गोडसे बनाम अनाम

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∙ अमित राजपूत

यहां हमारे सामने दो पात्र हैं जो भारत के ऐसे दो हस्ताक्षरों से सरोकार रखते हैं जिनके न रह जाने पर उस समय भारत की दिशा और दशा बदल गयी थी। आज दुर्भाग्यवश देश इनको कुछ इस तरह से जानता है- पहला, नाथूराम गोडसे जिसे कथित प्रगतिशील  और सेकुलर जमात एक हिन्दू हत्यारा के रूप में व्याख्यायित करती है जिसने प्रार्थना करते समय असंतोषवश महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। यद्यपि गोडसे हत्या के समय सिर्फ गोडसे ही था, हिन्दू विशेष नहीं; और आज भी लोग उसे गोडसे के रूप में ही जानते हैं। वहीं गोडसे के बरक्स यहां पर जो दूसरा पात्र है वो अनाम है। वो महान पत्रकार और तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की कांग्रेस के अध्यक्ष गणेश शंकर विद्यार्थी का हत्यारा है। वही प्रगतिशील लोग विद्यार्थी जी की हत्या को सांप्रदायिक दंगे का परिणाम कहते हैं। यद्यपि तब से लेकर अब तक उनके इस हत्यारे को लोग सिर्फ और सिर्फ इसी परिचय से जानते हैं कि वो एक मुसलमान था जिसने गणेशजी को अकारण ही बिना किसी वाद या विचार के ही कारसेवा सेवा करते हिये उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

कांग्रेसी नेता गणेशजी की हत्या गांधी की तरह किसी असंतोष का कारण न थी। उनकी ये हत्या दंगे के स्वरूप में लिपटी हुयी सोची-समझी इरादतन हत्या थी जिसकी पड़ताल 25 मार्च, 1931 को उनकी हत्या से लेकर आज तक कांग्रेस करा ही न सकी या यूं भी कह लें कि कराना मुनासिब ही न समझा। गणेश शंकर विद्यार्थी हिन्दू-मुस्लिम एकता के ज़बरदस्त हामी थे। बावजूद इसके कि वो हिन्दू जमात से ताल्लुख़ रखते हैं इस इरादे से मुसलमानों द्वारा घेरकर उनकी हत्या कर दी गयी और फिर भी उनका हत्यारा सिर्फ़ हत्यारा है न कि मुस्लिम हत्यारा। वहीं गांधी की हत्या जोकि उनकी ही नीतियों से उपजे बहुसंख्यक असन्तोष का कारण थी, उनका हत्यारा गोडसे आज़ादी के 70 सालों बाद भी एक हिन्दू हत्यारा कहा जाता है जबकि गांधीजी की हत्या के विषय की परिधि में सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री कपूर के नेतृत्व में एक आयोग बिठाया गया जो यह बताती है कि गांधी की हत्या उनकी नीतियों के कारण होना सम्भव था, गोडसे के ही शब्दों में देखें तो “गांधी जी ने देश को छल कर देश के टुकड़े किये हैं, क्योंकि ऐसा न्यायालय या कानून नहीं था जिसके आधार पर ऐसे अपराधी को दण्ड दिया जा सकता। इसलिए मैंने गांधी जी को गोली मारी उनको दण्ड देने का केवल यही एक तरीका रह गया था।” इसलिए हम कह सकते हैं कि फिर गोडसे नहीं तो कोई और…। निर्वासन का दंश झेल रहा मदन लाल पहवा इसका साफ उदाहरण है जिसने गांधी की हत्या के पूर्व ही प्रार्थना सभा में हमला किया और बम दागे लेकिन उसे फौरन गिरफ़्तार कर लिया गया।

जस्टिस कपूर के प्रतिवृत्त के खण्ड 2, पृष्ठ-177, अनुच्छेद 21/217 पर यह भी साफ है कि किसी की भी यह इच्छा नहीं थी कि कोई गांधीजी को बचावे। इसकी जानकारी भी बहुत लोगों को पहले से थी कि गांधी जी की हत्या होने वाली है। उनकी हत्या का तत्कालीन बम्बई राज्य के मुख्य सचिव जयप्रकाश और हरीश समेत तमाम नेता गणों को पूर्व ज्ञान था किन्तु वे सब बेशक उदासीन बनकर गांधी की हत्या का इंतजार करते रहे। इसका आशय यह है कि वह सभी उस समय गांधी की नीतियों के विरोध में ही रहे।

