ईश्वर मनुष्यादि प्राणियों के सभी शुभाशुभ कर्मों का द्रष्टा व फलप्रदाता है

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

यह समस्त दृश्यमान जगत ईश्वर ने बनाया है और वही इसका पालन कर रहा है। इस सृष्टि का इसकी अवधि पूरी होने पर प्रलय भी वही करता है। यह एक तथ्य है कि इससे पूर्व भी असंख्य बार सृजित हुई है व असंख्य बार ही इसका प्रलय भी हुआ है। यह सृष्टि ईश्वर ने जीवात्माओं को कर्म करने व उसके अनुकूल फल पाने के लिए बनाई है। इसके लिए ईश्वर जीवों को उनके कर्मानुसार जाति, आयु व भोग देता है। जाति का अर्थ मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि अनेक व असंख्य जातियों से है। जिनका प्रसव समान होता है उनकी एक ही जाति होती है। सभी मनुष्यों की जाति एक ही है और वह है मनुष्य जाति। इसकी दो उपजातियां स्त्री व पुरुष होती हैं। मनुष्य की बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध आदि कई अवस्थायें होती हैं। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी आदि अनेक व अगणित गुणों वाला है। सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से यह जीवों के भीतर भी विद्यमान वा उपस्थित है। अतः जीवों की आत्मा में उठने वाले सभी विचारों व कर्मों को ईश्वर वहां उपस्थित होने से साक्षी होता है और उसे उसी समय उसका ज्ञान हो जाता है। मनुष्यों व अन्य सभी प्राणियों के सभी कर्मों को ईश्वर जानता है और उसके अनुसार उन्हें सुख व दुःख प्रदान करता है। मनुष्य जीवन में जो कर्म करता है वह उसकी मृत्यु होने से पूर्व कुछ का भोग कर लेता है तथा कुछ कर्मों का भोग नहीं हो पाता। जिन कर्मों का भोग नहीं हो पाता, उन कर्मों का भोग जीवात्मा मृत्यु के बाद कर्मानुसार जन्म मिलने पर ईश्वर की व्यवस्था से करता है। हम इस जन्म में मनुष्य बने हैं तो इसका कारण हमारे पूर्व जन्म के कर्म व प्रारब्ध था। अन्य मनुष्यों को भी इसी नियम के अनुसार जन्म मिला है। अन्य पशु आदि प्राणियों को भी उनके पूर्व जन्म व जन्मों के कर्मों के अनुसार ही जन्म मिला है जिसे वह इस जन्म में भोग रहे हैं। जिन कर्मों का फल भोग लिया जाता है, उन कर्मों के भोग व फल समाप्त हो जाते हैं। उसके बाद बचे हुए, बिना भोगे गये व नये कर्मों का फल मनुष्यों को मिलता जाता है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति अनादि, अमर, नित्य, अविनाशी है अतः सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय सहित जीवात्मा के जन्म व मरण का क्रम अनादि काल से चलता आया है और अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता रहेगा।

 

ईश्वर जीवात्माओं के कर्मों का द्रष्टा वा साक्षी होता है। इसी को ईश्वर मनुष्यादि सभी प्राणियों के कर्मों को जानने वाला है, ऐसा भी कहा जाता है। सर्वज्ञ होना उसका अनादि काल से नित्य गुण चला आ रहा है। अपनी सर्वज्ञता से ही वह सभी जीवों के सभी कर्मों, छोटे व बड़े, को जानता है। रात्रि के अन्धेरे में भी हम जो कार्य करते हैं वह सब ईश्वर के समक्ष निर्भ्रान्त रूप से उपस्थित रहते हैं। ईश्वर में मनुष्यों व अन्य प्राणियों की तरह विस्मृति का गुण वा अवगुण नहीं  है। वह जिस बात को जानता है उसको कभी भूलता नहीं है। इसी कारण वह न्यायाधीश की तरह सभी जीवों को उनके सभी कर्मों का फल अपने विधि विधान के अनुसार यथासमय देता है। कर्मों में भिन्नता व अन्तर होने के कारण ही मनुष्यादि प्राणियों की भिन्न भिन्न योनियां हैं। मनुष्य जो शुभ कर्म करता है, उसके परिणाम के अनुसार ईश्वर उसके स्थान पर सुख प्रदान करता है और जो अशुभ कर्म किये जाते हैं उसका मनुष्य आदि प्राणियों को दुःख के रूप में फल मिलता है। यह व्यवस्था अनादि काल से निरपवाद रूप से भली भांति चली आ रही है। मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उन कर्मों का फल भोगने में वह ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र व ईश्वर के अधीन है। कर्म फल व्यवस्था के इस रहस्य को जानकर किसी भी मनुष्य को, चाहे वह वैदिक धर्मी है या नहीं, अशुभ, पाप व बुरे कर्मों को नहीं करना चाहिये। किसी मनुष्य या पशु-पक्षी आदि को पीड़ा नहीं देनी चाहिये। मांसाहार तो कदापि नहीं करना चाहिये। सबके प्रति, प्रेम, दया, न्याय व करूणा के भाव रखने चाहियें। कोई मनुष्य अपने जीवन में दुःख नहीं चाहता। अतः किसी भी मनुष्य को अशुभ कर्म कदापि नहीं करने चाहिये तभी वह दुःखों से बच सकते हैं।

