उल्फत-ए-ज़िन्दगी

-लक्ष्मी जायसवाल-
poem

क्यों मेरी ज़िन्दगी पर मेरा इख़्तियार नहीं है
क्या इस पर अब मेरा कोई भी अधिकार नहीं है।

ज़िन्दगी के खेल में कैसे मैं इतनी पिछड़ गई
कि अपने ही सपनों से अब मैं फिर बिछड़ गई।

संवरने लगी थी ज़िन्दगी मेरे नादां अरमानों से
क्यों मैं इन्हें संभाल नहीं पायी वक़्त के तूफ़ानों से।

ये वक़्त भी मुझसे जाने क्या-क्या खेल खेलता है
क्यों मन मेरा हर तूफ़ान को हंसकर ही झेलता है।

चेहरे की यह हंसी मेरे दिल का दर्द क्यों बढ़ा रही है
यह किसकी दुआएं हैं जो आज भी मुझे हंसा रही है।

हंसी मेरी सिर्फ दिखावा बनकर आज रह गयी है
जैसे इस तिजोरी की चाबी मुझसे कहीं खो गयी है।

बंद है तिजोरी में हंसी और चेहरे पर है एक ख़ामोशी
क्या कभी वापस मिल पाएगी मुझे मेरी वही हंसी।

बोलती बहुत हूँ मैं पर फिर भी कुछ बोल नहीं पाती हूं
समझ नहीं आता क्यों अपनों से अपना दर्द छिपाती हूं।

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