प्रधानमंत्री का बेअसर बयान..

manmohan-singhसरकार रोजगार सृजन को अर्थव्यवस्था की मुख्य चालक शक्ति बनाए..

 

जिन्होंने भी शुक्रवार लोकसभा में दिया गया प्रधानमंत्री का देश की वर्तमान आर्थिक हालातों पर बयान सुना, वे निश्चित रूप से निराश ही हुए। ऐसा नहीं है की उन्होंने कुछ भी ऐसा न कहा हो, जो आज की परिस्थितियों की मांग न हो। उनका यह आश्वासन कि देश में बुनियादी आर्थिक हालात आज भी बेहतर हैं और अच्छा मानसून न केवल हालातों में सुधार लाएगा, बल्कि आने वाले चार माह में मंहगाई पर भी नियंत्रण होगा, सही परिस्थति का ही हवाला है।भारत में अच्छा मानसून हमेशा ही सभी सरकारों के लिए ईश्वर के वरदान के रूप में काम करते आया है। उसके बाद भी उनके बयान से निराशा ही हुई है। सरकार के विरोध में खड़े राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं को यदि कुछ समय के लिए इसलिए दरकिनार भी कर दिया जाए की वे विरोध में हैं और उनसे कोई सकारात्मक प्रतिक्रया की आशा करना व्यर्थ है, स्वयं प्रधानमंत्री के अन्दर उस विश्वास की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई दी, जो देश वासियों को उत्साहित करता। प्रधानमंत्री के द्वारा कही गयी दोनों बातें आम जनता के उस हिस्से को प्रभावित करने में पूर्णत: असफल रहीं, जो उनसे राजस्व घाटे, चालू खाते के घाटे और जीडीपी की शब्दावली से आगे कुछ ईमानदार बातें सुनना और जानना चाहते थे।

उनके पूरे बयान के लब्बोलुआब में दो बातें अहं थीं। पहली कि तमाम अवरोधों मसलन घरेलु और विदेशी निवेशकों के बिदकने, वैश्विक वित्तीय स्थिति में आई आर्थिक गिरावट, सीरिया में युद्ध का संकट और घर में रुपये के मूल्य में डालर की तुलना में आ रही गिरावट, के बावजूद राजस्व घाटे को नियंत्रित रखने में वो कामयाब होंगे और चालू वित्तीय वर्ष में जीडीपी 5.5% रहेगी। दूसरी बात, इसके लिए उन्होंने देशवासियों से अपील की कि वे जो गरीबी रेखा से उपर हैं, सबसीडी में कमी के लिए तैयार रहें। देशवासी पेट्रोल और डीजल के उपयोग में कमी लायें| वित्तमंत्री चिदंबरम की तर्ज पर उन्होंने भी लोगों से सोने का मोह छोड़ने और उसे न खरीदने की अपील की।

प्रधानमंत्री के बयान के दूसरे हिस्से ने मुझे लाल बहादुर शास्त्री की याद दिला दी, जिन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए लोगों से एक समय का भोजन छोड़ने की अपील की थी। पर, पिछले दो दशकों में उदारवाद के रास्ते पर चलते हुए देश की लोकतांत्रिक सरकारें लोकतंत्र के ‘लोक’ से इतनी दूर हो गईं हैं कि यदि मनमोहनसिंह ने यह अपील पूरी निष्ठा और शिद्दत के साथ भी की होती, तो भी लोगों को यह छलावा और एक बार फिर वंचितों और गरीबों के  त्याग पर देश के देश के कारपोरेट और संपन्न तबके को फ़ायदा पहुंचाने की कवायद के अलावा कुछ और नहीं लगती।

इस सचाई के बावजूद कि डीजल और पेट्रोल के भाव बढ़ने पर, बाजार में वस्तुओं का मूल्य बढ़ता है और उसका सीधा दुष्प्रभाव गरीब तबके पर पड़ता है, मनमोहनसिंह ये क्यों भूल रहे हैं कि ये वही हैं, जिन्होंने निजीकरण की मुहीम चला कर देश के अधिकाँश हिस्से में चलने वाले सार्वजनिक परिवहन का नाश कर दिया है और अब यह जहां भी है, निजी हाथों में है और कतई सस्ता नहीं है। जहां तक , उस तबके की बात है, जो व्यक्तिगत पेट्रोल और डीजल का प्रयोग करता है, उस तबके को इसके दाम कितने भी बढ़ने पर कोई फर्क नहीं पड़ता और मनमोहनसिंह की अपीलों पर वो हंसता है। देश में सोना भी यही तबका खरीदता है।

प्रधानमंत्री जिस ‘ग्रोथ’ के 5.5% प्राप्त करने की बात कर रहे हैं, उससे देश के आमजनों का कुछ लेना देना नहीं है। उस ग्रोथ की मुख्य चालक शक्ति विदेशी उधार, उड़नछू विदेशी निवेश है, जिसने अनेक बार देश की अर्थव्यवस्था को झटके दिए हैं। उनकी सरकार के पूरे प्रयास किस तरह विदेशी निवेश को आकर्षित किया जाए और घरेलु निवेश को बाहर जाने से रोककर देश में निवेश कराया जाए, इस पर टिके हैं। जबकि देश के आमजनों के हित इसमें हैं कि सरकार कृषि और उससे जुडी गतिविधियों में सरकारी निवेश करे, छोटे गैर कृषि ईकाइयों को वित्तीय सहायता, कम दरों पर ऋण उपलब्ध कराये, और रोजगार सृजन को अर्थव्यवस्था की मुख्य चालक शक्ति बनाए। देश के 30 करोड़ के मध्यवर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसी स्थिति में है, जो मंहगाई की मार को झेल नहीं पा रहा है और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सार्वभौम बनाए जाने पर तुरंत उसके साथ जुड़ेगा, इससे बाजार में मंहगाई पर अंकुश लगाने में बहुत बड़ी मदद मिलेगी। इसी तरह एक अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा लोगों के जीवन स्तर को ही नहीं उपर उठायेगी, स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी कारपोरेटों और चिकित्सकों द्वारा की जा रही लूटखसोट पर भी अंकुश लगायेगी। आम आदमी तथा सरकार और उसके पिठ्ठू अर्थशास्त्रियों, जिनके एक पाँव वर्ल्डबैंक या आईएमऍफ़ में रहता है और दूसरा पाँव भारत सरकार में, की सोच के बीच का यह अंतर प्रधानमंत्री के बयान में स्पष्ट झलकता है। यही कारण है की उनकी बात का कोई असर देश के आमलोगों पर नहीं होता है।

अरुण कान्त शुक्ला,

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