विविधा

नेक नीयत का चट्टानी संकल्प

प्रमोद भार्गव

नेक नीयत से जनहित में लिया गया चट्टानी संकल्प क्या गुल खिला सकता है यह अन्ना आंदोलन ने देश ही नहीं पूरी दुनिया को दिखा दिया है। अन्ना भ्रष्टाचार की लड़ाई में एक नया और अराजनैतिक चेहरा बनकर उभरे। देखते-देखते भ्रष्टाचार के खिलाफ जारी मुहिम के राष्ट्रव्यापी सामाजिक आंदोलन के गांधीवादी नायक भी बन गए। अप्रैल में अन्ना जब जंतर-मंतर पर अनशन पर बैठे थे, तब भी उनके प्रति जन समर्थन का ज्वार अनायास फूट पड़ा था। इधर अन्ना को आंदोलन करने में कानूनी पेचेदगियां डालकर और फिर तय अनशन स्थल पर बैठने से पहले ही उन्हें हिरासत में लेकर सरकार ने समझा कि इस तरकीब से आंदोलन नियंत्रित और नाकाम हो जाएगा। किंतु गिरफ्तारी की खबर के साथ ही देश में जो जन सैलाब उमड़ा, नगरों-महानगरों के मैदान जिस तरह से आंदोलन स्थलों में तब्दील होते चले गए, उससे सरकार की रणनीतियां हवाई तो साबित हुई ही, जनता में यह संदेश भी गया कि केंद्र सरकार और उसमें खासतौर से कांग्रेस को भ्रष्टाचार का विरोध निजी विरोध न जाने क्यों लगने लगता है ?

देशभर में जारी अन्ना आंदोलन और तमाम जन-सर्वेक्षणों ने अब यह साफ कर दिया है कि लोग सरकार के नहींे नागरिक समाज द्वारा तैयार जन लोकपाल मसौदे के पक्ष में हैं। सरकार बार-बार संसद की सर्वोच्चता की दुहाई देकर जन लोकपाल को ठुकराने की कवायद में लगी है। इस दोमुंही सरकार को समझना चाहिए कि सांसदों को जनता ही संसद में चुनकर भेजती है। वह भी इस विश्वास के साथ कि वे उनकी कल्याण की आवाज संसद में बुलंद करेंगे और लोक कल्याणकारी नीतियों को अंजाम देंगे। लेकिन जब सांसद धन लेकर वोट देने और सवाल पूछने लगें तो जनता में उनका भरोसा कब तक बना रह सकता है ? वैसे भी एक के बाद एक घोटाले उजागर होने और संप्रग-2 के कई मंत्रियों के सींखचों के पीछे होने के बाद संसद के भीतर और बाहर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि चालीस चोरों में अलीबाबा बनकर रह गई है। चालीस चोरों की इन छवियांे में सबसे बेहतर प्रधानमंत्री को माना जा सकता है।

कांग्रेस में सत्ता और नैतिकता के आदर्शों का तालमेल पहले भी कभी नहीं रहा। अब तो उसने जैसे नैतिक आचरण से पल्ला ही झाड़ लिया है। महात्मा गांधी को यह उम्मीद और विश्वास शायद स्वतंत्रता के तत्काल बाद हो गया था, इसीलिए उन्होंने कांग्रेस को भंग करने का प्रस्ताव रखा था। क्योंकि गांधी जी ने मान लिया था कि कांग्रेस के वजूद में आने का जो मकसद था वह पूरा हुआ, इसलिए इसका मौजूदा चरित्र बना रहे, इस नजरिये से इसे खत्म करना ही बहतर है। उन्होंने आजादी के बाद पैदा हुए नए हालातों के तारतम्य में नए राजनैतिक दलों के गठन का सुझाव दिया था, लेकिन एक चुके हुए व्यक्ति का विचार मानकर इसे ठुकरा दिया गया और कांग्रेस सत्ता पर सवार हो गई। तब से वह अब तक ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की कवायद करती रही है। इसीलिए उसके फैसलों में दृढ़ता के बजाय असमंजस देखने में आता है। इसी अस्थिरता के चलते उसे शाहबानों प्रकरण के बावत सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को संविधान संशोधन के जरिए उलटने में कोई देर नहीं लगती है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशव्यापी हुए सांप्रदायिक दंगों को वह, जब कोई बड़ा दरख्त गिरता है तो धरती हिलती ही है कहकर अपनी जिम्मेबारी पर पर्दा डालने की कोशिश करती है। कांग्रेस की नरसिंहराव और मनमोहन सिंह सरकारें नोट देकर सांसदों के वोट खरीदती हैं और ऐसे अनैतिक आचरण के बूते सत्ता पर जबरिया काबिज बनी रहती हैं। शायद इन्हीं दो प्रसंगों को ध्यान में रखकर सरकारी लोकपाल में संसद के भीतर सांसदों के दुराचरण को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है ? अब वास्तव में सप्रंग की मंशा तो यह जान पड़ती है कि वह कमजोर लोकपाल को पेश व पारित करके अपने उस गुप्त अजेंडे को अमल में लाने का मंसूबा साधने में लगी है, जिसके मार्फत कुछ भ्रष्ट राजनीतिकों, नौकरशाहों और ठेकेदारों की जान को हर कीमत पर बख्शा जा सके ?