श्री पुरुषोत्तम त्रिकमदास ने गांधी की हत्या के कारणों पर कपूर आयोग के समक्ष गवाही भी दी थी कि मुसलमानों का अनुनय अथवा संतुष्टि, कोलकाता और नोआखाली में गांधी जी द्वारा किए हुए शान्ति प्रतिस्थापना के प्रयोग और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलाने का उनका हठ जो उनके अनशन के दबाव से कार्यान्वित करना पड़ा और हिन्दू सभा की गांधीजी के प्रति धारणा; ये कारण गांधी जी की हत्या के लिए पर्याप्त थे। वास्तव में यहां सिर्फ गांधी की नीतियों का विरोध हुआ और यह विरोध हिंसक हो गया। इसका आशय यह नहीं है कि वह हिंसा करने वाला बार-बार हिन्दू के रूप में पहचाना जाये। यद्यपि ऐसा ही होता आया है और देश को अंधेरे में रखकर हिन्दू-मुस्लिम के बीज बोते रहा गया है। हालांकि गोडसे ने हिन्दू मानसिकता को व्याप्त करके गांधी की हत्या नहीं की थी, यह इसलिए भी नहीं माना जा सकता है कि ऐसी मानसिकता वाले का एक हिन्दू की ही हत्या करना कैसे उचित होगा। दूसरा प्रमाण स्वयं गोडसे द्वारा 14 नवंबर, 1949 को अपने भाई चि. दत्तात्रेय गोडसे को लिखा गया ‘मृत्यु-पत्र’ है जिसमें वह लिखता है कि “अपने भारत वर्ष की सीमा-रेखा सिन्धु नदी है जिसके किनारों पर वेदों की रचना है। वह सिन्धु नदी जिस शुभ दिन में फिर भारतवर्ष के ध्वज की छाया में स्वच्छंदता से बहती रहेगी उन दिनों में मेरी अस्थियों का हिस्सा उस सिन्धु नदी में बहा दिया जाए। यह मेरी इच्छा सत्य सृष्टि में आने के लिए शायद और भी एक-दो पीढ़ी का समय लग जाए तो भी चिंता नहीं, उस दिन तक वह अवश्य वैसा ही रखो और आपके जीवन में वह शुभ दिन न आए तो आप के वारिसों को यह मेरी अंतिम इच्छा बतलाते जाना।” इससे साफ समझ में आता है कि गोडसे की इच्छा मात्र अखण्ड भारत की थी। वो विभाजन के ख़िलाफ़ था मुसलमानों के नहीं, क्योंकि सिन्धु के भारत में मिलने से वहां के मुसलमान भी तो भारत के ही हो जाएंगे। अतएव उसने कभी मुसलमानों को घृणा भाव से देखा हो यह स्पष्ट नहीं।

दूसरी ओर, जब दंगे में गणेशजी लोगों को बचाने निकले थे तो उनके साथ दो हिन्दू और एक मुस्लिम स्वयंसेवक थे। मुस्लिम आततायियों ने उनके ऊपर लाठी, छूरे, भाले और न जाने किन-किन अस्त्रों के पशुवत वार किए। मुसलमान स्वयंसेवक कुछ देर बाद मुसलमान समझ कर छोड़ दिया गया। दोनों हिन्दू स्वयंसेवक बुरी तरह घायल हुए। इनमें से ज्वाला दत्त नामक एक स्वयंसेवक तो ख़ून ले लथलथ होकर वही स्वर्गवासी हुये पर दूसरे की जान बच गयी। शंकर राव टाकलीकर नामक हिन्दू सज्जन जो स्वयंसेवकों में बच गए थे उनका बयान इस प्रकार है- “मुसलमान स्वयंसेवक पर मुसलमान होने के कारण थोड़ी ही मार पड़ी, वह छोड़ दिया गया। विद्यार्थी जी के सिर पर लाठी पड़ी। खून निकलने लगा। मुझे चक्कर आ गया। मैं विद्यार्थी जी का नाम लेकर चिल्ला पड़ा। इस पर किसी ने पीछे से आवाज़ दी- “गणेश जी जहन्नुम में गए… ।”

