अच्छाई को जीने के लिये तैयारी चाहिए

1
110
– ललित गर्ग –
अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि दुनिया एक बेहद खतरनाक जगह है। उन लोगों की वजह से नहीं, जो बुरा करते हैं, बल्कि लोगों के कारण जो कुछ नहीं करते।’ अब तो इंसान ही नहीं, बल्कि जानवर भी बदल रहे हैं, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले की पर्यावरणशास्त्री केटलिन गेनर इस पर विस्तार से अध्ययन कर रही हैं, और वह इस नतीजे पर पहुंची हैं कि अपने आपको हालात के हिसाब से ढालते हुए ये पशु अब दिन में भी सोने लगे हैं। जो बदलाव हो रहा है, उसे साधारण भाषा में कहें, तो अब बहुत से जानवर उल्लू बनते जा रहे हैं। जानवरों में आया यह बदलाव भी इंसानों के कारण ही है। इंसान तो उल्लू बन ही रहा है, वह जानवरों को भी इसके लिये मजबूर कर रहा है, इस बदलाव पर चिन्तन की व्यापक अपेक्षा है।
मि. टोनिस ने भी जीवन का एक बड़ा सच व्यक्त करते हुए कहा कि व्यक्ति जिस दिन रोना बंद कर देगा, उसी दिन से वह जीना शुरू कर देगा। यह अभिव्यक्ति थके मन और शिथिल देह के साथ उलझन से घिरे जीवन में यकायक उत्साह का संगीत गूंजायमान कर गयी। नैराश्य पर मनुष्य की विजय का सबसे बड़ा प्रमाण है आशावादिता और यही है जीत हासिल करने का उद्घोष। आशावादी होने के अनेेक कारण हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं। पर निराशा के कारणों की सूची भी लंबी है, इसे भी नकारा नहीं जा सकता। अच्छी बातें भी रोज दिखने को मिलती हैं, नियमितता भी रोज मिलती है, शुद्धता भी कुछ अंशों में कायम है, सच्चाई और ईमानदारी के उदाहरण भी हमें याद दिलाने जितने मिल जायेेंगे उनको अभी कुछ लोग जी रहे हैं।
सूर्य रोज समय पर उगता है। चिड़ियां भी तभी चहकती हैं । अखबार रोज आते हैं। ट्रेन रोज चलती हैं, स्कूल रोज लगता है। बैंकों में करोड़ों के लेन-देन रोज होते हैं, लेकिन धोखा देने या गलत काम करने का भय नहीं रहा। रेले लेट हो रही है, अस्पतालों में मरीज इलाज के लिये तरस रहे है, चारों ओर अराजकता एवं अनुशासनहीनता बिखरी है, हर व्यक्ति अपनी जिम्मेवारी से मुंह छुपा रहा है। गलतियों पर गलतियां और ‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था’ ऐसा कहकर रोज बयान बदले जाते हैं। आश्वासन कब किसने पूरे किए। झूठे मामलों की संख्या न्यायालयों में लाखों की तादाद में है। स्वार्थ के कारण कार्यालयों में फाईलों के अंबार लगे हैं। सड़कें, गलियां गंदगी से भरी पड़ी हैं। सरकारी खजाने, अब जंगल में नहीं, कागजों में लूटे जाते हैं। विकास की राशि अंतिम छोर तक दस प्रतिशत भी नहीं पहुंचती। यहां तक कि हंसी भी नकली, रोना भी नकली, दानदाता भी नकली, भिखारी भी नकली, डाॅक्टर भी नकली, दवा भी नकली, इलाज भी नकली। इन सबके पीछे मनुष्य की दूषित मनोवृत्ति है।
मनुष्य की इस मनोवृत्ति को ही मैं अक्सर अपने लेखन में चर्चा का विषय बनाता रहा हूँ। समस्याओं को उजागर करता हूँ। निराशा और अंधेरा ही मेरे लेखन में अभिव्यक्त होते हैं। क्या आशा और रोशनी का सचमुच अकाल हो गया है? फिर क्यों नहीं अच्छाई एवं रोशनी की बात होती? क्यों नहीं हम नेगेविटी से बाहर आते? सत्य और ईमानदारी से परिचय कराना इतना जटिल क्यों होता जा रहा है? आज का जीवन आशा और निराशा का इतना गाढ़ा मिश्रण है कि उसका नीर-क्षीर करना मुश्किल हो गया है। पर अनुपात तो बदले। आशा विजयी स्तर पर आये, वह दबे नहीं।
आशा की ओर बढ़ना है तो पहले निराशा को रोकना होगा। इस छोटे-से दर्शन वाक्य में मेरी अभिव्यक्ति का आधार छुपा है। मोजार्ट और बीथोवेन का संगीत हो, अजंता के चित्र हों, वाल्ट व्हिटमैन की कविता हो, कालिदास की भव्य कल्पनाएं हों, प्रसाद का उदात्त भाव-जगत हो- सबमें एक आशावादिता घटित हो रही है। एक पल को कल्पना करिए कि ये सब न होते, रंगों-रेखाओं, शब्दों-ध्वनियों का समय और सभ्यता के विस्तार में फैला इतना विशाल चंदोवा न होता, तो हम किस तरह के लोग होते! कितने मशीनी, थके और ऊबे हुए लोग! अपने खोए हुए विश्वास को तलाशने की प्रक्रिया में मानव-जाति ने जो कुछ रचा है, उसी