प्रधानमंत्री और उनकी मण्डली हवाला दे रहे हैं कि जन लोकपाल विधेयक संसद पर थोपने का जो रास्ता अपनाया जा रहा है, उससे संसदीय लोकतंत्र को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। इसलिए समय द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वाह किया जाए। इस मण्डली को अहसास करना चाहिए कि सत्ताधारी दल और संसद की राय आखिकार जन अभिमत से ही अभिप्रेरित होने चाहिएं न कि स्वेच्छाचारिता से ?

प्रधानमंत्री बार-बार दोहराते हैं कि भारत एक उभरती अर्थव्यवस्था है। यह स्थिति दुनिया की अर्थिक महाशक्तियों को पुसा (पच) नहीं रही। ये विदेशी ताकतें भारत को अपनी बिरादरी में शमिल होते देखना नहीं चाहती। उनकी कोशिश है कि भारत कि आर्थिक प्रगति बाधित हो। इसी मंशा को उजागर करते हुए कांग्रेस का बयान आया था कि अन्ना आंदोलन के पीछे अमेरिकी हाथ हो सकता है। यह कितना हास्यास्पद पहलु है कि जो कांग्रेस दिनरात अमेरिका की चापलूसी में जुटी है। अमेरिकी आर्थिक नीतियों को जबरन कानून बनाकर अमल में लाने में लगी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस-इजराइल-अमेरिका गठबंधन की भागीदार ने जब यूपीए सरकार को अपनी सत्ता के खिलाफ छिड़े आंदोलन ने संकट में डाल दिया है तो अब उसे गांधीवादी अन्ना हजारे के पीछे अमेरिका का हाथ दिखाई दे रहा है। यह एक राष्ट्रीय चरित्र पर कीचड़ उछालने जैसा काम है।

उदारवादी अर्थव्यवस्था लागू होने के बाद हमारे यहां जिस तरह से प्रगति और बढ़ती विकास दर का ढिंढोरा अब तक पीटा जा रहा है, उसे किसी मार्क्सवादी अथवा पूंजीवादी अर्थशास्त्र से समझना तो मुश्किल है, लेकिन हकीकत में आमजन के विस्थापन और प्राकृतिक संपदा के अकूत दोहन से जुड़ा है, यह अर्थशास्त्र। भारत में पूंजीपतियों की जिस बढ़ती संख्या पर हम गौरवान्वित होते हैं, हकीकत में उनकी पूंजी के बढ़ने के कारणों में खदानें, खनिज, तेल, संचार और रियल स्टेट के लिए किए गए भूमि अधिग्रहण जैसे राज छिपे हैं। इस संपदा के दोहन के आंकडे़ संसद में पेश नहीं किए जाते, क्योंकि इन धंधों से जुड़े देशी-विदेशी उद्योगतियों से सरकार के नुमाइंदों की सांठ-गांठ व हिस्सेदारी है। सरकार बार-बार अमेरिका और ब्रिटेन के जिन आदर्शों की विरुदावली पड़ती है, उस सरकार को यह भी पता होना चाहिए कि राजनीति में आने और जनप्रतिनिधि बनने के बाद यहां के नेता अपने व्यावसायिक हित छोड़ देते हैं, जिससे नीतियां निजी स्वार्थों का हिस्सा न बनें। लेकिन हमारे यहां विडंबना देखिए कि जनप्रतिनिधि बनने के बाद ये लोग व्यापारी बन सत्ता के माध्यम से व्यापार के विस्तार में लग जाते हैं। इस कारण जरूरतमंद, प्रतिभाशाली और तरक्की पसंद संघर्षशील युवा प्रभावित होते हैं। इन्हीं मजबूरियों के चलते वे पलायन का रूख अख्तियार करते हैं। देश की आबादी के साठ फीसदी युवकों के नायक अन्ना इसलिए बन गए हैं क्योंकि उन्हें जनलोकपाल में राजनीतिकों नौकरशाहों और पूंजीपतियों के गठजोड़ पर कुठाराघात होता दिखाई दे रहा है। आंदोलन में युवाओं की इस भागीदारी ने अन्ना के इरादों को भी फौलादी बनाने का काम किया है।