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गुरु द्रोणाचार्य: सत्य तथ्य और मिथक

—विनय कुमार विनायक
द्रोणाचार्य आदिकाल से प्रेरणा स्रोत रहे संतान मोहग्रस्त,
अति धन संग्रही, अवांछित दक्षिणा जीवी, वित्त संपोषित,
सरकारी मगर निजी कोचिंग सेंटर चलानेवाले गुरुओं के!

द्रोणाचार्य से शिक्षण कार्य गुरु का ज्ञान दान कम रहा,
बल्कि चतुर बनिया सा धनार्जन का व्यवसाय हो गया!

द्वापर युगीन द्रोण, आयुध निर्माता व शर संधानी गुरु
भरद्वाज पुत्र, भरद्वाज आश्रम से अपने मित्र सहपाठी
राजपुत्र द्रुपद संग अध्ययनकर निकले सद्यस्नातक थे!

ऋषि भरद्वाज पुत्र द्रोण को पिता के निजी गुरुकुल को
पिता के साथ या बाद संभालने में तनिक रुचि नहीं थी
जबकि भरद्वाज निर्धन ब्राह्मण नहीं जहाज विज्ञानी थे!

द्रोण की आकांक्षा थी राज्याश्रित वित्तपोषित गुरु होने की,
उनका पाणिग्रहण हो चुका था कुरुराज शांतनु कृपा प्राप्त
राजपुरोहित गुरु कृपाचार्य की जुड़वां बहन कृपी गौतमी से,
जिससे उन्हें अश्वत्थामा नामक एक सुन्दर पुत्र हुआ था!

किंवदंती है कि द्रोण को अपने दुधमुंहे पुत्र अश्वत्थामा के
दुग्धपान हेतु पितृआश्रम छोड़कर निजी गोधन चाहिए था
और गोधन भूधन वित्त आश्रय की चाहत में द्रोण चल पड़े
अपने सहपाठी द्रुपद का पांचाल राज्य, जहां मित्र राजा थे!

द्रोण ने मित्र द्रुपद से पूर्व वायदे के अनुसार भोग वैभव भूमि
राज्याश्रय वित्तपोषण की याचना की जिससे द्रुपद मुकर गए!

‘अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा।
त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे।।
मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च।‘ (आदिपर्व महा.)

यानि द्रुपद ने द्रोण को वचन दिया जब राज्याभिषेक होगा,
तब से मेरा राज भोग वित्त वैभव सुख तुम्हारे अधीन होगा!

तबसे द्रोणाचार्य ने मन में द्रुपद के साथ खुन्नस पाली थी
वचन भंग विप्र अपमान का बदला लेने हेतु जटा खोल दी!

कहते हैं द्रोण अपने समय के सबसे बड़े पुत्र मोहग्रस्त इंसान थे,
जिन्होंने स्वयं से श्रेष्ठतर धनुर्धर बनाना चाहा अपनी संतान को
जो पराजित कर अपमान का बदला ले सके मित्र राजा द्रुपद से,
मगर शीघ्र परख में आ गया कि वो माद्दा नहीं अश्वत्थामा में!

फिर तो द्रोणाचार्य ने लक्ष्य बदल लिया और तलाश आरंभ की,
ऐसे तेजस्वी शिष्य की जो द्रुपद के संपूर्ण राज्य को जीत सके,
गुरुपुत्र को राजा बनाने हेतु विजित राज्य गुरु दक्षिणा में दे दे!

द्रोणाचार्य की तलाश मिटी सहस्रार्जुन हैहय क्षत्रियकुल की शौरि कन्या
पृथापुत्र अर्जुन नाम का एक ऐसा शिष्य मिला था जिसमें थी संभावना
द्रुपद सहित समस्त राज समाज के महारथियों को पराजित करने की,
अपने स्वनाम धन्य महान पूर्वज सहस्रबाहु अर्जुन सा दोनों भुजाओं से
सारे अस्त्र शस्त्र चलाने की,सबसे श्रेष्ठ युद्धवीर धनुर्धर बन जाने की!

