तुलसीदास के वंशजों के जकड़न में बेहाल हैं महिलाएँ

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पुरुष और नारी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लिहाजा जरुरत है दोनों पहलूओं के साथ एक समान व्यवहार करने की, किंतु हकीकत है ठीक इसके विपरीत।

अनादिकाल से ही महिलाओं को दोयम दर्जे की श्रेणी में रखा गया है। कन्या के साथ भेदभाव माँ के गर्भ से ही शुरु हो जाता है। सबसे पहले गर्भ में पल रहे कन्या शिशु को मारने की कवायद की जाती है। अगर किसी कारण से वह बच जाती है तो उसकी स्थिति निम्नवत् पंक्तियों के समान होती है:-

अविश्‍वास को

सहेज कर प्रतिस्पर्धा करती है

लड़कों से एक लड़की

फिर भी

अपनी इस यात्रा में

सहेजती है वह

निराशा के खिलाफ आशा

अंधेरा के खिलाफ सहेजती है उजाला

और सागर में सहेजती है

उपेक्षाओं एवं उलाहनों के खिलाफ

प्रेम की छोटी सी डगमगाती नाव

सब कुछ सहेजती है वह

मगर

सब कुछ सहेजते हुए

वह सिर्फ

अपने को ही सहेज नहीं पाती।

21 वीं सदी के 9 साल बीतने के बाद हमारी दिल्ली सरकार लिंग परीक्षण के खिलाफ व्यापक अभियान छेड़ने की बात कह रही है। ”प्री नेटल डिटरमिनेशन टेस्ट एक्ट” को लागू करने की प्रतिबद्वता की दुहाई दी जा रही है। स्वास्थ एवं कल्याण मंत्री प्रो किरण वालिया 5 मार्च को एक गोष्ठी में कहती हैं कि बच्चियों को बचायें। उन्हें संसार में आने दें। जब देश की राजधानी का यह हाल है तो दूर-दराज के प्रांतों का क्या हाल होगा, इसका आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं?

संसद में महिला आरक्षण विधेयक को पुनश्‍च: पेश करने की तैयारी जोरों पर है। उल्लेखनीय है कि इस बार यह विधेयक अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानि 8 मार्च को प्रस्तुत किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि इस दफा यह विधेयक पास हो जाएगा।

कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने का श्रेय न ले ले। इसलिए भाजपा भी इस विधेयक को पास करवाने के लिए खुलकर मैदान में आ गई है। बावजूद इसके पूरा विपक्ष इस मुद्वे पर एकमत नहीं है। जदयू के नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच मतभेद स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर हो रहा है।

महिला सशक्तीकरण के लिए प्रयास किये जा रहे हैं। पर अभी भी महिलाएँ संपत्ति के अधिकार से वंचित हैं। न तो उन्हें मायके में अपना हक मिलता है और न ही ससुराल में। इतना ही नहीं तलाक होने की स्थिति में उन्हें गुजारा भत्ता पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।

भला हो शाहबानो का कि मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ताा के लिए 1986 में सर्वोच्च न्यायलय की मदद से एक रास्ता मिल गया। इसी राह पर 1994 में सर्वोच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद इसाई महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का अधिकार मिला।

ढृढ़ इच्छाशक्ति वाली महिलाएँ तो न्यायलय का रास्ता अख्तियार कर अपने अधिकार को प्राप्त कर लेती हैं, लेकिन कमजोर महिलाएँ आज भी न्याय पाने में असमर्थ हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ऑंकड़ों पर विश्‍वास करें तो हमें यह मानना पड़ेगा कि महिलाओं के विरुद्ध हो रहे अपराधों का विकास दर हमारी जनसंख्या दर से कहीं अधिक तेज है।

घ्यातव्य है कि यौन उत्पीड़न का प्रतिशत इसमें सबसे अधिक है। घर से लेकर बाहर तक महिलाएँ कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। जब हमारे साधु-संत ही सेक्स रैकेट चलाने में शामिल हैं, तब हम किस पर विश्‍वास करेंगे?

हमारे समाज में हर स्थिति में पुरुष के लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट महिलाएँ ही होती हैं। चाहे उन्हें बदला लेना हो या साम्राज्‍य हासिल करना, दोनों स्थिति में नारी को वस्तु समझा जाता है।

भले ही 1961 में दहेज निरोधक कानून पास हो गया, किंतु इससे दहेज को रोकने में कोई खास मदद नहीं मिल पायी है। दहेज की बलिवेदी पर अब भी प्रतिदिन सैकड़ों लड़कियाँ जिंदा जलायी जा रही हैं।

1956 में इमोरल ट्रेफिंकिंग एक्ट पास किया गया। ताकि लड़कियों की सौदेबाजी रुक सके। लेकिन इस कानून का हश्र भी अन्य कानूनों की तरह हो गया। धड़ल्ले से लड़कियों के हो रहे खरीद-फरोख्त पर लगाम लगाने में सरकार असफल रही है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश से कितनी लड़कियों को अब तक अरब के शेखों की हरम में पहुँचाया गया है, इसकी ठीक-ठीक जानकारी न तो सरकार को है और न ही किसी गैर सरकारी संगटन को।

इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाओं के हालत बदल रहे हैं, किंतु रफ्तार बहुत धीमी है। निष्चित रुप से सानिया मिर्जा, पी. टी. ऊषा, कुंजारानी देवी, सुषमा स्वराज, किरण बेदी, मायावती, सोनिया गाँधी, अनिता देसाई, झुम्पा लाहिड़ी, लता मंगेष्कर, अंजली ईला मेनन इत्यादि कुछ ऐसे नाम हैं जो हमारे मन में आशा का संचार करते हैं।

पंचायती राज की विचारधारा को अमलीजामा पहनाने से जरुर महिलाओं की हिस्सेदारी ग्रामीण स्तर तक बढ़ी है। इस रास्ते में महिला आरक्षण विधेयक मील का पत्थर साबित हो सकता है, पर इसके लिए हमें पुरुषवादी सोच के मकड़जाल से बाहर निकलकर दिमाग की जगह दिल से काम करना होगा, तभी महिलाओं को उनका वाजिब हक मिल पायेगा।

-सतीश सिंह

6 COMMENTS

  1. ऐसे तो मुझे इस लेख का शीर्षक ही समझ में नहीं आया की महिलाओं के प्रति अत्याचार में तुलसीदास कहाँ से आ गए?तुलसीदास ने तो अपनी रचनाओं में महिलाओं को कभी भी नीचा दिखाने की कोशिश नहीं की है. हाँ ,एक जगह उन्होंने अवश्य एक महिला के मुख से कहवाया है की ढोल ,गंवार ,शुद्र,पशु ,नारी.ये सब ताडन के अधिकारी .मेरे ख्याल से तो इस सन्दर्भ को ज्यादा उछालने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि यहाँ नारी ने अपनी गलतियों के प्रायश्चित स्वरुप ऐसा कहा है.तुलसीदास को तोऐसे भी मैं ख़ास दोष नहीं दे सकता,क्योंकि ऐसे भी अपनी पत्नी को वे हद से ज्यादा प्यार करते थे और शायद उसी पत्नी की फटकार ने उन्हें राम की और उन्मुख किया था, अतः नारी जाति का सम्मान तो उनके लिए स्वाभाविक था पर ये कहना की हिन्दू लोग नारियों को हमेशा सम्मान देते थे और उनके यहाँ भेद भाव मुगलों के शासन काल में आया मुझे तो तर्क पूर्ण नहीं लगता.जब हमारे सब धर्म ग्रन्थ साफ़ साफ़ कहते है कि बिना पुत्र प्राप्ति और बिना उसके द्वारा तर्पण किये हुए मोक्ष नहीं मिल सकता तो हमने तो वही से नारी को दोयम दर्जा दे दिया. भारत में और खास कर भारत के उच्च जातियों में नारी को जो दर्जा प्राप्त है वह आज का नहीं बल्कि शाश्वत लगता है.ऐसे संस्कृत में श्लोक अवश्य है कि यत्र नार्याँ पूज्यते तस्य देवो रमन्ते,पर वास्तविक रूप में इस पर कितना अमल होता था यह विवाद पूर्ण है. सारांश यह कि हमारी कथनी और करनी में हमेशा अंतर रहा है और नारी को हमने कभी बराबरी का दर्जा नहीं दिया है,पर इसमे तुलसीदास को ख़ास दोषी नहीं ठहराया जा सकता.लेखक ने शीषक के अतिरिक्त अन्य बातें एक तरह से ठीक ही लिखी है.

  2. भाई सतीश जी आप अध्ययनशील और विद्वान तो हैं पर अन्य अनेक विद्वानों के सामान पश्चिम के फैलाए वैचारिक जाल में फंस कर रह गए हैं. तुलसी को कभी पढ़ा है आप ने.? पढ़ा होता तो उनके नाम का प्रयोग वाम पंथियों या पश्चिमी भारत विरोधियों की रटी-रटाई bhaashaa का prayog n karate. kripayaa भारत और तुलसी को apani khud की nazar se dekhane का prayaas karen.

  3. सतीश ji आप पढ़े लिखे …. नजर aate है.. इस देश की तरक्की के bare में सोचो न की कांग्रेस और बीजेपी के बारे में ..
    भारत का रहने वाला हु भारत की बात सुनाता हु ..
    है रित जहा की प्रीत सदा मै गीत वहा के गाता हु..

