आस्था नहीं तो,
प्रभु कहीं भी हैं नहीं,
आस्था हो तो,
कण कण मे है वही!
पत्थर को गढ़कर,
एक शिल्पकार ने कभी,
तीन मूर्तियाँ अद्भुत,
बनाईं थीं कभी।
एक मंदिर मे पुजी,
एक राजा के थी कक्ष मे सजी,
और एक,
किसी संग्रहालय मे लगी।
शिल्प तो एक सा था,
तीनो मूर्तियों का ही,
स्थापना बस अलग थी,
अंतर था बस यही।
शिल्पकार तो है वही…..
उसने तो सिर्फ,
पत्थर की मूर्तियाँ थीं गढ़ी
प्रभु ने तो सारी सृष्टि है रची,
इसीलियें तो,
कण कण मे वही!
“आस्था नहीं तो,प्रभु कहीं भी हैं नहीं,
आस्था हो तो,कण कण मे है वही ”
अनुपम
प्रभु में आस्था के भाव आपकी रचना में बहुत अच्छे उतरे हैं।बधाई।
सादर,
विजय निकोर