में उसका भविष्य है। यह विश्वास किसी एक देश और समाज का नहीं है। यह समूची मानव-नस्ल की सामूहिक विरासत है। एक व्यक्ति किसी सुंदर पथ पर एक स्वप्न देखता है और वह स्वप्न अपने डैने फैलाता, समय और देशों के पार असंख्य लोगों की जीवनी-शक्ति बन जाता है। मनुष्य में जो कुछ उदात्त है, सुंदर है, सार्थक और रचनामय है, वह सब जीवन दर्शन है। यह दर्शन ऐसे ही हैं जैसे एक सुंदर पुस्तक पर सुंदरतम पंक्तियों को चित्रांकित कर दिया गया। ये रोज-रोज के भाव की ही केन्द्रित अभिव्यक्तियां हैं। कोई एक दिन ही उत्सव नहीं होता। वह तो सिर्फ रोज-रोज के उत्सव की याद दिलाने वाली एक सुनहरी गांठ होता है।
वक्त बदल रहा है और बदलते वक्त के इतिहास पर हमेशा वक्त के कई निशान दिखाई देते हैं- लाल, काले और अनेक रंगों के। इस बार लगा जैसे वक्त ने ज्यादा निशान छोड़े हैं। देश-विदेश में बहुत घटित हुआ है। अनेक राष्ट्र आर्थिक कर्ज में बिखर गये तो अनेक बिखरने की तैयारी में हैं। अच्छा कम, बुरा ज्यादा। यह अनुपात हर दिन बढ़ता जा रहा है। शांति और भलाई के भी बहुत प्रयास हुए है। पर लगता है, अशांति, कष्ट, विपत्तियां, हिंसा, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और अन्याय महामारी के रूप में बढ़ रहे हैं। सब घटनाओं का जिक्र मेरे पृष्ठ के कलेवर में समा ही नहीं सकता।
सबसे बड़ी बात उभरकर आई है कि झोपड़ीऔर फुटपाथ के आदमी से लेकर सुपर पावर का नेतृत्व भी आज भ्रष्ट है। भ्रष्टाचार के आतंक से पूरा विश्व त्रस्त है। शीर्ष नेतृत्व एवं प्रशासन में पारदर्शी व्यक्तित्व रहे ही नहीं। सबने राजनीति, कूटनीति के मुखौटे लगा रखे हैं। सही और गलत ही परिभाषा सब अपनी अलग-अलग करते हैं। अपनी बात गिरगिट के रंग की तरह बदलते रहते हैं। कोई देश किसी देश का सच्चा मित्र होने का भरोसा केवल औपचारिक समारोह तक दर्शाता है।
खेल के मैदान से लेकर पार्लियामेंट तक सब जगह अनियमितता एवं भ्रष्टाचार  है। गरीब आदमी की जेब से लेकर बैंक के खजानों तक लूट मची हुई है। छोटी से छोटी संस्था से लेकर यू.एन.ओ. तक सभी जगह लाॅबीवाद फैला हुआ है। साधारण कार्यकत्र्ता से लेकर बड़े से बडे़ धार्मिक महंतों तक में राजनीति आ गई है, चारित्रिक दुर्बलताओं के काले धब्बे शर्मसार कर रहे हैं। पंच-पुलिस से लेकर देश के सर्वोच्च नेतृत्व तक निर्दाेष की कहीं कोई सुनवाई नहीं है। भगवान की साक्षी से सेवा स्वीकारने वाला डाक्टर भी रोगी से व्यापार करता है। जिस मातृभूमि के आंगन में छोटे से बड़े हुए हैं, उसका भी हित कुछ रुपयो के लालच में बेच देते हैं। पवित्र संविधान की शपथ खाकर कुर्सी पर बैठने वाला करोड़ों देशवासियों के हित से पहले अपने परिवार का हित समझता है। नैतिक मूल्यों की गिरावट की सीमा लांघते ऐसे दृश्य रोज दिखाई देते हंै। इन सब स्थितियों के बावजूद हमें बदलती तारीखों के साथ अपना नजरिया बदलना होगा।
उपनिषदों में कहा गया है कि ”सभी मनुष्य सुखी हों, सभी भय मुक्त हों, सभी एक दूसरे को भाई समान समझें।“ ऐसा ही लक्ष्य नरेन्द्र मोदी सरकार का प्रतीत हो रहा है और यही उनका मिशन है। इतिहास अक्सर किसी आदमी से ऐसा काम करवा देता है, जिसकी उम्मीद नहीं होती। और जब राष्ट्र की आवश्यकता का प्रतीक कोई आदमी बनता है तब वह नायक नहीं, महानायक बन जाता है। जो खोया है उस पर आंसू न बहाकर प्राप्त उपलब्धियों से विकास के नये रास्ते खोलने हैं। इस बात को अच्छी तरह समझ लेना है कि अच्छाइयां किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं होतीं। उसे जीने का सबको समान अधिकार है। स्टीव जाॅब्स ने कहा है कि यह निश्चय करना कि आपको क्या नहीं करना है उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि यह निश्चय करना कि आपको क्या करना है। जरूरत उस संकल्प की है जो अच्छाई को जीने के लिये लिया जाये। भला सूरज के प्रकाश को कौन अपने घर में कैद कर पाया है? प्रेषक

1 COMMENT

  1. सर आपके द्वारा लिखा गया यह लेख वाकई काबिले तारीफ है, सर आपके लिखने का अंदाज बहुत ही अच्छा है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress