद्ध होंगी। गोया,यह बजट खेती-किसानी के लिए लाभदायी दिखाई देता है।
आज किसान की सबसे बड़ी दो समस्याएं तो उसके पास भण्डारण की क्षमता और और सुविधा नहीं है. दूसरे कृषि के लिए बिजली पानी,खाद सहज उपलन्ध नहीं है.यदि ये दो बातें उसके पास हों तो वह शेष स्वयं जुटा लेगा, सड़कें हैं.वाहन है. ,१०-५-कि.मी पर विधालय हैं. जब किसान कड़ी मेहनत से सोयाबीन,चना, गेहूं,और सब्ज़ी में टमाटर,गोबी,मटर . का उत्पादन करे और उसे अपना उत्पाद कौड़ियों के दाम बेचना पड़े तो उस पर क्या गुजरती होगी?इसी वर्ष दिल्ली दे ३० कि.mee. दूर आलू देहात में २ रु,किलो और वही आलू बिचोलियों की जेब भरकर दिल्ली में ३० और ४० रुक़िलो?जब दिल्ली के ये हाल हैं तो शेष देहातो के किसान क्या करेंगे? ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिस या विकास खंड कार्यालाओं की भूमिका कहाँ तक उपयोगी हो पाई. अब जब की जनपद पंचायतें बन गयी हैं उन्हें जनपद स्तर पर ही कृषि,सहकारिता,बैंक ,चिकित्सा ,शिक्षा के अधिकार दिए जाएँ एक ऐसा एकीकृत प्रशासनिक ढांचा तैयार हो जाए जो सर्वाधिकार संपन्न हो. कृषि,और इस से सम्बंधित समस्त कार्य जैसे बिजली पानी ऋण खाद सबकी व्यवस्था यही करे. और जैसे जिले स्तर पर जिलाधीश हो वैसे ही मुख्य कार्यपालीन अधिकारी भी आ,ए। एस। स्तर का हो. एक ऐसा संकुल बने जो सर्व सक्षम हो और उसे किसी विधायक.सांसद ,या जिलाधीश की और याचक की दृष्टि से नहीं देखना पडे। जब ओले ,अधिक वर्षा या अन्य प्रकृतिक आपदा से फसलों का नुकसान हो तो भोपाल या दिल्ली से सर्वेक्षण करने सरकारीदल क्यों आएं?जनपद स्तर पर ही इसका निराकरण क्यों न हों?