लोकसभा चुनाव में मुद्दों को नया विमर्श दें

0
95

– ललित गर्ग –

लोकसभा चुनावों के प्रचार अभियान में एक आवाज बहुत धीमी पर एक वजन और पीड़ा के साथ सुनने को मिल रही है कि इस चुनाव को येन-केन-प्रकारेण जीतने के सभी जायज एवं नाजायक प्रयोग हो रहे हैं, लेकिन नैतिकता, मूल्य एवं आदर्श की बात कहीं भी सुनाई नहीं दे रही है। देश का राजनीतिक भविष्य तय करने वाले इन चुनावों में एक और विडम्बना देखने को मिल रही है कि राष्ट्र विकास के मुद्दों एवं आजादी के अमृतकाल को अमृतमय बनाने की कोई चर्चा नहीं है। देश को दिशा देने एवं कोई नया विमर्श खड़ा करने का नेताओं के पास अभाव है, जो अपने-आप में एक त्रासदी है। मतदाताओं की लोकतंत्र के महाकुंभ में भागीदारी का घटना भी एक चिन्ता का सबब है। जबकि किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है। लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है।
विभिन्न राजनीतिक दल आरक्षण का मुद्दा खड़ा करके जहां अल्पसंख्यकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करते हुए भाजपा को आरक्षण विरोधी बता रहे हैं और गृहमंत्री अमित शाह के आरक्षण विषयक बयान को तोड़-मेरोड कर झूठे एवं फेक वीडियो के माध्यम से भाजपा के चरित्र को धुंधला रहे हैं, वहीं आम महिलाओं के डर का सहारा लेते हुए उनके मंगल सूत्र और स्त्री धन को छीन लिए जाने की बात कही जा रही है। सैम पित्रोदा के विरासत कर संबंधी बयान से आम जनता के धन को हथियाने की बातें भी हो रही है। लेकिन प्रश्न है कि क्या कांग्रेस पार्टी के सत्ता में आने की संभावना है? सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाती है। चुनाव अभियान तीसरे चरण की ओर अग्रसर हैं। सब राजनैतिक दल अपने-अपने ‘घोषणा-पत्र’ को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है।
एक-दूसरे की नीतियों एवं योजनाओं की आलोचना चुनाव का हिस्सा बनी हुई है और बनना भी चाहिए। लेकिन एक-दूसरे पर भीषण एवं भद्दे आरोप लगाना, लोकतंत्र की मर्यादा का उल्लंघन है। परंतु मौजूदा चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता के ताने-बाने को क्षति पहुंचाने की चेष्टा का होना दुर्भाग्यपूर्ण है। सभी दल भाषणों में नैतिकता की बातें करते हैं और व्यवहार में अनैतिकता को छिपा रहे हैं। चुनाव आयोग के आंकड़ों की ही बात करें तो पिछले सप्ताह तक ही आचार संहिता उल्लंघन की 200 से अधिक शिकायतें आ चुकी है। जिनमें से 169 शिकायतों पर आयोग ने कार्रवाई की है। शिकायतों के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं। वास्तव में इन चुनावों में नेताओं ने भाषा एवं भावों को इतना बदरंग, अशालीन एवं भोंथरा कर दिया है कि शर्म-सी महसूस होती है।
दागी उम्मीदवारों के दागों का पर्दापाश होना भी इन चुनावों का हिस्सा है। कथित तौर पर प्रज्वल रेवन्ना से जुड़े वीडियो क्लिप प्रसारित होने सेे देखा गया है कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा की घटना हुई है। रेवन्ना के खिलाफ शिकायत कुछ महिलाओं के शोषण तक ही सीमित नहीं है, अब अनेकों शिकायतें सामने आएगी और हर शिकायत को ईमानदारी से परखना होगा। सबसे ज्यादा गंभीर बात तो यह है कि आरोपी जर्मनी भाग गया? अगर रेवन्ना दोषी हैं तो उन्हें कानून का सामना करना चाहिए। अगर वह कानून से भागेंगे तो इससे उनकी पार्टी और एनडीए दोनों को ही नुकसान होगा। रेवन्ना देश के पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा के पौत्र है और उन पर लगे आरोप बहुत ही गंभीर और शर्मनाक है। सत्ता का किसी भी प्रकार का दुरुपयोग ज्यादा समय तक लाभकारी नहीं होता है। हमारा समाज ऐसे मुकाम पर आ गया है, जहां हम किसी महिला के साथ न ज्यादती की सुन सकते हैं और न किसी को करने दे सकते हैं। बात प्रज्वल रेवन्ना एवं बृजभूषण शरण सिंह तक सीमित नहीं हैं, विशेषतः चुनाव में ऐसे मुद्दों का उठना प्रासंगिक है, जिससे उम्मीदवारों को अपने गिरेबार में झांकने का अवसर मिलता है। राजनीतिक दलों को भी उम्मीदवारों का चयन करते हुए उनके चरित्र की परख गहराई से करनी ही चाहिए।
