ईश्वर सर्वतोमहान और वेदानुयायी ऋषि महान और संसार के आदर्श

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मनमोहन कुमार आर्य

इस संसार और पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे महान कौन है? इसका उत्तर है कि इस संसार को बनाने व चलाने वाला जगदीश्वर सबसे अधिक महान पुरुष है। ईश्वर के बाद संसार में सबसे महान पुरूष व मनुष्यों के आदर्श कौन हैं, इसका उत्तर है वेदों के अनुयायी व अनुमागी सभी ऋषि महान और समस्त मानवता के आदर्श हैं। हर बात को प्रमाणों से पुष्ट करना होता है तभी वह सर्वस्वीकार्य होती है। अतः पहले ईश्वर की महानता की कुछ चर्चा करते हैं। ईश्वर का विषय आने पर पहला प्रश्न तो उसकी सत्ता को सिद्ध करना होता है। यदि ईश्वर है तो इसका प्रमाण क्या है? हमारा उत्तर है कि हम आंखों से इस संसार को देखते हैं। यह समस्त संसार वा ब्रह्माण्ड किसी मनुष्य व मनुष्य समूह द्वारा की गई रचना नहीं है। आज संसार में 7 अरब से अधिक मनुष्य हैं।यदि यह सब मिलकर भी एक पृथिवी, चन्द्र व सूर्य की रचना करने लगें तो यह असम्भव है। मनुष्यों द्वारा असम्भव यह कार्य हमारी आंखों से प्रत्यक्ष हो रहा है जिसमें किसी को भी सन्देह नहीं है। अतः इसका रचयिता ही ईश्वर है। इससे ईश्वर का अस्तित्व सत्य सिद्ध हो जाता है। ईश्वर ने ब्रह्माण्ड में एक सूर्य, चन्द्र व पृथिवी ही नहीं बनाये अपितु अनन्त सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह व पृथिव्यां बनाई हैं जिनका अस्तित्व व अपौरूषेय सत्ता से इनकी उत्पत्ति बुद्धि, तर्क, युक्ति व इनके प्रत्यक्ष दर्शन आदि से सिद्ध होता है।

 

ईश्वर की महानता को समझने के लिए वेदों में वर्णित ईश्वर के कुछ गुणों का विचार करना भी उपयुक्त होगा। कोई भी उपयोगी रचना बिना ज्ञान व सामथ्र्य के नहीं होती। ज्ञान चेतन द्रव्य में ही रहता है। जीवात्मा चेतन तत्व, पदार्थ वा द्रव्य है। जीवात्मा में ज्ञान का होना प्रत्यक्ष सिद्ध है। जीवात्मा की ही भांति सृष्टिकर्ता ईश्वर का भी चेतन पदार्थ होना सिद्ध हो जाता है क्योंकि सृष्टि कर्तृत्व ईश्वर में ज्ञान व सामथ्र्य की पराकाष्ठा सिद्ध करते हैं। दूसरे गुण सुख व आनन्द पर विचार करते हैं। जीवात्मा कभी अनुकूलता होने पर सुखी और प्रतिकूलता होने पर दुःखी होता है। प्रतिकूलता मुख्यतः शारीरिक रोग व किसी अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति न होने पर प्रायः होती है। इसका एक प्रमुख कारण जीवात्मा का एकदेशी, ससीम, सूक्ष्म व अल्प सामथ्र्य वाला होना होता है। ईश्वर की अनन्त सृष्टि को देखकर उसके अनन्त स्वरूप का ज्ञान होता है। इसका अभिप्राय है कि ईश्वर सर्वव्यापक है। सर्वव्यापक ही अनन्त हो सकता है और ऐसी सत्ता से ही अनन्त सृष्टि की रचना होना संभव होता है। अल्प ज्ञान व अज्ञान से कोई आदर्श, निर्दोष, त्रुटिरहित व पूर्ण प्रशंसनीय रचना नहीं हो सकती। अतः ईश्वर में ज्ञान की पराकाष्ठा है, न्यूनता किंचित नहीं है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण ईश्वर की बनाई व संचालित यह सृष्टि है। इन सामर्थ्यों से युक्त ईश्वरीय सत्ता के लिए ‘सर्वज्ञ’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जो कि उचित ही है। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है, इसी कारण उसकी इस सम्पूर्ण सृष्टि और मनुष्य आदि सभी प्राणियों के शरीरों में ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से पूर्णता, निर्दोषता सहित आदर्श रचना के गुण पाये जाते हैं। विज्ञान का एक नियम है कि संसार में जो मूल पदार्थ हैं वह अनादि व अनुत्पन्न हैं। अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती अपितु भाव से ही भाव की उत्पत्ति होती है। अतः सृष्टि के लिए ईश्वर, जड़ प्रकृति व इसके उपभोक्ता के नित्य, कारण व मूल अस्तित्व का होना आवश्यक है। इन मूल पदार्थों का विकार ही यह सृष्टि है। इस सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर भी अनादि, अजन्मा, अनुत्पन्न व अविनाशी सिद्ध होता है। वह सदा से है और सदा रहेगा। उसका अभाव कभी नहीं होगा। अब चंूकि उसका अस्तित्व अक्षुण है, अतः यह सृष्टि बनती व बिगडत़ी अर्थात् इसकी समय समय पर ईश्वरीय सिद्धान्तों के अनुसार रचना और प्रलय और प्रलय के बाद पुनः रचना होती रहेगी। अब यदि अनन्त गुण वाले ईश्वर के मुख्य गुणों को एक माला में पिरोकर कहना हो तो इसे महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के शब्दों में इस प्रकार से कह सकते हैं ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ इन सभी गुणों के कारण ही वह एकमात्र संसार के सभी लोगों का उपासनीय है। ईश्वर के यह सभी गुण व विशेषण सृष्टि में प्रत्यक्ष घट रहे हैं। अतः ईश्वर का यही सच्चा व स्वीकार्य स्वरूप है। वैज्ञानिक भी इसकी अवहेलना नहीं कर सकते। उन्हें भी तर्क, युक्ति व बुद्धि संगत होने से इस स्वरूप को स्वीकार करना होगा।

