कविता

दादाजी

मुझे अपने पुत्र से इतना प्रेम नहीं
जितना अपने पोते से है
ऐसा मेरे दादाजी कहते थे

माँगते थे वो किसी से कुछ नहीं कभी
देकर सर्वस्व सबको
स्वयं अभावों में जीते थे

यदा-कदा पिताजी की जिन बातों पर
नाराज़ होते थे दादाजी
मेरी उन्हीं बातों पर मुस्कुराते थे

दादाजी की हर बात सच हो जाती थी
क्योंकि हर बात दादाजी
अपने तजुर्बे से कहते थे

जब तक जीवित थीं पितामही मेरी
तक़रीबन हर बात पर
उनसे दादाजी बहस करते थे

अपनी भार्या के गुज़र जाने के बाद
अपने अश्रुओं को दादाजी
केवल अंतर्मन में बहाते थे

परिवार बनता है सामंजस्य और स्नेह से
दादाजी बहुत प्यार से
यह बात सबको समझाते थे

तय कर लिया दादाजी ने ज़िंदगी का सफ़र
अब रुलाती हैं उनकी यादें
दादाजी कभी नहीं रुलाते थे

✍️ आलोक कौशिक