विविधा

नरदेवता

 हिन्दु मत में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की बात कही गई है। इसकी हकीकत मेरी चेतना में उभड़ती है जब सोचता हूँ कि बिना संसाधन और समझदारी के मेरा जीवित रहना कैसे मुमकिन हो पाया। मैंने तो अपनों को परेशानी में डाला था। खासकर अपने सेवानिवृत्त निःस्व पिता को, परिवार के सन्तुलन को, दोस्तों के लिए दुविधा की हालत प्रस्तुत कर दी थी। मेरी पूँजी मात्र मेरी साधारण सी नौकरी थी। दुनियादारी का शऊर न मुझमें था, न मेरी पत्नी में। ऊपर से हम दोनो के बीच सामञ्जस्य(compatibility) की कमी रहा करती थी। आदर्श का कुहासा मेरी समझ पर छाया हुआ था जिसके कारण अपनी हिफाजत करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति बेअसर सी थी।
मैंने बिहार, बंगाल, असम तीन राज्यों के शहरों में काम किया। पहली नौकरी अपने शहर में थी, बाकी सब सर्वथा अपरिचित लोगों और परिवेश के बीच थी। कुल सात संस्थानों में काम किया। पढ़ाई रुक रुक कर पूरी हुई।आय हमेशा सीमित रही। आर्थिक संचय कभी कुछ भी नहीं हो पाया, नहीं होने का एहसास भी नहीं रहा था। कभी कभार लगता था कि कोई आकस्मिक संकट आ जाए तो मुश्किल हो जाएगी। पर हम कभी मुरझाए नहीं, मुझे नहीं लगता कि हमलोगों का आचरण कभी ऐसा हुआ कि लोग हमें बेचारा कहें। अचरज होता है। तभी बांग्ला साहित्यकार शंकर का एक अवलोकन प्रासंगिक लगता है।
“मेरे पास कहने को एक ही बात है। यह धरती अभी भी प्यार से खाली नहीं हुई है। जीवन के जटिल यात्रा पथ पर बार-बार अनात्मीय व्यक्तियों का प्यार पाकर धन्य हुआ हूँ मैं। मैं बार बार प्रणाम करता हूँ उस नर देवता को, जो अनेक व्यक्तियों की देह में उनके अनजानते ही वास करते हैं।
नरदेवता! बहुत बड़ी बात है न। देवता शब्द आजकल व्यंग्य हो गया है। लेकिन विश्वास करें, इस मानवतीर्थ में मैंने बार बार उन्हें खोज निकाला है, पाया है उनका अपार स्नेहप्रश्रय, जिसने मुझे इस दयाहीन,स्नेहहीन पृथ्वी में जीवित रहने और विकसित होने में सहायता की है। सीमाहीन मरुभूमि में ये लोग वटवृक्ष की तरह खड़े रहा करते हैं, मनुष्य के मन में समाज के सम्बन्ध में विश्वास वापस ले आने के लिए, मनुष्य के मनुष्यत्व को जगाने के लिए। मैंने अपना पूरा जीवन स्वर्गलोक के देवताओं के पीछे समय नष्ट न कर स्मरणीय, वरणीय, पूजनीय एवम् प्रियतम लोगों के जीवन से दुर्गम तीर्थयात्रा का पाथेय संग्रह किया है।”
मैंने स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने का इरादा छोड़ ही दिया था। पर मेरे अनजानते मेरे शिक्षक प्रोफेसर मुखर्जी ने मेरे लिए ऐसी नौकरी की व्यवस्था कर दी जिसमें साथ साथ आगे की पढ़ाई करना सम्भव हुआ। वे अनोखे आदमी थे, बहुत कम बोलते थे,, उनके अधिकतर छात्रों को उन्हें खड़ुस कहते हुए सुना था। पर मेरा परिचय उन्होंने ही गढ़ा।
हम दाम्पत्य जीवन के प्रारम्भिक अध्याय में सर्वथा अपरिचित उत्तरपूर्व के सिलचर शहर में करीब बीस महीने रहे। वहाँ के लोगों का अयाचित, अकुण्ठ स्नेह मिला। सहज रुप से कॉलेज और शहर के समाज में स्वीकृति मिल गई थी। कॉलेज के सेक्रेटरी श्री आशुतोष दत्त ने कहा, मेरा छोटा बेटा तुम्हारी उम्र का है, वह भी लेक्चरर है, इसलिए मैं तुमको तुम ही पुकारुँगा। मैं आश्वस्त हो गया। शहर में डॉ कल्याणी दास चिकित्सक सह अभिभावक हो गई थीं। श्री रमेश दे, और सर्वोपरि श्री अनन्त देब के साथ की सान्ध्य गोष्ठियों में नियमित भागीदारी ने मुझे सुरक्षा की सहज आश्वस्ति दे दी थी। संयोग ऐसा था कि मेरे सम्पर्क में जो लोग आए, सब के सब स्नेहशील और सामाजिक चेतना से युक्त थे।कितने ही नाम हैं जिन्होंने सहजता और गर्मजोशी से हमें आश्वस्ति दी। हमारी जटिल जीवन-यात्रा के प्रारम्भिक भाग में हमारे लिए यह विधाता का आशीर्वाद था।
इसके बाद की अवधि में भी नरदेवता का आशीष हमें मिलता रहा है। सीवान में डॉ अच्युत घोष से परिचय हुआ। वे होमियोपैथ थे। उनके बैठकखाने में करीने से सजी हुई किताबों की आलमारियाँ थीं। लगता था जैसे पूजा घर में विग्रह हों। डॉ घोष सुरुचि सम्पन्न व्यक्ति थे। किताबों से ,किताबें पढ़ने वालों से उनको लगाव था। वे किताबों के प्रति आग्रह रखनेवालों का आदर करते थे। उनके संग्रह से उनकी सुरुचि जाहिर होती थी। किताबों को वे विग्रह की तरह ही जतन से रखते थे। मुझे बांग्ला साहित्य के उत्कृष्ट रचनाओं से परिचित होने का अवसर मिला, खासकर मानिक बन्द्योपाध्याय की पुस्तकों ने मेरी जीवन दृष्टि को परिष्कृत और परिभाषित किया।सीवान में डॉ के.पी.वर्मा, उमेशदत्त शुक्ल, नथुनी बाबू, हाशिम साहब, फैजुल हसन, भोला बाबू, महेन्द्र बाबू , लाल बाबू —नामो का एक अनगिनत सिलसिला है । ये सहकर्मी थे, स्कूल शिक्षक थे, वकील थे, व्यापारी थे, राजनीतिक कार्यकर्ता थे। इनसे मेरा समाज बना हुआ था, एक सुरक्षा चक्र और स्वीकृति,की सम्माननीयता से सज्जित हुआ था मैं।
स्वजनों से मिलती रहनेवाली चोटों को सहने की शक्ति इन अनात्मीयों से मिलती रही है। मेरे बचपन के दोस्त , मेरे स्वजनों के दबाव के बावजूद मेरे साथ खड़े रहे थे। वे सब लोक साहित्य के पात्रों की तरह साधारण लोग थे। सेवानिवृत्ति के बाद इन लोगों के बीच ही रहने का मन बनाया था। पर मुमकिन नहीं हो पाया।
एक बार फिर अपरिचित परिवेश में अनुकूलित होने की मशक्कत करने की जरूरत पड़ गई। खासियत यह थी कि यह जीवन का सबसे अधिक कठिन तथा अन्तिम अध्याय था। हमें अपने परिचय के बजाय अपनी सन्तान के परिचय से जीना था। नर देवता पर विश्वास ही मेरा सम्बल था।
संयोग से पंजाब विश्वविद्यालय के डॉ. विजय कुमार सिंह और रैनबैक्सी के श्री बलदेव पांडे से परिचय हुआ। मुलाकातें होती रहीं, मैं ही चक्कर लगाता इन दोनो के ठिकानों पर। विजय बाबू से कम्प्यूटर तथा इंटरनेट के बारे में बातें होतीं मेरी जिज्ञासा को सम्मान मिलता रहता और मेरा आनन्द बढ़ता जाता । विद्यार्थी की तरह महसूस करता अपने आपको। विजय बाबू ने उत्तरोत्तर उत्साह और सम्मान के साथ मुझे प्रशिक्षित होने में प्रोत्साहित किया। जीवनसन्ध्या की चुनौतियों से रुबरु होने के लिए जरूरी हथियार मिल गया। इ पत्रिकाओं में मैंने खूब लिखा। पाठकों ने सराहा भी। मुझे जैसे जीवन पथ का पाथेय मिल गया हो। बलदेव के जुनून, स्नेह, सम्मान और सीखते रहने की प्रवृत्ति से मुझे आश्वासन मिला कि मैं प्रासंगिक हूँ. मैं स्नेह और सम्मान अर्जित कर सकता हूँ। ।
मुझे इसकी जरूरत थी। मैं अपनो के बीच अप्रासंगिक होते जा रहा था। मेरे समसामयिक मित्रों से सम्पर्क नहीं रह गया था. वे एक एक कर उस पार जाते जा रहे थे। मेरे लिए जीने का उद्देश्य निराधार होता जा रहा था। बलदेव के जरिए राजशेखर मेरे वृत्त में शामिल हुआ। इन दोनो की जिजीविषा, अपने को सशक्त करते रहने और, अपनो को सहारा देने के सहज संघर्ष ने मुझे ऊर्जा दी। बलदेव और राजशेखर मुझे एहसास दिलाते रहे कि मैं उन लोगों के लिए रोशनी का साधन हूँ। यह एहसास कितनी सार्थकता और शक्ति देता है, कहना नहीं होगा।राजशेखर ने कई एक बहुत ही सुन्दर पुस्तकें मुझे उपहार में दी ही नहीं, पढ़ने को भी प्रेरित किया। इन पुस्तकों ने जीवन के विरोधाभासों के साथ सहज होने की समझ दी।
नरदेवताओं ने ही बिना किसी प्रस्तुति के, बिना किसी संचय के, बिना सुरक्षा कवच के जीवन की विस्मयकारी, असीम सम्भावनाओं को अर्घ्य देते रहने कासुयोग मुझे दिया।