‘गोरक्षा राष्ट्र-रक्षा व गोहत्या राष्ट्र-हत्या है’

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-मनमोहन कुमार आर्य-

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संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं, ईश्वर, जीव व सृष्टि। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चेतन, अल्पज्ञ, एकदेशी, सूक्ष्म, आकार रहित, जन्म-मरण धर्म, शरीर को धारण करना, अपने ज्ञान व अज्ञान के अनुसार अच्छे व बुरे कर्म करना, ईश्वर उपासना, अग्निहोत्र करना, माता-पिता-आचार्यों व अतिथियों की सेवा, सत्कार, आज्ञा पालन आदि का करना है। इससे वह अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होता है। जीव जब मनुष्य जीवन में अच्छे-बुरे कर्मों को करता है तो कर्मों की कुछ स्थितियां ऐसी भी आती है जब किसी को मनुष्य का, किसी को गो का एवं अन्यों को अन्य-अन्य प्राणियों का जन्म मिलता है। गो को ही वर्तमान भाषा में गाय कहा जाता है। गाय इस संसार का एक सर्वोत्तम प्राणी है जिसके मनुष्य पर इतने उपकार हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती। इसी कारण हमारे पूर्वजों ने गाय को मां की उपमा से नवाजा है। मां के गर्भ में पलकर बच्चा जन्म लेता है और मां के दुग्ध का पान कर उसका शरीर पुष्ट होकर वृद्धि को प्राप्त होता है। गाय का दूध भी मां के दूध के ही समान गुणकारी है। गाय के बाद बकरी का दूध गुणवत्ता में मां व गाय के दुध के कुछ समान होता है परन्तु इनसे कुछ कम हितकर होता है। ऐसा देखा गया है कि यदि किसी निर्धन परिवार में जन्में बच्चे की मां का किसी कारण से निधन हो जाये तो वह गाय और बकरी का दूध पीकर जीवित रहता है व उसकी पालना हो जाती है। अतः वेदों ने गाय के गुणों के कारण उसे ‘‘गो विश्वस्य मातरः’’ अर्थात् गाय सारे संसार के लोगों की मां है और ‘गो विश्वस्य नाभिः’ अर्थात् गाय सारे विष्व की नाभि या केन्द्र है, की यथार्थ उपमाओं से गौरवान्वित किया है।

आईये, देखते हैं कि मनुष्य के जीवन के आधार क्या-क्या हैं? मनुष्य का शरीर अन्नमय है। अन्न में गोदुग्ध की गणना भी होती है। सभी अन्नों मे ंगोदुग्ध प्रमुख अन्न है जिसका सेवन करके मनुष्य का शरीर न केवल पुष्ट होता है अपितु निरोगी, स्वस्थ, बलवान, तेजस्वी, ओजस्वी, मेधावी, बुद्धिमान, प्रज्ञावान होता है। दुग्ध के अतिरिक्त गाय से गोमूत्र, बछड़ा या बछड़ी, गोचर्म आदि भी प्राप्त होते हैं। गोमूत्र के अनेक उपयोग हैं जिसमें से औषधीय उपयोग भी होते हैं। कैंसर रोग को ठीक करने के लिए भी गोमूत्र का सेवन किया व कराया जाता है। गोमूत्र हमारे खेतों में एक उपयोगी खाद का काम करता है। इसी प्रकार से गोबर का उपयोग ईधन, रसोई गैस बनाने, घर व यज्ञशाला आदि की लिपाई, खाद तैयार करने आदि के रूप में किया जाता है, जो प्रायः निःशुल्क ही हमारे कृषकों को उपलब्ध हो जाता है। गोबर की खाद से जो अन्न उत्पन्न होता है वह शरीर को स्वस्थ व निरोग रखने के साथ उसे बलवान व मेधावी बनाता है। गोबर की खाद से उत्पन्न अन्न को खाकर ही श्रेष्ठ सन्तान का जन्म होता है, इसी लिए भगवान राम के पूर्वज व भगवान श्री कृष्ण गोपालन करते थे और अभीष्ट फल प्राप्त करते थे। इसी प्रकार से गो के बछड़े व बछड़ी की भी हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है। बछड़े खेती द्वारा अन्न के उत्पादन में काम आते हैं व बैलगाड़ी में जोते जाते हैं तथा बछड़ियां आयु बढ़ने के साथ गाय बन कर हमारे परिवार के छोटे-बड़े सभी सदस्यों को गोदुग्ध से अमृतपान कराकर सभी को स्वस्थ व प्रसन्न रखती हैं। इस प्रकार से गाय का मनुष्य प्राणी से मां व पुत्र का सम्बन्ध है।

