प्रेम के पुंज -गुरु अर्जुन देव जी

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arjun dev( गुरुता गद्दी दिवस)

परमजीत  कौर कलेर

 

तेरा कीआ मीठा लागै…हरि नाम पदारथ नानक मांगे…गुरबाणी के इन शब्द को सुनकर आपने अंदाजा लगा लिया होगा कि हम ईश्वर की रज़ा की बात कर रहे हैं…आपने बिल्कुल सही अंदाजा लगाया…ईश्वर की मर्जी के में गुरू का प्यारा ही रह सकता है…जो उसके हुक्म को सिर आंखों पर स्वीकार करता है । सिखों के पांचवें गुरू अर्जुन देव जी ने तो इसकी मिसाल पेश की और हमेशा रहे गुरु की रज़ा में।शांति के प्रतीक , धीरज , उपकार की मूरत , शहीदों के सरताज , जी हां हम बात कर रहें हैं सिखों के पांचवे गुरु….गुरु अर्जुन देव जी की…जिनका आज है गुरूता गद्दी दिवस यानि इसी दिन गुरु साहिब जी ने गुरु गद्दी संभाली थी …मानवता से प्यार करने वाले शांति के प्रतीक गुरु अर्जुन देव जी का बचपन कैसे बीता आईए इस पर प्रकाश डालते हैं। गुरु अर्जुन देव जी का बचपन गुरु संगत के बीच गुजरा …इस संगत का असर उनके जीवन पर काफी गहरा पड़ा…गुरु और संगत के कारण आप में सेवा सिमरन एक दूसरे का सम्मान करने, प्रेम , उपकार , दयालु स्वभाव जो विरासत में मिला वो और फला-फूला…सिखों के पांचवें गुरु…..गुरु अर्जुन देव जी का जन्म  वैशाख के महीने में संवत 1563 ईश्वी मे अमृतसर के गोइंदवाल साहिब में हुआ था…आपका जन्म सिखों के चौथे गुरू रामदास और माता बीबी भानी जी के घर में हुआ था…आपका पूरा परिवार ही गुरू घर से जुड़ा हुआ था …इसलिए बचपन से ही आपका झुकाव भक्ति की तरफ रहा…तीसरे गुरू अमरदास जी आपके नाना जी थे…गुरबाणी के प्रति इनकी रूचि इस कद्र थी कि उन्हें दोहता -बाणी का बोहिथा यानि कि नाती – वाणी का जहाज से नवाजा ..सिख धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था…और गुरु अर्जुन देव जी ने इसी समय गुरु ग्रंथ साहिब की स्थापना की… गुरु अर्जुन देव जी का विवाह सन् 1579 में फिलौर के कृष्ण चन्द जी की पुत्री गंगा देवी से हुआ…मगर शादी के पांच साल बाद भी जब उनका आंगन गुलज़ार नहीं हुआ …गुरु तो ज्ञानी होते हैं…उन्होंने अपनी पत्नी गंगा देवी को  बाबा बुढ्डा जी का आशीर्वाद लेने की सलाह दी…और उनका आशीर्वाद लेने के बाद… गुरु अर्जुन देव जी के घर गुरु हरगोबिन्द जी का जन्म हुआ….

गुरु रामदास जी के तीन बेटे थे पृथ्वीचंद और महादेव बड़े थे ….जबकि गुरु अर्जुन देव जी सबसे छोटे थे …अर्जुन देव जी निस्वार्थ भाव से गुरु घर की सेवा करते थे… लेकिन इनके बड़े भाई प्रिथीचंद का स्वभाव थोड़ा अलग था…वो गुरु घर की माया को अपने हाथ में लेना चाहते थे और उनकी ख्वाहिश थी कि उनके पिता गुरु रामदास जी उन्हें ही गुरुगद्दी सौंपे…मगर गुरु रामदास जी जो कि सब कुछ जानते थे वो समझ गए प्रिथी चंद इस गद्दी को संभालने के काबिल नहीं हैं….जबकि उनके छोटे पुत्र हमेशा अपने पिता के हुक्म का पालना करने वाले आज्ञाकारी पुत्र थे…गुरु रामदास जी ने अपने पुत्र की धार्मिक भावना को अच्छी तरह  समझ लिया था…गुरु अर्जुन देव जी हमेशा गुरू घर की संगत और सेवा किया करते थे….एक बार जब गुरु रामदास जी ने लाहौर में अपने चाचा के पुत्र की शादी में जाने के लिए कहा  तो पृथ्वीचंद ने गुरु घर से दूर जाने से इंकार कर दिया…जबकि महादेव जी ने ये कहकर इंकार कर दिया कि वो शोर शराबे में नहीं जा सकते …जब गुरु रामदास जी ने शादी में जाने के लिए गुरू अर्जुन देव जी से पूछा तो वो बिना इंकार किए उनके साथ चलने को तैयार हो गए…साथ ही गुरु साहिब ने अर्जुन देव जी को हुक्म दिया कि जब तक मैं न बुलाऊ…तब तक वहीं रहना…दरअसल वो तो गुरु अर्जुन देव जी की परीक्षा लेना चाहते थे…उधर गुरु पिता और साधु संगत की विरह में गुरु अर्जुन देव जी ने 2 चिट्ठीयां भी लिखीं…मगर ये दोनों  चिट्ठीयां ही गुरु रामदास जी को नहीं मिली…तीसरी चिट्ठी देते समय गुरु अर्जुन देव जी ने कहा कि ये चिट्ठी मेरे पिता गुरु रामदास जी के हाथों में देना…असल में प्रिथी चंद चाहते थे कि मैं ही गुरू गद्दी का वारिस बनूं….इसलिए उसने ये चिट्ठीया नहीं दिखाई…इसके बाद गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जुन देव जी को गुरु गद्दी सौंपने का फैसला कर लिया ।

