महिला-जगत

लड़कियां महान बलवती हैं, फिर सामाजिक अबला क्यों?

बदलते सामाजिक परिवेश में लड़कियों की भूमिका अपने आप में बहुत सालों से एक चर्चा का विषय रहा है। चूंकि ऐसा कहा एवं माना जाता है कि भारत पुरुष प्रधान देश है। इस कथन की सार्थकता कितनी है यह आकलन करना आसान नहीं है परन्तु इसके सार्थकता से नकारा भी नहीं जा सकता है। तमाम ऐतिहासिक परिवर्तनों ने आज समाज के प्रबुद्ध तबके को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि आज के वर्त्तमान परिवेश में एक लड़की की भूमिकाएं क्या-क्या है? यह ज्वलंत प्रश्न है कि आज एक लड़की कि इच्छाशक्ति की सीमाएं क्या हो सकती हैं? एक लड़की की कार्य कुशलता के मानक कौन कौन से हो सकते हैं? प्राचीन काल के इस “अबला” शब्द में किस बदलाव की संभावनाओं को देखा जा रहा है या आधुनिक लड़कियां किन किन पुराने सामाजिक मानकों को ध्वस्त कर नए आयाम गढ़ने में लगी हैं? उपरोक्त सभी सवालों का जवाब देना इतना आसान नहीं प्रतीत होता है परन्तु यह तथ्य विचारणीय अवश्य है। अगर १८ वी एवं १९वी शताब्दी के कुछ दशकों की बात करें तो लड़की शब्द के इतने वृहद् मायने नहीं थे जितने आज के समय में हैं। तत्कालीन दौर में लड़की महज़ एक सामाजिक साधन की तरह थी और पुरुष का प्रभुत्व साधक की तरह था। लड़कियों ने समाज के एक ख़ास तबके के समक्ष अनेकों बार घुटने भी टेके हैं। परन्तु यह कहा जाता है कि कोई भी सामाजिक धारा चिरकालीन तो हो सकती है परन्तु अनंत कालीन नहीं। धीरे-धीरे समाज के शोषित वर्ग ने सुसुप्त सामाजिक क्रांति को जन्म दिया और १९वी शताब्दी के अंतिम दशकों में अपने पाँव फैलाने शुरू किये। आज के आधुनिक दौर में चाहें अधौगिक क्षेत्र हो या शैक्षिक क्षेत्र हो , मीडिया हो या कोई और गैर सरकारी संगठन, इन सबमें लड़कियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती जा रही है। शायद शत प्रतिशत तो नहीं परन्तु काफी हद तक समाज ने स्वीकार कर लिया है कि कार्य कुशलता एवं कार्यक्षमता को मापने के लिए पुरुष एवं महिला, लड़का एवं लड़की जैसे को मानक नहीं हो सकते। किसी कार्य को करने एवं जीवन जीने कि इच्छाशक्ति दोनों में सामान भी हो सकती है। शिक्षा का स्तर लड़कियों में भी सर्वोत्तम हो सकता है।

परन्तु केवल यह कह देना काफी नहीं है कि लडकियाँ हर काम कर सकती हैं या वो हर भूमिका निभा सकती हैं जो सामाजिक अपेक्षाओं एवं विकास के लिए आवश्यक होता है। बहस का मुद्दा यहाँ यह भी है कि तमाम उदाहरणों के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों में यह मानसिकता विकसित क्यों नहीं हो रही है? आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में तमाम परिवार ऐसे मिल जाएंगे जो लड़कियों की उच्च शिक्षा के खिलाफ हैं। तमाम लोग ऐसे भी मिलेंगे जो अपने घर की लड़कियों को निजी संस्थानों में नौकरी नहीं करने देते हैं। मेरा मानना है कि लड़कियों कि सोच एवं कार्य क्षमता की तुलना में उनका विकास स्तर काफी निम्न है। आज सामाजिक अन्धप्रवृतियों या पूर्वनियोजितधाराओं के चलते लडकियाँ अपनी सम्पूर्ण इच्छाशक्ति का इस्तेमाल भी नहीं कर सकती हैं। आज की लड़की में निजीस्तर पर हर क्षेत्र में आयाम स्थापित करने की कला है, कार्यक्षमता है, आत्मविश्वास है, बुद्धिलब्धि है, जीवन शैली है परन्तु सामाजिक स्तर पर आज भी लड़की की स्थिति अबला या इस शब्द के इर्द गिर्द ही है। लड़की खुद को कभी अबला नहीं मानती , वह तो महान बलवती है परन्तु लड़की के जो समाजिक उत्तरदायित्व हैं वो उसे अबला बना कर रखता है। नितान्त अकेले में अगर वह निश्चेष्ट शैल की भाति है तो समाज में पिघलते हुए हिम की तरह। अगर वो अकेली खड़ी हो तो सारी दुनिया से लड़ सकती है परन्तु जब समाज के साथ कतार में खड़ी है तो उसे चुप ही रहने को कहा जाता है। जब तक खुद को समाजिक दायित्वों के प्रति पूर्णतया समर्पित करती रहेगी समाज उसे अबला कहता