राष्ट्र क्या होता है। मनुष्यों के समूह से मिलकर एक राष्ट्र बनता है। राष्ट्र की अपनी भौगोलिक सीमायें होती है। वहां की एक मुख्य भाषा होती है, बड़े राष्ट्रों में एक से अधिक भाषायें भी हो सकती हैं। एक ही प्रकार के रीति-रिवाज, संस्कृति एवं सभ्यता होती है अथवा कुछ बाह्य अन्तर होते हुए भी आन्तरिक एकता उनमें होती है। शिक्षा की व्यवस्था के साथ चिकित्सा की व्यवस्था होती है और सेना भी होती है जो पड़ोसी व अन्य बाह्य किसी शत्रु के द्वारा देश पर हमला करने पर राष्ट्र की रक्षा करती है। इस कारण से भी राष्ट्र का बलवान व स्वस्थ होना अति आवश्यक है तभी उसका अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है। इसके लिए राष्ट्र के नागरिकों को भरपूर अन्न, गोदुग्ध, दही, मट्ठा, गोधृत आदि पदार्थों के साथ बैल व गायों की बड़ी संख्या में आवश्यकता होती है। यह गोधन कम होगा तो राष्ट्र सुरक्षित नहीं रह सकता। अतः हमें अपने जीवन की रक्षा की तरह ही गोधन की भी रक्षा करनी चाहिये तभी हम सुरक्षित व सुखी रह सकते हैं अन्यथा हम सुखी कदापि नहीं हो सकते। जिस राष्ट्र में गोहत्या होती है मानों वह राष्ट्र न होकर बुद्धिहीन मनुष्यों का समूह मात्र है। इसका कारण आगामी पंक्तियों मे महर्षि दयानन्द के शब्दों में प्रस्तुत करेगें। यहां इतना ही कहना समीचीन है कि गोहत्या से गो आदि पशुओं की संख्या में कमी होने से राष्ट्र में गोदुग्ध व इससे निर्मित होने वाले अन्यान्य पदार्थ तथा अन्न की कमी आदि होने से देशवासियों का स्वास्थ्य सुरक्षित नहीं रह सकता। आज अमेरिका बौद्धिक दृष्टि से समुन्नत देश होने पर भी वहां रोग अधिक होते है। तभी तो वहां साइड एफेक्ट वाली अंग्रेजी दवाइयों का प्रयोग सम्भवतः विश्व में सर्वाधिक होता हैै। यदि वहां के लोग बुद्धिमान हैं तो उन्हें स्वस्थ व निरोग रहने की जीवन पद्धति विकसित व उन्नत नहीं करनी चाहिये। यदि ऐसा करने पर भी रोग हो रहे हैं तो फिर उनकी जीवन पद्धति व भोजन-छादन में दोषों का होना ही रोग व दवाओं की भारती मात्रा में खपत का प्रमुख कारण है जिसे या तो वह अब तक जान ही नहीं पाये हैं या जीभ के स्वाद के कारण उसे छोड़ न पाने के कारण रोगी होते हैं। पुनर्जन्म के सिद्धान्त का ज्ञान न होने के कारण भी वह ईश्वर की यथार्थ उपासना व सत्कर्म न करके विनाश के मार्ग को अपना कर अपना व भावी सन्ततियों का भविष्य बिगाड़ रहे हैं जिससे उन्हें वर्तमान व भावी जीवन में भारी हानि होने की सम्भावना है।

