ऋषि भक्त प्रसिद्ध वैदिक विद्वान पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार

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मनमोहन कुमार आर्य

देहरादून का यह सौभाग्य है कि यहां आर्यसमाज के अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने निवास किया है। हमने यहां अथर्ववेद और सामवेदभाष्यकार पं. विश्वनाथ वेदालंकार जी को देखा है व उनसे मिले भी हैं। उनसे अनेक बार आर्यसमाज व वैदिक साहित्य पर चर्चायें भी की हैं। आर्यसमाज में उनके प्रवचनों को सुना तथा उनके अभिनन्दन कार्यक्रम में भी सम्मिलित रहे हैं। पंडित विश्वनाथ जी के परिवारजनों से भी अनेक अवसरों पर मिलना हुआ है। एक वेदों के विद्वान आचार्य बृहस्पति शास्त्री जी हुए हैं जो किसी गुरुकुल के कुलपति रहे हैं। उनका व्यक्तित्व व रूप किसी ऋषि जैसा था। सफेद लम्बे बाल व दाढ़ी तथा उज्जवल चमकदार गौरवर्ण चेहरा। जिन दिनों हम स्नातकीय शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तो एक बार आप हमारे विद्यालय में आये थे और हमें धर्म एवं संस्कृति पर व्याख्यान दिया था। हमारे विद्यालय दयानन्द ब्रजेन्द्रस्वरूप कालेज के समीप ही उनका निवास स्थान था। आर्यसमाज में भी हमने उनको सुना व देखा है। उत्तर प्रदेश के विख्यात मुख्य मंत्री संस्कृतज्ञ पं. सम्पूर्णानन्द जी आपके शिष्य रहे और आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने पंडित जी की मामूली सी सहायता भी की थी। इसी प्रकार गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर के स्नातक पं. रूद्रदत्त शास्त्री जी से भी हमारा परिचय रहा है। आर्यसमाज में हमने इन्हें अनेक बार सुना। बाल्मीकि रामायण पर आप अधिकार पूर्वक बोलते थे। आपके व्याख्यान बहुत प्रभावशाली होते थे। ऐसा लगता था कि हम रामायण के रचयिता को ही सुन रहे है जिन्होंने रामायण के एक एक दृश्य का साक्षात्कर कर रखा है। आपने बाल्मीकि रामायण पर एक टीका भी लिखी थी जो यात्रा करते हुए खो गई थी। मृत्यु से पूर्व लम्बी अवधि तक बीमार रहे थे। इनके घर भी जाना हुआ था अवसर था इन्हें अपने कार्यालय में आयोजित एक गोष्ठी में आमंत्रित करना। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस धूलिया इनके जामाता थे। स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती जी का ननिहाल भी देहरादून में था। इनके नाना पं. कृपा राम जी ने ही ऋषि दयानन्द को दो तीन अवसरों पर देहरादून आमंत्रित किया था और ऋषि आये भी थे। आर्यसमाज की स्थापना में भी उनका योगदान था। वह वर्षों तक आर्यसमाज धामावाला देहरादून के प्रधान व मंत्री पदों पर रहे। स्वामी समर्पणानन्द जी पूर्व नाम पं. बुद्धदेव विद्यालंकार जी था। आपके द्वारा स्थापित गुरुकुल भोलाझाल, मेरठ की आर्यजगत में अच्छी कीर्ति है। आजकल एक अन्य आर्य विद्वान डा. लक्ष्मी चन्द्र शास्त्री देहरादून में सेवा निवृति का जीवन व्यतीत कर रहे है। आप स्वर विज्ञान के अच्छे ज्ञाता व विद्वान है। संस्कृत के आशु कवि भी हैं। यदा कदा आर्यसमाज के कार्यक्रमों में इनके दर्शन होते रहते हैं। इसी प्रकार से पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने भी देहरादून में निवास किया और यहां हिन्दी साहित्य सदन की स्थापना की जो आज भी उनके पौत्र चला रहे हैं। यह सदन देहरादून के प्रमुख बाजार पलटन बाजार में स्थित है जहां दिन भर भीड़ रहा करती है। यह हिन्दी सदन, हिन्दी पुस्तकों का एक विस्तृत आगार है। यहां हिन्दी में अनेक विषयों की पुस्तकें हैं। हमने भी अनेक अवसरों पर यहां से अनेक पुस्तकें क्रय की हैं। इस पुस्तक भण्डार को पण्डित चन्द्रमणि जी के द्वितीय पुत्र श्री सुरेन्द्र कुमार गुप्ता जी संचालित करते थे। आप हमारे मित्र थे। वर्षों तक हम प्रतिदिन यहां जाते थे और कुछ समय वहां अपने अन्य मित्र आर्य विद्वान स्व. श्री अनूप सिंह जी के साथ बैठकर आर्यसमाज की बातें किया करते थे।

 

ऋषि भक्त पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार ने ऋषि दयानन्द की शैली पर निरुक्त का भाष्य किया है। आपका जन्म 16 सितम्बर, सन् 1891 को जालन्धर में हुआ था। श्री शालिग्राम जी आपके पूज्य पिता थे। आपने गुरुकुल कागड़ी की स्थापना के आरम्भिक दिनों में ही वहां अध्ययन किया था। सन् 1914 में आपने गुरुकुल कांगड़ी से विद्यालंकार की उपाधि प्राप्त की और इस ‘विद्यालंकार’ शब्द वा उपाधि को अपने नाम के साथ उपनाम के रूप में प्रयोग किया जो सदा आपके नाम चन्द्रमणि को शोभायमान करता रहा। विद्यालंकार की उपाधि प्राप्त कर आपने गुरुकुल कांगड़ी में ही वेदोपाध्याय के रूप में ब्रह्मचारियों को अध्ययन कराया। आपके साहित्य का मुद्रण आपके द्वारा देहरादून में स्थापित भास्कर प्रेस से ही हुआ। जहां यह प्रेस था वहां आजकल आपके पौत्र श्री निखिलेश गुप्ता फोटोस्टेट व मुद्रण आदि का कार्य करते हैं। आज भी भास्कर प्रेस का एक नाम पट्ट वहां लगा हुआ है। आज ही हम वहां गये और उनके पौत्र श्री निखिलेश गुप्ता जी से मिले। वह भी हमसे बहुत प्रेम से मिले और सार्थक बातें हुईं।