 

ईश्वर के जिन गुणों की चर्चा हमने उपर्युक्त पंक्तियों में की है वह यथार्थ व सत्य हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर मनुष्य आदि सभी प्राणियों की जीवात्माओं को पूर्व जन्म-जन्मान्तर के कर्मों के अनुसार उन्हें मनुष्य व इतर प्राणियों की योनियों में जन्म देकर सुख व दुःख प्रदान करता है। हम वर्तमान जीवन में मनुष्य योनि में हैं। यह मनुष्य जीवन हमें ईश्वर की व्यवस्था द्वारा ही प्राप्त हुआ है। माता-पिता व समाज के अन्य संबंधी आदि इसमें सहायक बने हैं जिनकी व्यवस्था भी ईश्वरीय व्यवस्था से हुई है। हम चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, पूर्वजन्म-परजन्म के चक्र में आबद्ध, वेदज्ञान प्राप्ति व परोपकार आदि उत्तम कर्मों को करके मनुष्य आदि योनियों को प्राप्त करते हैं तथा वेदमार्ग का आचरण व पालन कर समाधि द्वारा ईश्वर साक्षात्कार कर सकते हैं। हमने जीवन में अनेक उतार चढ़ाव देखें हैं और कुल मिलाकर हमारा जीवन सुखों से ही युक्त रहा है। हमें जो दुःख मिलते हैं वह हमारे इस जन्म वा पूर्वजन्म में किए गये अविद्यायुक्त कर्म ही होते हैं। संसार के सभी मनुष्यों व प्राणियों को सुख-दुःख की व्यवस्था करने से ईश्वर की समानता किसी जीव से नहीं हो सकती। सभी उसके कृतज्ञ हैं। यह सभी सुख हमें ईश्वर की अहैतुकी कृपा से दानरूप में प्राप्त हुए हैं। अतः बिना किसी निजी प्रयोजन के सभी जीवात्माओं वा प्राणियों को नाना प्रकार के सुखों से युक्त करने के कारण ईश्वर संसार में सबसे महान व महानतम् है। यइ अकाट्य व सर्वमान्य है तथा अनुमानों व अनुभवों से सिद्ध तथ्य है।

 