वेद में गो को माता व विश्व की नाभि कहकर सम्बोधित किया गया है। गो के प्रति अश्रद्धा प्रकट करने वालों को दण्ड देने का विधान है। किसी भी प्राणी को अकारण दुःख देना मनुष्यता नहीं अपितु दानवता है। यह कृत्य निन्दनीय कृत्य है और दुःख है कि आज सारे संसार में गोहत्या व अन्य प्राणियों की हत्या के इस दुष्कृत्य को सबसे अधिक पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग कर रहे हैं जो किताबी ज्ञान ही रखते हैं परन्तु यथार्थ ज्ञान व विद्या से शून्य हैं। इसका कारण उनका अज्ञान व आत्मा पर बुरे संस्कारों का होना ही सिद्ध होता है। गाय या किसी भी प्राणी का मांस खाना किसी भी मनुष्य के लिए किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं है। ईश्वर ने सृष्टि में भोजन के लिए आवश्यकता से अधिक खाद्य पदार्थ बनाये हैं। गाय का दूध और दूध से बनने वाले अन्य पदार्थ एवं व्यंजन स्वाद में किसी भी पदार्थ व व्यंजन से कम स्वादिष्ट नहीं होते हैं। अतः गोमांस भक्षकों को जीवन के उद्देश्य, जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति के उपाय, उद्देश्य की पूर्ति में कैसा भोजन उचित व अपरिहार्य है, चिन्तन, विचार व ध्यान किस प्रकार से कैसा करना चाहिये और कैसे विचार मन में आने देने चाहिये और कैसे विचार नहीं आने देने चाहिये, इन सब प्रश्नों पर बुद्धिजीवी चाहे वह यूरोप के हों, भारत के हों या अन्य किसी भी देश के हों, सबको वेदों, वैदिक ग्रन्थों और महर्षि दयानन्द के साहित्य की सहायता से सही जीवन-यापन की नीति व रीति का निर्णय करना चाहिये अन्यथा भावी जीवन में पछताने के स्थान पर कुछ न मिलेगा। एक क्षण भी व्यर्थ गवांना अतीव हानिकारक है। जो व्यक्ति अपनी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति करना चाहता है, उसे आज और अभी गोमांस सहित सभी प्रकार का मांसाहार छोड़ देना चाहिये। गाय और अन्य सभी प्राणर जिनमें सभी पशु व पक्षी सम्मिलित है, उनके प्रति दया, करूणा व प्रेम की दृष्टि रखनी ही उचित है।

