कविता

कण कण मे वही

आस्था नहीं तो,

प्रभु कहीं भी हैं नहीं,

आस्था हो तो,

कण कण मे है वही!

पत्थर को गढ़कर,

एक शिल्पकार ने कभी,

तीन मूर्तियाँ अद्भुत,

बनाईं थीं कभी।

एक मंदिर मे पुजी,

एक राजा के थी कक्ष मे सजी,

और एक,

किसी संग्रहालय मे लगी।

शिल्प तो एक सा था,

तीनो मूर्तियों का ही,

स्थापना बस अलग थी,

अंतर था बस यही।

शिल्पकार  तो है वही…..

उसने तो सिर्फ,

पत्थर की मूर्तियाँ थीं गढ़ी

प्रभु ने तो सारी सृष्टि है रची,

 

इसीलियें तो,

कण कण मे वही!