इससे यह बड़ा साफ है कि गणेश जी के हत्यारे को इसका पूरा भान था कि कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। उसने इसी बिनाह पर गणेश जी के साथ गये मुसलमान स्वयंसेवक को भाग जाने को कहा और अन्य सभी पर जान की आफत बन गए। विद्यार्थी जी की हत्या पर उनकी पुत्री विमला विद्यार्थी की तत्कालिक टिप्पणी भी इसे पूर्ण दंगा नही मानती वे इसे सुनियोजित हत्या कहती हैं। वे मानती हैं कि “यह एक सुनियोजित दंगा था, ब्रिटिश सत्ता का मक़सद दो समुदायों में दंगा कराना था और उससे भी अहम चीज़ विद्यार्थी जी को, जो इस सत्ता का अमूल-चूल परिवर्तन करना चाहते थे सदैव के लिए अपने रास्ते से हटाना था।”

ऐसे में देश को स्वयं तय करना चाहिए कि गांधीजी का हत्यारा हिन्दू था या सिर्फ हत्यारा। विद्यार्थीजी का हत्यारा मुसलमान था कि सिर्फ एक हत्यारा। यद्यपि गांधीजी के हत्यारे ने उच्च न्यायालय से पुनः आवेदन कर अपनी दोष सिद्धि का आह्वान नहीं किया। उसने हत्या के बाद भी अपनी बात रखी। वो कहता है कि “वास्तव में मेरे जीवन का उसी दिन अंत हो गया था जब मैंने गांधी पर गोली चलाई थी। मैं मानता हूं कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूं, किन्तु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं है। अपने देश के प्रति भक्ति भाव रखना यदि पाप है तो मैं स्वीकार करता हूं कि वह पाप मैंने किया है, यदि वह पुण्य है तो उससे जनित पुण्य पद पर मेरा नम्र अधिकार है। मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य नीति की दृष्टि से पूर्णतया उचित है। मुझे इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं कि भविष्य में किसी समय सच्चे इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो वह मेरे कार्य को उचित ठहराएंगे।”