उसके दर पर सभी बराबर हैं न कोई हिन्दू है न कोई सिख और ना कोई  मुस्लिम…इसकी मिसाल है हरमंदिर साहिब …हरमंदिर साहिब जी की नींव का पत्थर गुरू के प्यारे सूफी संत मीयां मीर ने 1588 में रखा था…जिसमें पूरी साध संगत ने दिन रात एक करके …दिलों जां से हरमंदिर साहिब की  सेवा की…इसका नाम अमृत सरोवर है बाद में इस शहर का नाम अमृतसर पड़ गया…गुरु साहिब ने सिख धर्म प्रचार के लिए कई कार्य किए…गोबिन्दपुर नगर, तरनतारन और करतारपुर की स्थापना की…गरीबों के लिए आपने कई अस्पताल खोले…तरनतातरन में तो उन्होंने  कुष्ठ रोगियों के लिए अस्पताल बनवाया।साध संगत को पानी की कोई दिक्कत पेश न आए …इसके लिए कई कुएं खुदवाए गए….यही नहीं गुरु अर्जुन देव जी ने लाहौर में तो एक बावली बनवाई…इसके अलावा गुरु का बाग और रामसर सरोवर का निर्माण करवाया… हर व्यक्ति को अपनी कमाई का दसवां हिस्सा गुरु घर के लिए निकालना चाहिए…जिसे दसवंद प्रथा कहा जाता है…दसवंद प्रथा गुरु अर्जुन देव जी ने ही शुरू की थी…इतिहास इस बात का गवाह है कि जब एक बार लाहौर में अकाल पड़ा …इलाके में बीमारी फैल गई….जिससे बाजारों और गलियों में लाशों के ढेर बिछ गए…तो गुरु अर्जुन देव जी से नहीं रहा गया तो वो पूरी साध संगत के साथ लाहौर पहुंचे और तकरीबन 8 महीने बीमार लोगों की सेवा की…जब इसकी खबर अकबर के पास पहुंची तो वो तुरंत अपनी सेना समेत लाहौर पहुंचा…वो अपने गुरु की सेवा भावना से इतना प्रभावित हुआ …कि गुरु अर्जुन देव जी जब लाहौर से गोइंदवाल और अकबर जब लाहौर से आगरा जाने के लिए चले तो वो गुरु साहिब के चेहरे का नूर देखकर दंग रह गया…उनके मुख से मीठी वाणी सुनकर वो बहुत ही खुश हुआ…यही नहीं गुरु अर्जुन देव जी के कहने पर अकबर ने किसानों के टैक्स को माफ कर दिया…गुरु अर्जुन देव जी ने  1599 में पहले पांच गुरुओं की गुरबाणी को इक्ट्ठा किया और सारी बाणी इक्ट्ठी करके भाई गुरदास जी को दी और गुरबाणी के संपादना का काम सौंपा….आखिरकार चार साल की कड़ी मेहनत के बाद 1604 ई. में आदि ग्रंथ का काम पूरा हुआ…यही नहीं आदि ग्रंथ का प्रकाश हरिमंदिर साहिब में किया गया…जिसके पहले ग्रंथी बाबा बुड्ढा जी थे…जिसमें चारों गुरुओं, संतो महात्मों की वाणी थी…

जून का महीना क्या आता है  गर्मी की तपिश हद को पार कर जाती है….मगर इस तपिश भरे महीने में मुगलों ने पांचवी पातशाही पर जो जुल्म ढाए …जो भी उनकी शहादत को याद करता है…मात्र याद करने से ही उनकी रूह कांप उठती है …मगर शांति के पुंज गुरु अर्जुन देव जी के मुख से ऊफ तक न निकली । जब गुरु अर्जुन देव जी ने गुर गद्दी संभाली…तब सिख धर्म का प्रचार बड़ी तेजी से हो रहा था…इस दौरान उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन किया…मगर मुगलों को ये बर्दाश्त नहीं था …इसी कारण पांचवें गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी हुई…जब पांचवे पातशाह साहिब श्री गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु गद्दी संभाली …तब मुगल शासक जहांगीर का शासन था…वो इतना निर्दयी था….कि उसे अपने धर्म के अलावा कोई और धर्म गंवारा ही नहीं था …गुरु जी के धार्मिक विचार उसे फूटी आंख नहीं सुहाते थे…

