ईश्वर या ब्रह्म होना सबकी संभावना है

– हृदयनारायण दीक्षित

ऋग्वेद के ऋषि संसार में उल्लास देखते थे। तब संसार में उल्लास था भी। तब धन और संपदा जीवन निर्वाह के साधन थे। मुद्रा का प्रभाव आज जैसा नहीं था। मुद्रा के प्रभाव से ही धनसंग्रही लोलुपता बढ़ती। जीवन दुःखमय होता गया। वैदिक ऋषियों ने संसार को दुखमय नहीं कहा था लेकिन बाद के दार्शनिकों ने संसार को दुःखों से भरा पूरा बताया। दुखी जीवन से वैराग्य भाव का जन्म हुआ और संन्यास का मूल अर्थ ही बदल गया। न्यास का मूल अर्थ संगठन, समिति या संस्था है, संन्यास का मतलब है पूरी तौर पर संस्था या समिति से जुड़ जाना। संन्यास समाज त्याग या संसार त्याग का पर्यायवाची नहीं है। अपने छोटे परिवार से बड़े परिवार में जुड़ जाने को ही संन्यास की संज्ञा मिली। लेकिन महाभारत काल तक संन्यास का मतलब ‘कर्मत्याग’ हो गया। माना यह गया कि सभी कर्म बंधन में डालते हैं। बंधन दुःख देते हैं। मुक्ति ही परम आनंद है। इसलिए सभी कर्मों को त्यागने वाले संन्यासमार्गी सम्मान पाने लगे। वैदिक दर्शन कर्मवादी था। बाद का समाज कर्मत्यागी होने लगा। लेकिन गीता दर्शन ने दोनों को ठीक बताया। कृष्ण और अर्जुन के प्रश्नोत्तरों का सार तत्व ही कर्मप्रेरणा है। अर्जुन का मन जिज्ञासु था उसने पूछा आप कर्मत्याग और बिना इच्छा वाले कर्मों-दोनों को ही ठीक बताते हैं। मुझे सुनिश्चित रूप में बताइए कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है? (गीता 5.1)

प्रत्येक मनुष्य कर्म करता है। जीवन में कर्म स्वातंन्न्य नहीं है। हम आप चाहकर भी कर्म मुक्त नहीं हो सकते। महाआलसी भी कर्मत्यागी नहीं होते। वे भी बैठे लेटे कुछ न कुछ सोचते रहते हैं और सोचने, सुनने, देखने, पलक झपकते प्रतिपल कर्म ही करते हैं। कर्म मनुष्य प्रकृति के अविभाज्य अंग हैं। तो भी अनेक संन्यासी कर्मत्याग करते हैं। कृष्ण का उत्तर ध्यान योग्य है, कर्मों का त्याग और कर्मफल आसक्ति छोड़कर किए गए कर्म दोनों ही मुक्तिदायी हैं लेकिन कर्मफल की इच्छा त्याग कर किए गए कर्म श्रेष्ठ हैं। (वही श्लोक 2) कृष्ण यही बात इसके पहले (3.8) भी ज्यादा स्पष्ट ढंग से कह चुके हैं नियत कर्म करें। अकर्म से कर्म श्रेष्ठ हैं। बिना कर्म के शरीर भी नहीं चलता। असली कठिनाई है हमारी अनंत इच्छाएं। कृष्ण आगे कहते हैं, ज्ञेयः स नित्य संन्यासी यो न द्वेष्टि, न कांक्षति – वही ज्ञानी है, प्रतिपल संन्यासी है जो न द्वैष करता है और न आकांक्षा करता है। सभी द्वन्द्वों से मुक्त है वही कर्मबंधन से सरलता से मुक्त हो जाता है। (वही श्लोक 3)