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  1. गांधीजी की हत्या में गोडसे केवल एक औज़ार था! गांधीजी की हत्या उस समय के शीर्ष पर बैठे सत्ताधीशों के गहरे षड्यंत्र का परिणाम थी!हाल ही में पढ़े कुछ वृतांतों के बाद मेरा यह स्पष्ट मत है कि अंग्रेज़ों द्वारा फरवरी १९४६ में भारत में जून १९४८ तक ‘ट्रांसफर ऑफ़ पावर’ की घोषणा किसी कांग्रेसी आंदोलन के कारण नहीं की थी! बल्कि उस समय के इंग्लैंड के प्रधान मंत्री एटली ने १९५६ में भारत यात्रा के समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल श्री चक्रवर्ती से कहा था कि ट्रांसफर ऑफ़ पावर की घोषणा मुंबई में हुए नौसेना विद्रोह और गुप्तचर विभाग द्वारा सेना में देशभक्ति की भावना बलवती होने की सूचना प्राप्त होने पर की गयी थी क्योंकि इंग्लैंड द्वित्तीय विश्वयुद्ध में जीत के बावजूद आर्थिक रूप से खोखला हो चूका था और भारतीय सेना के किसी भी विद्रोह की स्थिति में बच निकलना भी कठिन हो सकता था! युद्ध कालीन अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने भी इंग्लैंड के प्रधान मंत्री चर्चिल पर औपनिवेशिक देशों को, विशेषकर भारत को, आज़ादी देने का दबाव बनाया था! मार्च १९४६ में कांग्रेस के शीर्ष नेता जवाहरलाल नेहरू सिंगापूर में तैनात लार्ड माउंटबेटन के निमंत्रण पर सिंगापूर गए थे (यद्यपि बहाना द्वित्तीय विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि देना बताया गया था)और मार्च १९-२६ ,१९४६ में नेहरू जी माउंटबेटन के परिवार के मेहमान बनकर वहां रहे थे! और उसी दौरान उनकी ‘नज़दीकियां’ लेडी माउंटबेटन से बनी थी!भारत में तैनात वाइसराय लार्ड वेवेल ने लार्ड माउंबेटन को यह स्पष्ट रूप से बता दिया था की नेहरू जी को सिंगापूर प्रवास में एक शासनाध्यक्ष के ही समान मान सम्मान दिया जाये! २०११ में सिंगापूर के भारतीय उच्चायुक्त द्वारा नेहरू जी की १९४६ की इस यात्रा के बारे में एक पुस्तिका भी प्रकाशित की गयी है जो नेहरू जी की यात्रा के एक स्मारक के उद्घाटन हेतु तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉ.मनमोहन सिंह की यात्रा के उपलक्ष में जारी की गयी थी!
    बहरहाल इस घटना से यह स्पष्ट हो जाता है की ब्रिटिश हुकूमत नेहरू जी को ही सत्ता का हस्तांतरण करने का मन बना चुकी थी और उसकी शर्तें तय करने के लिए ही नेहरू जी को सिंगापूर बुलाया गया था! नेहरू जी ने वहां हुए विचार विमर्श से देश को अनभिज्ञ रखा! लेकिन जब १५ में से १३ सदस्यों ने सरदार पटेल को प्रधान मंत्री बनाने का निर्णय लिया तो नेहरू जी ने गांधीजी से यही कहा की यदि “मुझे प्रधान मंत्री नहीं बनाया गया तो अँगरेज़ सत्ता का हस्तांतरण करने से इंकार कर सकते है”( शायद यही बात माउंबेटन ने उन्हें आठ दिन के प्रवास में समझायी होगी)!
    एक बार अपनी पसंद का प्रधान मंत्री बनवाने के बाद निश्चय ही अंग्रेजों की और स्वयं नेहरू जी की भी यही इच्छा रही होगी की उनकी सरकार निर्विरोध और बिना किसी चुनौती के चले!उस समय नेहरू जी को राजनितिक रूप से चुनौती देने की ताकत केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ही थी जिसके साथ विभाजन की त्रासदी झेल चुके करोड़ों हिन्दुओं का अपार समर्थन जुड़ गया था! छोटी छोटी शाखाओं में भी कई कई सौ स्वयंसेवकों की उपस्थिति इसका स्पष्ट प्रमाण थी! और निश्चय ही इसकी जानकारी गुप्तचरों द्वारा सरकार को भी दे दी गयी होगी!
    पाकिस्तान को पचपन करोड़ रुपये देने के मुद्दे पर आमरण अनशन करके गांधीजी ने नेहरू सरकार को पाकिस्तान को ५५ करोड़ रुपये देने के लिए मजबूर कर दिया! ऐसे में यह आशंका उपजना स्वाभाविक था कि भविष्य में भी किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर गांधीजी सरकार को झुका सकते थे! अतः नेहरू सरकार को बिना चुनौती के चलने के लिए गाँधी और संघ रुपी दोनों चुनौतियों का समाप्त होना आवश्यक था! इसके लिए सरकार के एजेंट्स के जरिये नाथूराम गोडसे को न केवल उकसाया गया बल्कि उसको प्रतिबंधित पिस्टल भी उपलब्ध कराई गयी! गाँधी जी को लगी एक गोली फोरेंसिक रिपोर्ट के अनुसार उस पिस्टल से नहीं चली थी जो गोडसे के पास से बरामद हुई थी!तो वह गोली किसने चलायी! प्रश्न और भी है जो इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायलय में दायर हुई याचिका की सुनवाई के समय सामने आने हैं!अतः इस बात की पूरी सम्भावना है की गांधीजी की हत्या उस समय के शीर्ष सत्ताधारी और उनके ब्रिटिश आकाओं के षड्यंत्र से हुई थी! और उन्ही के कारण गांधीजी की सुरक्षा बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया गया था!गांधीजी की हत्या और उसका दोष संघ के ऊपर डाल कर सरकार के चुनौतिविहीन शासन के दोनों उद्देश्य पूरे हो गए थे!इन पहलुओं पर नए सिरे से बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष जांच होना आवश्यक है!

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