 

मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ईश्वर का सृष्टि उत्पन्न करने, उसे चलाने, हमें मनुष्य का जन्म देने व सुख प्रदान करने के लिए उसका प्रातः व सायं अच्छी प्रकार से धन्यवाद करें। इसी को सन्ध्या का नाम दिया जाता है। ऋषि दयानन्द ने सन्ध्या की एक आदर्श विधि भी लिखी है। सबको उसका अध्ययन कर उसके अनुसार प्रातः व सायं यथासमय सन्ध्या अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते हुए उसका धन्यवाद अवश्य करना चाहिये। हमारे जीवन व अन्य प्राणियों के लिए प्राण वायु अर्थात् शुद्ध हवा की आवश्यकता होती है। हमारा कर्तव्य है कि हम ऐसा कोई काम न करें जिससे वायु अशुद्ध हो। न चाहते हुए भी भोजन आदि पकाने, वस्त्र आदि धोने, गेहूं आदि पीसने, चूल्हा व चौका आदि से जल व वायु आदि की अशुद्धि होती है और इसके साथ वायु व जल के किटाणु भी नष्ट हो जाते हैं। इसके लिए वेद की आज्ञानुसार हमारे ऋषियों ने दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया है। इस यज्ञ प्रातः व सायं, सूर्योदय के समय व सूर्यास्त से पूर्व, करने का विधान है। इसका भी सभी मनुष्यों को पालन करना चाहिये। जो करेगा उसे इसका लाभ मिलेगा और जो नहीं करेगा वह इससे होने वाले लाभों से वंचित रहेगा। इसी प्रकार से सभी मनुष्य अपने माता-पिता व आचार्यों के ऋणी होते हैं। हर सन्तान व शिष्य का कर्तव्य व धर्म है कि वह अपने माता-पिता व आचार्यों की सेवा भली प्रकार से अवश्य करें। यदि नहीं करेंगे तो वह उनके ऋणी रहेंगे और जन्म जन्मान्तर में उन्हें इनका ऋण चुकाना ही होगा। अतः मनुष्यों को वेदाध्ययन कर अपने इन कर्तव्यों सहित अपने अन्य कर्तव्यों जो परिवार, समाज, देश व मानवता के प्रति हैं, उनका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये व उन्हें यथाशक्ति करना चाहिये।

 

ऋषि दयानन्द जी नेएक अद्भुद ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” लिखा है। इस ग्रन्थ को पढ़ने से मनुष्य को आध्यात्मिक व पारमार्थिक सभी प्रकार का यथार्थ ज्ञान होता है। इसके समान संसार में अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है जिसमें सभी विषयों का यथार्थ ज्ञान हो। वस्तुतः सत्यार्थप्रकाश सभी मनुष्यों का धर्म ग्रन्थ है जिसमें मनुष्यों के सभी कर्तव्यों सहित सभी विषयों का ज्ञान दिया गया है। ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर हो जाता है। अतः सभी मनुष्यों को सभी प्रकार की धारणाओं व विश्वासों से ऊपर उठकर सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना चाहिये और वेदमत को स्वीकार करना चाहिये। वेदमत स्वीकार करने व इसका आचरण करने से मनुष्य का वर्तमान जीवन व परजन्म सुधरता है। मनुष्यों को यह जन्म एक सुअवसर है अपने इस जन्म व भावी जन्मों के दुःखों को दूर कर उसे सुखों से भरने का। इस अवसर को खोना नहीं चाहिये। यदि वह मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं में फंसे रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकता। इस पर उन्हें अवश्य विचार करना चाहिये और ज्ञानी व्यक्तियों की सलाह लेनी चाहिये।

 

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, दृष्टि से अगोचर, सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी सत्ता है। वह हमारे हृदय व जीवात्मा में कूटस्थ रूप से विद्यमान है। हमारे सभी कर्मो का साक्षी व द्रष्टा है। इसलिए हमें कभी भी अशुभ व पाप कर्मों को नहीं करना चाहिये। यदि करेंगे तो उसका फल हमें जन्म जन्मान्तरों में अवश्य ही भोगना पड़ेगा। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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