    महिलाओ को सदियों से ही हमारे देश में सम्मान रहा है और उनकी बुरी दशा के लिए कई बातें जिम्मेदार है … किन्तु इस देश को कोसना नहीं है .. बल्कि इस देश में सकारात्मक परिवर्तन लाना है.. आपको कोई हक नहीं इस देश के बारे में कुछ भी गलत लिखने का… samjhe

  4. आदरणीय भाई सतीश सिंह जी !
    दोष आप जैसे सज्जनों का नहीं, मेकाले की शरारती शिक्षा का शिकार बनकर भारत को दखेंगे तो सब उलटा ही नज़र आयेगा. कृपया एक बार भारत को अपनी खुद की नज़र से देखनें का प्रयास करें तो हिनाता की ग्रंथी से छुटकारा पासकेंगे और देश ,समाज के हित मैं आपकी योग्यता का सदुपयोग होसकेगा. अन्यथा गांधी जी के शब्दों में ‘भारत के गटर इंस्पेक्टर’ बनकर रह जायेंगे; जो भारत की कमियां गिनाने -बताने तक सिमित हो जाते हैं. श्री अब्दुल कलाम के शब्दों में कहें तो ‘हमारे पास सबकुछ है, एक आत्म विशवास के इलावा’ . आप जैसे विचारकों और बुद्धिजीवियों को भारत का का आत्मबल तोड़कर दुश्मनों के हाथ मजबूत करनें हैं या भारत का आत्म विश्वास जगाकर एक स्वावलंबी भारत के निर्माण में योगदान करना है ? कृपया देख समझलें की हम अनजाने में देश के दुश्मनों की दुर्नीति का शिकार बनकर अपनी जड़ें खुद तो नहीं खोद रहे ?

  5. हमारे यंहा अनादिकाल से ही महिलाओं को पूजनीय माना गया है. प्राचीनकाल से ही महिलाओं को उच्च स्थान प्राप्त है. जब राजा दशरथ ने अपनी रानी केकयी के कहने पर अपने पुत्र को १४ साल के बनवास पर भेज दिया. हर महानपुरुष के नाम मैं उसकी माता का नाम लिया जाता था. यशोदानंदन, अंजनीसुत, गंगापुत्र, कुन्तीपुत्र, और भी कई नाम हैं. भारत मैं महिलाओं की स्थिति मुगलों के आने के बाद ज्यादा दयनीय हुयी है. जब किसी भी महिला को जब चाहे अपहृत कर जबरदस्ती विवाह किया जाता था. इसी के फलस्वरूप महिलाओं पर उनकी सुरक्षा हेतु बंधन लगते गए. आज भी महिलाओं को कई अधिकार प्राप्त हैं ससुराल मायके मैं हक की बात करें तो भी आज सबसे ज्यादा संपत्ति महिलाओं के नाम है. अगर कोई भी अत्याचार हुआ है तो वो सिर्फ अशिक्षा द्वारा जनित है. न की समाज द्वारा और शिक्षा आज भी राज्यों एवं केंद्र के अधिकार मैं आता है. समाज के गिरते नैतिक मूल्यों के कारण महिलाओं को यह सब सहन करना पड़ रहा है. हमारे पाट्यक्रम मैं महिलाओं का सम्मान करने के लिए क्या सिखाया जा रहा है? और मीडिया क्या दिखा रहा है? अगर इसके अंतर को आप समझ गए तो सब दुविधा दूर हो जाएगी.

  6. सेक्स को बाजार बनाने वाला मीडिया भी आप जैसे बुद्धिजीवियों के संरक्षण मैं चल रहा है, जिसके कारन महिलाओं पैर यौन उत्पीडन जैसे अपराध हो रहे हैं. अगर सूचनाओ के अनियंत्रित प्रवाह जिसमे सेक्स का प्रतिशत लगभग ७५ तक पहुँच गया है, कोंग्रेस सरकार के सुचना प्रसारण मंत्रालय को इस पर चिंतन करना चाहिए. आप शिक्षा भी इस स्तर की नहीं उपलब्ध करा पाए की जो महिलाओं का सम्मान करना सिखाये. और अगर शिक्षित लोग यौन उत्पीडन मैं लिप्त हैं तो आपके क़ानून इतने नरम क्यों हैं. राजनीती मीडिया नेता अफसर के अलावा भ्रष्टाचारी लोग कब तक लोगों को बेवक़ूफ़ बनायेंगे. और आप जैसे लेखक कब तक कलम घिसते रहेंगे. कलम का असर भी अब ख़तम होता दिख रहा है. कलम अब सिर्फ नकारात्मक को ही सही बनाने मैं लगी हुयी हैं.
    आप को शायद नहीं पता हमारे यंहा अना%

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