जब हम यूरोप आदि विश्व के अन्य देशों में गोमांस भक्षण पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि कुछ शताब्दियों पहले वहां भोजन व अन्य सभी विषयों में अधिक ज्ञान नहीं था। उन्हें यह ज्ञान नहीं था कि क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य? वहां के धर्मग्रन्थों में मांसाहार के संकेत मिलते हैं जो धर्मग्रन्थ लिखे जाते समय व उससे पूर्व की स्थिति को प्रदर्शित करते हैं। ज्ञान व विवेक की कमी के कारण वहां मांसाहार हुआ करता था और वह किसी भी पशु में भेद नही करते थे। उन्होंने पालतू पशुओं गाय व बकरी आदि पशुओं से ही मांसाहार का आरम्भ सुदुर अतीत में किया। अविद्या व अज्ञान के कारण ही ऐसा हुआ करता है। आज तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी मांसाहार को उचित नहीं मानता। यदि किसी को उच्च रक्त चाप या हृदय रोग आदि है, तो चिकित्सक उसे मांसाहार व तले हुए पदार्थ खाने से मना करते हैं। बाल व युवावस्था में किया गया मांसाहार ही इन रोगों की उत्पत्ति में सहायक होता है। यदि हम पूर्ण रूप से शाकाहारी जीवन व्यतीत करें, अपने विचारों को शुद्ध रखें तथा ईश्वर में आस्था रखते हुए प्राणायाम व पैदल चलने की आदत डालें तो रोग या तो हों ही न और हों भी तो कम से कम जैसा भारत में वैदिक काल में होता था। उन दिनों महाभारत काल में हमारे यहां 150 वर्ष से ऊपर की आयु के लोग स्वस्थ ही नहीं रहते थे अपितु युद्ध भूमि में पराक्रम भी दिखाते थे। किसी भी चीज का संस्कार पड़ जाने पर उसे छोड़ने में कठिनाई होती है। इसके लिए उस विषय का संशय रहित निभ्रान्त ज्ञान होने के साथ दृढ़ इच्छाशक्ति का होना अति आवश्यक है। ऐसा होने पर ही संस्कार दोष छूटना सम्भव होता है। अपनी संगति को भी सुधारना चाहिये। बुरे विचारों वाले व्यक्तियों, दूषित व अभक्ष्य पदार्थों का भोजन करने वाले व्यक्तियों की संगति नहीं करनी चाहिये। यदि करेंगे तो यह दोष छूटना अति दुष्कर है। महर्षि दयानन्द ने ‘गोकरूणानिधि’ नामक एक लघु पुस्तिका लिखी है जो गागर में सागर के समान है। प्रत्येक व्यक्ति को यह पुस्तक बार-बार और अवश्य पढ़नी चाहिये। इस पुस्तक में महर्षि दयानन्द ने गणित से गणना करके सिद्ध किया है कि एक गाय की एक पीढ़ी से एक समय में दूध व अन्न से 4,10,440 चार लाख दस हजार चार सौ चालीस लोगों के एक बार का भोजन होता है। हमने अपनी ओर से कुछ गणना की तो पाया कि एक स्वस्थ मनुष्य के लिए एक गाय की एक पीढ़ी से प्राप्त होने वाला भोजन 562 वर्षों के लिए र्प्याप्त है जबकि उसकी आयु तो 60 से 90 वर्ष की ही होती है। (गणना = 4,10,440/2/365 = 562.25 वर्ष)। महर्षि दयानन्द द्वारा की गई यह अनुसंधानपूर्ण वैज्ञानिक गणना सम्भवतः इतिहास में इससे पूर्व किसी अन्य पुरूष ने नहीं की। वह इस विवरण को देकर आगे लिखते हैं कि ‘‘अब छह गाय की पीढ़ी-पर-पीढ़ियों का हिसाब लगाकर देखा जावे तो असंख्य मनुष्यों का पालन हो सकता है और इसके मांस से अनुमान है कि केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। देखो ! तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यो नहीं?’’  इस विवरण के बाद महर्षि दयानन्द ने भैंस, ऊंटनी तथा बकरी से मिलने वाले दूध आदि पदार्थों का उल्लेख कर उससे मनुष्यों को होने वाले लाभ का विवरण दिया है। इन पशुओं की रक्षा से देश की आर्थिक स्थिति सुदृण व सशक्त होती है। महर्षि दयानन्द अन्य प्राणियों की रक्षा पर भी प्रकाश डालते हुए गोकरूणानिधि पुस्तक में लिखते हैं- ‘‘जैसे ऊंट-ऊंटनी से लाभ होते हैं, वैसे ही घोड़े-घोड़ी और हाथी आदि से अधिक कार्य सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार सुअर, कुत्ता, मुर्गा, मुर्गी और मोर आदि पक्षियों से भी उपकार लेना चाहें तो ले सकते हैं, परन्तु सबकी रक्षा उत्तरोत्तर समयानुकूल होवेगी। वर्तमान में परमोपकारक गौ की रक्षा में मुख्य तात्पर्य है। दो ही प्रकार से मनुष्य आदि का प्राणरक्षण, जीवन, सुख, विद्या, बल और पुरूषार्थ आदि की वृद्धि होती है–एक अन्नपान, दूसरा आच्छादन । इनमें से प्रथम के बिना तो सर्वथा प्रलय और दूसरे के बिना अनेक पकार की पीड़ा प्राप्त होती है।’’

महर्षि दयानन्द के आगामी शब्द तो प्रत्येक देशवासी को बार-बार पढ़ने चाहिये–‘‘देखिए, जो पशु निःसार घास-तृण पत्ते, फल-फूल आदि खावें और दूध आदि अमृतरूपी रत्न देवें, हल-गाड़ी आदि में चलके अनेकविध अन्न आदि उत्पन्न कर, सबके बुद्धि, बल, पराक्र्रम को बढ़ाके नीरोगता करें, पुत्र-पुत्ऱी और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहां बांधे वहीं बंधे रहें, जिधर चलावें उधर चलें, जहां से हटावें वहां से हट जावें, देखने और बुलाने पर समीप चले आवें, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारने वाले को देखें, अपनी रक्षा के लिए पालन करनेवाले के समीप दौड़़कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिसके मरे पर चमड़ा भी कण्टक आदि से रक्षा करे, जंगल में चरके अपने बच्चे और स्वामी के लिए दूध देने के नियत स्थान पर नियत समय पर चलें आवें, अपने स्वामी की रक्षा के लिए तन-मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्य के सुख के लिए है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब संसार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती, अनुपकारक, दुःख देनेवाले और पापी मनुष्य होंगे?’’ एक स्थान पर स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि ‘गो आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा दोनों का नाश होता है।’ हमें इस चेतावनी में सच्चाई दिखाई देती है।  स्वामी दयानन्द की यह पंक्तियां स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं। हम समझते हैं कि कोई बुद्धिशील, ज्ञानी व विवेकी व्यक्ति यदि इन पंक्तियों को पढ़ ले तो वह जीवन में मांसाहार नहीं कर सकता।

मनुष्य गोमांस व अन्य पशु-पक्षियों के मांस का सेवन अपनी अज्ञानता, बुद्धिहीनता, मूर्खता व अविवेकशीलता आदि कारणों से करता है। उसका ध्यान कभी इन बातों पर गया ही नहीं कि जिसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक गोकरूणानिधि में करते हुए कहा है कि–‘‘सर्वशक्तिमान जगदीश्वर ने इस सृष्टि में जो-जो पदार्थ बनाये हैं, वे-वे निष्प्रयोजन नहीं, किन्तु एक-एक वस्तु अनेक-अनेक प्रयोजन के लिए रचा है, इसलिए उनसे वही प्रयोजन लेना न्याय है, अन्यथा अन्याय। देखिए, जिस लिए नेत्र बनाया है, इससे वही कार्य लेना उचित होता है, न कि उससे पूर्ण प्रयोजन न लेकर बीच ही में नष्ट कर दिया जावे। क्या जिन-जिन प्रयोजनों के लिए परमात्मा ने जे-जो पदार्थ बनाये हैं, उन-उनसे वे-वे प्रयोजन न लेकर उनको प्रथम ही नष्ट कर देना सत्पुरूषों के विचार में बुरा कर्म नहीं है? पक्षपात छोड़कर देखिए, गाय आदि पशु और कृषि आदि कर्मों से सब संसार को असंख्य सुख प्राप्त होते हैं वा नहीं? जैसे दो और दो चार, वैसे ही सत्यविद्या से जो जो विषय जाने जाते हैं, वे अन्यथा कभी नहीं हो सकते।’’

स्वामी दयानन्द द्वारा अपनी इसी पुस्तक की भूमिका में हृदय को प्रभावित करने वाले कहे शब्दों का उल्लेख पाठकों के हितार्थ करना आवश्यक समझते हैं जिसमें वह कहते हैं–‘‘वे धर्मात्मा, विद्वान लोग धन्य हैं, जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव, अभिप्राय, सृष्टि-क्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण और आप्तों के आचार से अविरूद्ध चलके सब संसार को सुख पहुंचाते हैं और शोक है उन पर जो कि इनसे विरूद्ध स्वार्थी, दयाहीन होकर जगत् की हानि करने के लिए वर्त्तमान हैं। पूजनीय जन वो हैं जो अपनी हानि हो तो भी सबका हित करने में अपना तन, मन, धन सब-कुछ लगाते हैं और तिरस्करणीय वे हैं जो अपने ही लाभ में सन्तुष्ट रहकर अन्य के सुखों का नाश करते हैं। सृष्टि में ऐसा कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख और सुख को अनुभव न करे? जब सबको लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तब विना अपराध किसी प्राणी का प्राण-वियोग करके अपना पोषण करना सत्पुरूषों के सामने निन्द्य कर्म क्यों न होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों की आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि पशुओं का विनाश न करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रिया की सि़िद्ध से युक्त होकर सब मनुष्य आनन्द में रहें।’’ अपनी मृत्यु से पूर्व स्वामी दयानन्द ने गोरक्षा का एक अभियान चलाकर गोरक्षा के पक्ष व गोहत्या के विरूद्ध ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के नाम पत्र लिख कर उस के समर्थन में देश के राजा-महाराजाओं से लेकर सामान्य व्यक्ति तक करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराये और उन्हें इंग्लैण्ड की पार्लियामेन्ट को भेजा। इससे पूर्व की उसका कोई परिणाम निकलता और वह काई और बड़ा आन्दोलन करते, 30 अक्तूबर, 1883 ई. को उनकी मृत्यु हो गई। इंग्लैण्ड की सरकार ने उनके उस देशहित व मानवता का पोषण करने वाले परिश्रम को निर्दयतापूर्वक रद्दी की टोकरी में ही नहीं डाला दिया अपितु इसके विपरीत कार्य किया। इससे ब्रिटिश सरकार की रीति व नीति का पता चलता है।

गोरक्षा पर उपलब्ध साहित्य में स्वामी दयानन्द की पुस्तक ‘‘गोकरूणानिधि’’ के अतिरिक्त इनके अनुयायी पं. प्रकाशवीर शास्त्री द्वारा लिखित ‘गोहत्या या राष्ट्रहत्या’ पुस्तक भी पठनीय है। स्वामी ओमानन्द ने ‘‘गोदुग्ध अमृत है’’ नाम से एक उपयोगी व जानकारियों से भरपूर महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है।  स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने ‘‘गो की गुहार’’ नाम से गोकरूणानिधि पर भाष्य व टीका लिखी है। स्वाध्याय करते हुए हमने मेहता जैमिनी की ‘‘गऊ भारत माता की प्राण दाता’’ पुस्तक का विवरण पढ़ा जिसके विषय में आर्य जगत के विख्यात विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है कि ‘‘हमने गऊ  माता पुस्तक पर एक विहंगम दृष्टि डालकर देखा है कि लगभग एक सौ पृष्ठों की इस पुस्तक में 50 से ऊपर पुस्तकांे को उद्धृत किया गया है। वेद, उपनिषद् आदि के प्रमाण इनके अतिरिक्त हैं। इसी प्रकार देश विदेश के 50 से ऊपर डाक्टरों, वैज्ञानिकों, विद्वानों व साहित्यकारों के नाम इसमें प्रमाण स्वरूप दिये हैं। आंकड़े इतने दिये हैं कि हम गिन ही नहीं पाये। इससे हमारे पाठक पुस्तक के लेखक श्री मेहता जैमिनी के पाण्डित्य की कुछ कल्पना कर सकते हैं।’’ हम समझते हैं कि भारत की उन्नति के लिए गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने के साथ गोसंवर्धन पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। तभी भारत पूर्ण उन्नत होकर ज्ञान-विज्ञान व जीवन में सुख-शान्ति प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगा।

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