ईश्वर के बाद संसार में सबसे अधिक महान किसे मान सकते हैं? महान वह मनुष्य होता है जो संसार का ईश्वर के बाद सबसे अधिक उपकार करता है। सभी माता-पिता व आचार्य अपनी सन्तानों व शिष्यों पर उपकार करते हैं। अतः सभी संतानों के लिए अपने माता-पिता व आचार्य महान हैं। माता-पिता व आचार्य तो अपनी ही सन्तानों व शिष्यों का उपकार व कल्याण करते हैं परन्तु जो सभी मनुष्यों को अपनी सन्तान मानकर उनका सर्वाधिक कल्याण करें वह अधिक महान् होते हैं। ईश्वर ने जब सृष्टि उत्पन्न की तो अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न स्त्री व पुरुषों के माता-पिता व आचार्य नहीं थे। ईश्वर ने ही माता-पिता सहित आचार्य की भी भूमिका निभाई थी। ईश्वर ने ही आदि मनुष्यों को जन्म दिया था तथा ज्ञान भी ईश्वर से ही मिला था। उसी ज्ञान का नाम ही ‘‘वेद” है। यह बता दें कि चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को सर्वान्तर्यामी ईश्वर के द्वारा उन ऋषियों की आत्माओं में स्थापित किया गया था। इन ऋषियों ने ब्रह्माजी को चारों वेदों का ज्ञान दिया। यह आदि पांच ऋषि ही सृष्टि के आरम्भ में चारों वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हुए। ईश्वर से वेदज्ञान की प्राप्ति के बाद इन्होंने वेद ज्ञान को अन्य स्त्री व पुरुषों को एक आचार्य की भांति पढ़ाया जिससे ज्ञान प्राप्ति वा अध्ययन अध्यापन की परम्परा का आरम्भ हुआ। सृष्टि की आदि में आरम्भ यह परम्परा आज तक चली आ रही है। यत्र तत्र इसमें देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन अवश्य हुए हैं। इस प्रकार से ज्ञान प्राप्त होने से ही संसार में ज्ञान व विज्ञान का विकास व उन्नति हुई है जिसका श्रेय सृष्टि के आरम्भ काल के आचार्यों को है। उन्ही आचार्यों से यह ज्ञान संस्कृत में अध्यापन द्वारा आगे बढ़ता व फैलता रहा और समय व भौगोलिक कारणों से संस्कृत से इतर उच्चारण की अशुद्धियों के कारण अनेक भाषाओं का उदय व प्रचलन भी हुआ है। आज हमें जो सुख के साधन मिले हैं वह इसी सृष्टि के पदार्थों से ज्ञान की उन्नति द्वारा प्राप्त हुए हैं। इसका श्रेय हमारे सृष्टि के प्राचीन आर्यों व वेद ज्ञान से सम्पन्न ऋषियों को सर्वाधिक है। इसका कारण यह है कि हमारे ऋषि प्रायः विवाह न कर ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन व्यतीत करते थे। जो गृहस्थी होते थे वह भी वेद के ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते थे। ऋषियों का मुख्य कार्य ईश्वरोपासना, यज्ञ द्वारा विश्व का कल्याण, अध्यापन, वेद ज्ञान का प्रचार व शासन के संचालन में राजाओं को मार्गदर्शन करना आदि होता था। अपनी आवश्यकतायें अल्प व नाम मात्र रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन, ईश्वरोपासना, ईश्वर का साक्षात्कार और देश व समाज को अध्यात्म सहित भौतिक विद्याओं, गणित, ज्योतिष आदि का उपदेश व ज्ञानार्जन कराने से यह ऋषि व आचार्य ही श्रेष्ठ मानव सिद्ध होते हैं। अपने इन गुणों के कारण ही यह संसार के पूजनीय थे। कोई भी संसारी जीव जो गृहस्थी हो और वेदज्ञान से वंचित हो, वह संसार का उन ऋषियों के समान कल्याण कदापि नहीं कर सकता। अतः प्राचीन काल से अब तक जो ज्ञान से सम्पन्न और ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए योगी ऋषि हुए हैं वही संसार में सबसे महान थे। उनकी महानता में अन्य संसारिक मनुष्य ज्ञान विज्ञान से युक्त होते हुए भी उनकी तुलना में उनसे पीछे हैं।

 

इन ऋषियों की परम्परा में ही उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द (1825-1883) भी सम्मिलित हैं जो अपने गुणों, सिद्धियों, ज्ञान, चारित्रिक विशेषताओं एवं सर्वजनहितकारी कार्यों के कारण महान पुरुषों में सम्मिलित हैं। महाभारत काल के बाद हमें महर्षि दयानन्द के समान अन्य कोई महान पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होता। इनसे पूर्व महर्षि मनु, पाणिनी, यास्क, वेद व्यास, बाल्मीकि, पंतजलि, गौतम, कपिल, कणाद, याज्ञवल्क्य आदि हुए हैं। यह व ऐसे अनेक ऋषि जिनका इतिहास विलुप्त हो गया, संसार के महानतम पुरुष थे। अन्य सभी का स्थान इनके बाद आता है। राजनैतिक व अन्य कारणों से कोई किसी भी मनुष्य को महान् पुरुष मान सकता है परन्तु महानता की कसौटी मनुष्य का ज्ञान व कार्य होते हैं। यदि महान आत्माओं व पुरुषों का विस्तार करें तो इसमें हमारे सभी शहीद स्वतन्त्रता सेनानी और शहीद सैनिक भी आते हैं। जिन सेनानायकों के अन्तर्गत हमने पाकिस्तान व बंगलादेश के युद्ध जीते हैं वह भी महान थे।

 

ईश्वर व ऋषियों की महानता में और बहुत कुछ वर्णन किया जा सकता है। विस्तार भय से हम लेख को विराम दे रहें हैं। ईश्वर व महर्षि दयानन्द सहित हम सभी ऋषियों व अन्य सभी सच्चे महान पुरुषों को नमन करते हैं। ओ३म् शम्।

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