इतिहासकार मानते हैं कि शहजादा खुसरों को शरण देने के कारण जहांगीर गुरु जी से बेहद नाराज था…जहांगीर के गुस्से की अग्नि ऐसी भड़की  कि उसने गुरु जी को परिवार समेत पकड़ने का फरमान जारी कर दिया…तुजके-जहांगीरी के अनुसार उनका परिवार मुर्तजाखान के हवाले कर दिया गया…और उसने सारा घर बाहर लूट लिया…मगर इतने जुल्म ढाने के बाद भी गुरु जी शांत रहे…उनका मन कभी भी आने वाली मुसीबतों से घबराया नहीं …बल्कि वो रहे अकाल पुरख के हुक्म में…शहजादा खुसरों …जब वे बगावत करने के लिए लाहौर जा रहा था तो जाहिर सी बात है कि वो गुरु अर्जुन देव जी को मिलने के लिए रुका था…यहीं पर गुरु जी ने खुसरो को शरण दी थी …इसी के विरोध में जहांगीर ने खुसरों के संपर्क में आने वाले सभी लोगों को गिरफ्तार कर लिया…जालिम जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव जी को भी नहीं बख्शा …चन्दू जैसे चुगलखोर और कुछ ब्राह्मण जो गुरु जी से नफरत करते थे…उन्होंने झूठी खबर फैलाकर गुरु जी पर मुकदमा चलवा दिया..गुरु अर्जुन देव जी जो कि सब कुछ जानते थे उन्होंने पहले गुरु हरगोबिन्द जी को गुरु गद्दी सौंप दी…29 मई को गुरु जी को जान से मारने का हुक्म जारी हुआ…जहांगीर ने गुरु अर्जुन देव जी को धर्म परिवर्तन करने को कहा मगर गुरु जी ने इस्लाम धर्म कबूल करने से मना कर दिया….पहले तो जालिमों ने गुरु जी को ऊबलते पानी …फिर उन्हें गर्म तवे के ऊपर बिठाया…मगर इससे भी जालिमों का दिल नहीं भरा तो उन पर गर्म रेत डाली गई…उनके ऊपर होते जुल्मों को देखकर साईं मीयां मीर गुस्से से भर उठे…और कहा कि अगर आप चाहते हैं तो मैं इनसे टक्कर लेने के लिए तैयार हूं।दया और त्याग की मूर्त गुरु अर्जुन देव जी अगर चाहते  तो कुछ भी कर सकते थे…मगर गुरुजी ना तो करामात दिखाते हैं और ना ही उन्हें  ऐसा करने का हुक्म होता है…वो तो रहते है हमेशा परमात्मा की रजा में

जहागीर ने अपनी पुस्तक तुजके-जहांगीरी में जिक्र किया है कि…उसने यह प्रण ले  रखा था कि वो गुरु नानक देव जी की गुरु गद्दी को खत्म करके ही दम लेगा…क्योंकि सिख धर्म का प्रभाव मुस्लिम समाज पर पड़ रहा था….इसके विरोध में गुरु साहिब को अमृतसर से पकड़ लिया गया और चन्दू ने निजी बदले की भावना से प्रेरित होकर मुगलों की मदद की ….गुरु साहिब को गर्म तवे और फिर उन पर गर्म रेत डाली गई…मगर गुरु अर्जुन देव जी प्रभू भक्ति में लीन रहे और उनकी जुबान से एक भी शब्द नहीं निकला..वो तो हमेशा रहे उस अकाल पुरख की रज़ा में…दो दिन लगातार  जुल्म होते रहे और जुल्म की इंतहा तो तब हो गई जब जालिमों ने इन्हें रावी नदी में बैठने को कहा…और इस नदी में बह गए… इस तरह वो मुगलों का  जुल्म सहते  रहे लेकिन पलट कर ना तो जवाब दिया और ना ही कुछ कहा…और अंत मे  30 मई 1606 में शहीद हो गए…मानो वो अपने ऊपर होते जुल्मों को देखकर कह रहें हों…वो बड़े ही शान्त ह्रदय , त्याग की मूर्ति और दयालु थे…जब इन पर जुल्म ढाए जा रहे थे तो उन्होंने खुशी खुशी इस दर्द को सहा ….वो लीन रहे परमात्मा के सिमरन में…प्रभू की भक्ति में लीन   मानों उन्हें ये रेत ठंडी लग रही हो…पंचम पातशाह उस आसमान की तरह है जो हमें शांति, आपस में भाईचारे, मीठी वाणी, प्रेम, प्यार और शीतलता का अहसास कराते हैं…परमात्मा सुख दे या दुख दें उसकी रज़ा में रहे…दुख आने पर घबराएं नहीं बल्कि इन दुखों को खुशी खुशी सहन करें ….इसी को तो जीवन कहते हैं…आज जरूरत है गुरु अर्जुन देव जी की शिक्षाओं पर चलने की।

 

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