ज्ञान दर्शन की यात्रा में कई मत, विचार व वाद हैं। सम्यक ज्ञान का नाम ‘सांख्य’ है। सांख्य शब्द आख्य में ‘सं’ लगाकर बना है। ठीक से पूरा जानना ही सांख्य है। जो पूरा जानते हैं, वे कर्म को व्यर्थ जानकर मुक्त होते हैं। मुक्ति का एक मार्ग ‘योग’ है, यहां सतत् कर्म करते हुए इच्छाहीन, आकांक्षाविहीन होकर मुक्ति की गारंटी है। दोनों मार्ग एक ही लक्ष्य पर समाप्त होते हैं। कृष्ण कहते हैं, सांख्य और योग को अलग-अलग बताने वाले ज्ञानी नहीं हैं – सांख्य योगो पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिता। इनमें से किसी एक मार्ग को भी अपनाने से दोनों का परिणाम आनंद मिलता है। पूर्ण ज्ञानी सांख्य तत्वज्ञ और कर्मयोगी दोनों ही उच्चतम स्थिति (मुक्ति) प्राप्त करते हैं। दोनों एक हैं, जो यह बात देखता है, वही सही देखता है – एकं साख्यं च योगं च यः पश्यति, स पश्यति। (वही 4-5) दोनों एक हैं लेकिन गीता का मूल कर्मयोग है इसलिए कृष्ण आगे स्पष्ट करते हैं संन्यास को बिना योग पाना कठिन है – संन्यास्तु महाबाहो दुखमाप्तुम योगतः। (वही 6) यह कथन ध्यान देने योग्य है। पहले ज्ञान से आया संन्यास एक मार्ग था, मुक्ति इस मार्ग का फल थी। लेकिन यहां संन्यास भी एक प्राप्ति है, योग उसका साधन है। कहते हैं संन्यास को बिना योग नहीं पाया जा सकता। संन्यास दरअसल मनुष्य चित्त की उच्चतर दशा है। चित्त की इस दशा में कर्म सक्रियता और उससे मिलने वाले फल व्यर्थ हो जाते हैं। चित्त की यह उच्चतम दशा बिना योग नहीं मिलती कृष्ण कहते हैं, जो योगनिष्ठ है वही अतिशीघ्र सम्पूर्णत्व (ब्रह्म) को प्राप्त कर लेता है। (वही, 6)

मनुष्य एक जटिल जैविक संरचना है। बाहर की परत अन्नमय है – अन्न से बनती है लेकिन दूसरी परत मनोमय है – यहां मन का साम्राज्य है। चित्त की वृत्तियाँ हजारों हैं। चित्त की वृत्तियाँ साधक के हरेक काम में बाधक हैं। योग चित्तवृत्तियों की बाधा को हटाने का विज्ञान है। यहां अन्नमय से आनंदमय कोष – अंतिम भीतरी परत की यात्रा है। केवल ज्ञान काफी नहीं है। सभी ज्ञानी जानते हैं कि शराब बुरी है, तम्बाकू विष है लेकिन ऐसा जानकर भी वे उक्त लतों से मुक्ति नहीं पाते। कृष्ण बताते हैं, जो योग युक्त हैं, विशुद्ध आत्मा हैं, विजित आत्मा हैं, जितेन्द्रिय हैं और जिनकी आत्मा सब प्राणियों की आत्मा बन गयी है, वे कर्म करते हुए भी कर्मों में लिप्त नहीं होते। (वही-7) यहां कई शर्तें हैं – पहली शर्त योग युक्त होना है दूसरी- तीसरी शर्त विशुद्ध आत्मा, विजित आत्मा होना है। विशुद्ध और विजित आत्मा शब्द एक विशेष संदेश देते हैं। यहां आत्मा का मतलब परमतत्व नहीं है। यहां आत्मा का मतलब स्वयं का अंतस् है। स्वयं का निर्माण प्रकृति के भूतों-पदार्थों से हुआ है। इसमें प्रकृति के गुण हैं। इसलिए यह विशुद्ध नहीं है। योग इसे ‘विशुद्ध आत्मा’ बनाता है। प्रकृति के गुणों के कारण ही यह उद्दंड है। इसे नियंत्रित कर विजयी आत्मा बनाना और भी बड़ा काम है। स्वयं को शुद्ध बनाना कठिन है। स्वयं को जीतकर स्वयं पर ही विजय पाना और भी बड़ा काम है। तब स्वयं की स्वयं से टक्कर होती है। मानना चाहिए कि यहां एक से ज्यादा या कम से कम दो स्वयं हैं। एक विजयी आत्मा है तो एक हारी हुई आत्मा भी होनी चाहिए। दरअसल मनुष्य का आंतरिक व्यक्तित्व विभाजित संरचना है। इसे एक एकात्म बनाना ही गीताकार का संदेश है।