वर्ष 2024 के चुनावों में हम सात में से तीसरे चरण की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन अभी तक भाजपा की चुनावी थीम सामने नहीं आई है, विपक्षी दलों के घोषणा पत्रों या चुनावी बयानों की चीरफाड ही होती हुई दिख रही है। आतंकवादियों और दुश्मनों को उनके घर में घुसकर मारने की बात करने वाली भाजपा के बयानों में चीन पूरी तरह गायब है और पाकिस्तान का जिक्र भी बहुत कम है। निश्चित ही भाजपा जीत की ओर अग्रसर है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन सुनिश्चित जीत के साथ सुनिश्चित भविष्य की बात भी होनी ही चाहिए। हकीकत में चुनाव में अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद मोदी का जादू चल रहा है, ऐसी अनेक वजहों से 2024 असाधारण रूप से बिना सशक्त मुद्दे के ही गतिमान है। आश्चर्य की बात यह है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा दौर के सबसे बड़े जादूगर नरेंद्र मोदी ने अब तक इन चुनावों के लिए कोई सशक्त मुद्दा नहीं पेश किया है जो पहले से सातवें चरण तक चल सके। हर चुनावी चरण एवं सभा में एक नया मुद्दा उभर रहा है, जो कुछ दूर चल कर पृष्ठभूमि में चला जाता है।
भाजपा की ओर से इन चुनावों में मोदी ही मुद्दा है। चुनाव अभियान का आरंभ करते हुए कहा गया कि नरेंद्र मोदी ही भारत को अधिक ऊंचा वैश्विक कद दिला रहे हैं। भारत मंडपम में जी 20 शिखर बैठक को भुनाने की कोशिश हुई। लेकिन यह भी मुद्दा चुनावी गणित में फिट नहीं हुआ। महिला मतदाताओं को लुभाने का दांव भी चला। निर्वाचन वाली संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए आनन-फानन में पारित कानून इसका हिस्सा था। लेकिन भाजपा के चुनाव प्रचार में इसका जिक्र भी नहीं सुनने को मिल रहा है। इन चुनावों में भी पार्टी के उम्मीदवारों में महिलाओं की हिस्सेदारी 16 फीसदी है। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को भी चुनावों के लिहाज से गर्म मुद्दा माना गया था। इसके बावजूद विभिन्न राज्यों में भाजपा के नेताओं के चुनाव भाषणों पर नजर डालें तो पता चलता है कि उनमें इस पर जोर या इसका जिक्र नहीं है। यह मुद्दा हाल में तब उठा जब ऐसे संकेत मिले कि राहुल और प्रियंका गांधी राम मंदिर जा सकते हैं। कुछ सप्ताह पहले भारत रत्न की घोषणा का मुद्दा भी दूर तक नहीं चल सका।  ऐसी अनेक उपलब्धियां एवं ऐतिहासिक कार्य हैं, जो मोदी के कद को ऊंचा तो बनाते हैं, लेकिन चुनाव की दिशा को एकदम एवं दूर तक प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं।
बात राज्यों की हो या केन्द्र की, भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग पर चुनावों में चर्चा होनी ही चाहिए। भारत के मतदाता मिलकर सरकारों को जवाबदेह ठहराने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। लेकिन मौजूदा लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में मतदान 2019 की तुलना में 7 प्रतिशत कम हुआ है। यह एक चिंताजनक संकेत है और चुनावी प्रक्रिया से मतदाताओं के अलगाव को दर्शाता है। यह भाजपा के मतदाताओं में चली आई आत्मसंतुष्टि की ओर भी संकेत करता है, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीसरे कार्यकाल को लेकर आश्वस्त हैं। हालांकि, इसका एक और पहलू यह भी है कि 2023 में, प्यू रिसर्च सेंटर ने भारतीय मतदाताओं का एक सर्वेक्षण किया था, जिसमें पता चला था कि 85 प्रतिशत लोगों ने भारत में सैन्य शासन या निरंकुश नेता का समर्थन किया था। क्या शासन के अच्छे तरीके के रूप में लोकतंत्र के समर्थन में गिरावट का ही परिणाम कम होता मतदान है? अगर मतदाता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपना विश्वास खो रहे हैं तो यह भारत के लोकतंत्र और भविष्य के लिए चिंताजनक संकेत है। इससे निर्वाचित नेता भी जनता के प्रति जवाबदेही से मुक्त होने लगेंगे। भारत के मतदाताओं को समझना चाहिए कि पिछले सतहत्तर वर्षों में देश की सफलता उसके लोकतंत्र की सफलता पर ही आधारित रही है। इसलिये मतदाता को जागरूक होकर अधिकतम मतदान करना चाहिए। साथ-ही-साथ मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ”अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।“

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,866 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress