धर्म-अध्यात्म

ईश्वर डराने के लिए नहीं है ?

प्रमोद भार्गव

अकसर हमारे प्रवचनकर्ता और कर्मकाण्ड के प्रणेता कहते सुने जाते हैं कि ईश्वर से डरो ! अतीन्द्रीय शक्तियों से डरो ! ऐसा केवल हिन्दू समाज के धर्माधिकारियों का कहना नहीं है, मुस्लिम, ईसाई, बौध्द और जैन धर्म के प्रवर्तक भी परलोक सुधारने व अगले जन्म में सुखी व समर्ध्द जीवन व्यतीत करने हेतु कमोवेश ऐसे ही उपदेश देते हैं। उपदेशों के साथ कर्मकाण्डी-अनुष्ठान कर मुक्ति के उपाय भी जता दिए जाते हैं। लेकिन यहां विचारणीय पहलू यह है कि क्या ईश्वर डराने के लिए है ? ईश्वर क्या एक भय का अदृश्य शक्ति-पूंज है ? जो डराकर व्यक्ति में निष्ठा पैदा करता है। इस भय को दिखाकर उदारवादी बाजार व्यावस्था में और आधुनिक होते समाज में ईश्वर को एक ऐसी अनिवार्य जरूरत के रूप में पेश किया जा रहा है कि जैसे, इंसान होने की पहली शर्त ईश्वर-भक्ति है। जबकि अपने इष्ट के प्रति चाहे वह साकार हो अथवा निराकार, उसके प्रति संपूर्ण आस्था, प्रेम और संवदेना ऐसी संजीवनियां हैं, जिनसे असल जीवन उत्साहित व प्रवाहमान बना रहता है।

ईश्वर का डर हमारे भीतर इतना गहरे बैठा दिया गया है कि आज उच्च शिक्षित व उच्च पदस्थ जो उत्तार आधुनिक समाज है, उसने ईश्वर को पूजा स्थलों से बाहर लाकर राजमार्गों के किनारों, चिकित्सलायों, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों और यहां तक की विज्ञान केंद्रों में भी बिठा दिया है। वैज्ञानिक, चिकित्सक और इंजीनियर इसी ईश्वर को अगरबत्ताी लगाकर, अपनी दिनचर्या की शुरूआत करते हैं। लेकिन वे यहां यह विचार नहीं करते कि ईश्वर जब लोकव्यापी और सर्वदृष्टिमान है तो क्या उसकी नजर आपके उस कृत्य पर नहीं पड़ रही, जो अनैतिक और भ्रष्ट आचरण से जुड़ा है। ईश्वर का भय क्या इनको इन पतित कामों से छुटकारे के लिए विवश नहीं करता ?

हैरानी उन धर्माचार्यों पर भी होती है, जो बात पापी से दूर रहने की करते हैं, लेकिन उसी पापी की काली कमाई से पापों की मुक्ति हेतु अनुष्ठान और कर्मकाण्ड भी करते हैं। वे उपदेश तो माया-मोह, भौतिकता व भोग-विलास से दूर रहने के देते हैं, लेकिन खुद का शरीर सुख-चैन में रहे, इसके लिए वातानुकूलित मठों, कारों, गरिष्ठ (तामसी) भोजन और संपत्तिा के संचय से परहेज नहीं करते। जैन मुनि जरूर इस दृष्टि से अपवाद हैं। उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं है। विरोधाभासी ऐसे चरित्र के धर्माचार्यों को खारिज करने की हिम्मत आधुनिक व शिक्षित समाज नहीं कर पा रहा है, यह आश्चर्य है ?

ईश्वर का काम यदि अपनी ही संतति को डराना है, तो वह कैसे दयालु-कृपालु हो सकता है ? कैसे आपका शुभचिंतक हो सकता है ? वह क्यों कर आपकी मन्नतों को पूरा करेगा ? ईश्वर की निराकार व निरापद अवधारणा मजबूत हो, इसके लिए व्यक्ति समाज खुद अपने भीतर ईश्वर को खोजे। उसे तराशे। यदि आप ऐसा करेंगे तो आपके भीतर स्वयं ईश्वर की आत्मभावना का उदय होगा। क्योंकि अंतत: ईश्वर भी वह दिव्य शक्ति है, जो ऊर्जा के बल से संचालित होती है। हालांकि विभिन्न धर्मों के दर्शन पदार्थ और आत्मा में, सत्य और असत्य में, ईश्वर और शैतान में एक गढ़ा हुआ भेद मानकर चलते हैं।

प्राकृतिक और अप्राकृतिक, चर व अचर मानवजन्य जिज्ञासाओं को शांत करने वाले उपनिषद् संपूर्ण सृष्टि में ईश्वर की उपस्थिति मानते हैं। उपनिषदों का मानना है कि बिना ईश्वरीय नियोजन के जगत की कल्पना भी असंभव है। आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य के समांतर निष्कर्ष के करीब पहुंच रहा है। न्यूटन के समय में विज्ञान पदार्थ और ऊर्जा के बीच अंतर मानता था, परंतु आईस्टाइन के बाद वैज्ञानिक इस सार पर पहुंच रहे हैं कि ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह ऊर्जा का ही प्रतिरूप है। ऊर्जा के ही कारण है। वह अणु (कण) के रूप में हो या लहर (धारा) या वायु सब एकीकृत बल-पुंज से गतिशील हैं। वैज्ञानिक इस अवधारणा की तार्किक पुष्टि में जुटे हैं। इसी सिध्दांत की आध्यामित्क अभिव्यक्ति उपनिषदों की ईश्वर अर्थात सर्वव्यापी ब्रह्म की आवधारणा से हुई है। किंतु कर्मकाण्डी और पैसा बनाने में लगे पाखण्डी, ईश्वर का डर दिखाकर इंसान की धार्मिक भावनाओं का आर्थिक दोहन करने में लगे हैं।