ईशावास्योपनिषद् गीता से बहुत पुरानी है। यह यजुर्वेद का आखिरी हिस्सा (40वां अध्याय) है। इसके दूसरे मन्त्र में काम करते हुए 100 वर्ष तक जीने की इच्छा रखने का संदेश है। साथ में इसके अलावा और कोई मार्ग नहीं की भी घोषणा है। यों सभी मनुष्य कर्म करते हैं लेकिन प्रत्येक मनुष्य के कर्म करने की प्रेरणाएं अलग-अलग होती हैं। अपवाद छोड़ सभी मनुष्य अपने कर्म का फल चाहते हैं। फल की इच्छा ही कर्म की प्रेरणा होती है। लेकिन कर्म का फल उस एक मनुष्य के ही काम का परिणाम नहीं होता। सृष्टि विराट है। पूरी सृष्टि प्रकृति प्रतिपल सक्रिय है। इस विराट सक्रियता के बीच मनुष्य बहुत छोटी इकाई है। उसका किया कर्म समूची सृष्टि सक्रियता से जुड़कर ही अच्छा या बुरा परिणाम लाता है। परिणाम मनुष्य के बूते के बाहर है। कर्म करना भी उसकी अपनी स्वतंत्रता नहीं है। कृष्ण कहते हैं, तत्ववेत्ता योगी देखते, सुनते, छूते, सूंघते, वार्तालाप करते, छोड़ते या त्याग करते, सांस लेते, चलते, खाते, आंख खोलते, बन्द करते सहित सभी कामों में यह अनुभव करता है कि इन्द्रियां ही अपने-अपने विषयों में सक्रिय हैं, वही स्वयं कोई कर्म नहीं करता। (वही, 8-9)

गीता में अनेक अवसरों पर यही बात दोहराई गयी है। प्रकृति के भीतर सत्व, रज और तमस् की शक्तियां हैं। दर्शन में इन्हें ठीक ही गुण कहा गया है। इन्हीं गुणों के कारण प्रकृति में परिवर्तनशीलता है। कृष्ण तत्वज्ञ के गुण बताते हैं, जो प्रकृति के गुणों द्वारा विचलित नहीं होता, जो गुणों को ही कर्म करता देखता है वह निन्दा स्तुति में समभाव रहता है वह तीनों गुणों से ऊपर उठकर ब्रह्म हो जाने की पात्रता के योग्य हो जाता है। (अध्याय 14.23-26) यहां बहुत बड़ी बात कही गयी है।

उपनिषदों या गीता का ब्रह्म अंधआस्था वाला ईश्वर नहीं है। वह इसी सृष्टि की सम्पूर्णता है। मनुष्य सहित सम्पूर्ण जड़-चेतन, पदार्थ-ऊर्जा उसकी इकाइयां हैं लेकिन वह सम्पूर्ण है। सुख-दुख, मान-अपमान का मूल स्वयं को अलग, एकाकी या इकाई समझना है। इकाई होना एक चित्तदशा है, संन्यासी होना या न्यास-समिति, समाज से युक्त होना उससे बड़ी चित्त दशा है। दृश्य जगत का विश्लेषण समझना वैज्ञानिक चित्तदशा है, अदृश्य लेकिन अनुभूत जगत् को देखना द्रष्टा-ऋषि चित्तदशा है लेकिन सम्पूर्णता को देख लेना उच्चतम द्रष्टा भाव है। सम्पूर्णता परम है, वही परम बह्म है। छान्दोग्य उपनिषद में दुखी नारद को सनत् कुमार ने बताया यो वै भूमा तत्सुखम् – जो विराट है, वही आनंद है, इससे कम होना सुख नहीं। ईश्वर या ब्रह्म होना सबकी संभावना है, जो चाहे ईश्वर या ब्रह्म बने। यहां कोई आरक्षण नहीं चलता।

* लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

4 COMMENTS

  1. थोडि सी मत भिन्न्ता है,ईश्वर और ब्रह्म इक होते हुवे भी एक श्ब्द नही है.
    और बनना नही है बल्कि ब्रह्म है,बल्कि एसा कहे ब्रह्म के अलावा और कुछ नही है,जो भी भासता है वो मिथ्या है मतलब उसे ब्रह्म का सहरा है या वो ब्रह्म पर आरोपित या अध्यारोपित है तभी वो सत्य जान पडता है जबअकि उसका अस्तित्व ब्रह्म पर निर्भर है जैसे sव्पन के पदार्थो का अस्तित्व अपने पर, जागॄत के बाद जैसा अनुभव वय्क्ति को होता है वेसा ही अनुभव जागॄत के पदार्थो के बारे मे ब्रह्म ग्यानी को होता है,इसमे कोय़ी आरक्षण नही है पर अधिकारवाद जरुर है,साधन चतुष्टय होना पहली शर्त है…………………..

  2. श्री हृदय नारायण दीक्षित जी कोई नयी बात तो नहीं कह रहे जो समझने में दुरूह हो ;वे वही तो दुहरा रहे जो स्वामी विवेकानंद से लेकर ऋग्वेद कालीन ऋषियों नेवैज्ञनिक आध्यात्मिक अनुसन्धान से आविष्कृत हुआ है .
    एक -ईश्वरः सर्व भूतानाम ;ह्रुदेशे अर्जुन तिष्ठति .

    भ्राम्यन सर्व भूतानी;यांत्रारुढ़ानी मायया ..
    दो -नवद्वारे पुरे देहि ;हंसो लेलायते वही .
    वसीसर्वस्य लोकस्य ;स्थावरस्य चरस्य च ..
    तीन;-जड़ चेतन जग जीव जत ;सकल राम मय जान ..
    चूँकि इस प्रवक्ता .कॉम के सभी लेखक परम ग्यानी हैं अतः प्रस्तुत प्रमाणों के श्तोत सभी को सुविदित हैं .

  3. – हृदयनारायण दीक्षित जी का निष्कर्ष है कि ईश्वर या ब्रह्म होना सबकी संभावना है, जो चाहे ईश्वर या ब्रह्म बने। यहां कोई आरक्षण नहीं चलता।
    – आरक्षण के होते IAS बनना या दीक्षित जी आप की तरह प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुकना तो सोचा जा सकता है ; अधिकारी बनने के लिए कोर्स हैं – मंत्री बनने के लिये जूगाड़ की जा सकती हैं।
    – परन्तु आरक्षण न होते भी ईश्वर या ब्रह्म होने की संभावना तो सोची भी नहीं जा सकती है. यह दर्शन तो अपने दिमाग-सर से ऊपर निकल जाता है. समझ नहीं आता. समझ, अपनी – अपनी.

  4. bahut hi sundar nirupan ki hai dikshitji aap ne .
    mera hindi system fail ho gaya hai isliye vyapak pratikrya vykt karne men pareshani aa rahi hai .fir bhi aapko is saargarbhit sunder brahm nirupan hetu saadhuwad .
    upnishad ka hi ek uddhran है
    nav dwaare pure dehi hanso lailayte wahi .
    vasi sarvasy lokasy sthavarsya charasya cha .

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here