 

श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी के तीन पुत्र व दो पुत्रियां हुईं। पुत्रों के नाम हैं श्री सुमेध कुमार गुप्ता, श्री सुरेन्द्र कुमार गुप्ता और श्री सुरेश कुमार गुप्ता। पंडित जी की सभी सन्तानें दिवंगत हो चुकी हैं। परिवार में सबसे वरिष्ठ सदस्य के रूप में श्री सुरेन्द्र कुमार गुप्ता जी की पत्नी श्रीमती विद्यावती जी विद्यमान हैं।

 

श्री चन्द्रमणि विद्यालंकार जी ने वैदिक साहित्य की भी प्रशंसनीय सेवा की है। आपके ग्रन्थों का विवरण निम्नलिखित हैः

 

1-  वेदार्थ दीपक के नाम से निरुक्त भाष्य। निरुक्त की यह सरल टीका हिन्दी भाषा में लिखी गई है। ग्रन्थ की विशेषता यह है कि मन्त्रों का अर्थ करते हुए टीकाकार महोदय ने स्वामी दयानन्द प्रतिपादित वेदार्थ शैली का पूरा ध्यान रखा है। यह ग्रंथ सम्प्रति गुरुकुल झज्जर से विक्रय हेतु उपलब्ध है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1926 में प्रकाशित हुआ था।

 

2-  श्रीमद्बाल्मीकीय रामायण-धारावाही अनुवाद तीन खण्डों में। यह ग्रन्थ सन् 1951 में प्रकाशित हुआ था।

 

3-  महर्षि पतंजलि और तत्कालीन भारत, सन् 1914 में प्रकाशित।

 

4-  स्वामी दयानन्द का वैदिक स्वराज्य, सन् 1922 में प्रकाशित।

 

5-  स्वामी दयानन्द के सत्य, अहिंसा के प्रयोग, सन् 1946 में प्रकाशित।

 

6-  वेदार्थ करने की विधि, सन् 1916 में प्रकाशित।

 

7-  स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद भाष्य की विषयानुक्रमणिका, सन् 1917 में प्रकाशित।

 

8-  आर्ष मनुस्मृति। यह प्रक्षिप्त श्लोकों से रहित है। टीका पंडित जी ने हिन्दी में लिखी है।

 

9-  कल्याण पथ। यह गीता पर आधारित एक लघु पुस्तिका है। यह हमारे संग्रह में है। और

 

10- धम्मपद टीका।

 

आज हम पंडित जी के पौत्र निखिलेश जी से मिले। हमें यह पता करना था कि क्या उनके यहां पंडित जी रचित बाल्मीकी रामायण की टीका उपलब्ध है? इस टीका को उपलब्ध कराने के लिए हमें आर्ष गुरुकुल पौंधा, देहरादून के विद्वान एवं अनुभवी ब्रह्मचारी, आर्यसमाज के प्रचार में सदैव उत्साह के साथ संलग्न श्री शिवदेव आर्य ने कहा है। वह इसकी स्कैनिंग कर आर्यसमाज की नैट साइट पर डालना चाहते हैं जिससे विश्व के लोग इस ग्रन्थ से लाभ उठा सकें। यह ग्रन्थ हमें उनसे उपलब्ध नहीं हुआ। अतः हम आर्य बन्धुओं से प्रार्थना करते हैं कि यदि किसी के पास पंडित जी रचित बाल्मीकी रामायण पर टीका उपलब्ध हो तो हमें फोन व इमेल द्वारा सूचित करे। हमारा इमेल है manmohanarya@gmail.com. फोन नं. है 09412985121 है। हमें लगता है कि यह पुस्तक आर्यसमाज के किसी पुस्तकालय में तो अवश्य ही उपलब्ध हो सकती है। अतः जानकारी देने की कृपा करें। यह भी बता दें कि पंडित जी के निरुक्त भाष्य सहित सभी ग्रन्थ सम्प्रति अनुपलब्ध हैं। यह हमारा अभाग्य ही है कि इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन नहीं हो सका। हमें यह भी लगता है हमारे वर्तमान विद्वान अपने छोटे बड़े ग्रन्थों का प्रकाशन करते कराते रहते हैं। इस कारण बड़े विद्वानों के महत्वपूर्ण ग्रन्थ पुनर्प्रकाशन से छूट जाते हैं। हम पंडित चन्द्रमणि विद्यालंकार जी को इस अवसर पर अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि देते हैं। उन्होंने अपने जीवन में अध्यापन सहित निरुक्त व रामायण के हिन्दी भाष्य, टीकायें व कुछ अन्य ग्रन्थों की रचनायें की। हिन्दी साहित्य सदन की स्थापना कर वैदिक साहित्य व हिन्दी के प्रचार को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था। प्रकाशन में भी पुरुषार्थ किया। हम उनके योगदान की प्रशंसा करते हैं और उन्हें कृतज्ञतापूर्वक अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। ओ३म् शम्।

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