अपने पुत्र अश्वत्थामा को राजपद दिलाने के लिए
द्रोणाचार्य ने पार्थ के प्रतिस्पर्धी एक वनवासी छात्र
एकलव्य से शस्त्र विद्या का ज्ञान दान बिना किए,
गुरु दक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा कटवा लिए,
सूतपुत्र नाम से ख्यात कर्ण को धनुर्विद्या नहीं दिए!

मगर द्रुपदजेता पार्थ की गुरुदक्षिणा से अश्वत्थामा का
राजा द्रुपद के आधे साम्राज्य का राजा बन जाने पर भी
द्रोण के मन में धन प्राप्ति हेतु मिटी नहीं थी कूटनीति
और गुरुपद को बनाए रखने की लालसा भी नहीं मिटी!

जिस गांडीवधारी अर्जुन ने उनके अक्षम पुत्र अश्वत्थामा को
राजपद दिलाया था उस अर्जुन को द्रोणाचार्य ने अपने सामने
भाईयों समेत राजपद विहीन होते देखा गहन चुप्पी साध के!

द्रोणाचार्य एक घाघ गुरु थे अपने अयोग्य पुत्र अश्वत्थामा
और इस्तेमाल करने योग्य शिष्य अर्जुन के सिवा युधिष्ठिर
दुर्योधन व अन्य शिष्यों को ब्रह्मास्त्र ज्ञान नहीं दिए थे!

हस्तिनापुर के कूटनीतिज्ञ गुरु द्रोणाचार्य की मंशा थी
जो हस्तिनापुर व इन्द्रप्रस्थ के राजा होगे उस पक्ष का
सेनापति बनके दूसरे पक्ष के युवराज या महाराजा को
रण में युद्धबंदी बनाकर महाभारत समर जीत लेने की!

कुरु राज्य के दुर्भाग्य से जन्मांध राजा धृतराष्ट्र पुत्र
दुष्ट दुर्योधन युवराज बने पर द्रोण सत्ता से रहे चिपके
आशा थी उनके पुत्र पर अर्जुन कृत उपकार के बदले
गुरु द्रोण पाण्डव शत्रु दुर्योधन के पक्ष से नहीं लड़ेंगे!

दुर्योधन की हर दुर्भिसंधी दुष्कर्म में द्रोण शामिल हुए
पूरे मनोयोग सहयोग मंत्रणा या कभी मूक दर्शक होके,
पुत्री समान मित्र द्रुपद की कन्या, शिष्य की परिणीता,
कौरव कुल की वधू, इन्द्रप्रस्थ की महारानी द्रौपदी का
भरी सभा में दुर्योधन दुशासन द्वारा चीरहरण होते देखे!

गुरु द्रोण ने सुनियोजित तरीके से युवराज युधिष्ठिर को
सत्यवादी होने की कोरी शिक्षा दी थी, केवल द्यूत क्रीड़ा,
भाला फेंक, तलवारबाजी सिखलाई, ब्रह्मास्त्र संधान नहीं!

द्रोण ने भीम को अस्त्र शस्त्र का संपूर्ण ज्ञान नहीं दिया,
भीम ने गदा युद्ध अपने ममेरे भ्राता बलराम से सीखा,
दुर्योधन को भी गदायुद्ध सीखने से वंचित नहीं किया,
भीम माता पृथा चाहती तो भीम को जहर खिलानेवाले
दुर्योधन को गदायुद्ध सिखाने से बलभद्र को रोक देती!

महाबली हलधर बलराम की भी भलमनसाहत थी ऐसी
कि दोनों शिष्यों के बीच महाभारत रण में बुआपुत्रों की
तरफदारी नहीं की और शस्त्र से नहीं लड़े थे कृष्ण भी!

लेकिन गुरु द्रोणाचार्य ने अपने कौरव सेनापतित्व में
दुर्योधन के पक्ष से अर्ध धनुर्धर सत्यवादी युधिष्ठिर,
महा बलशाली भीम, सुदर्शन अश्व चिकित्सक नकुल,
गोपालन ज्ञानी सहदेव को तीरंदाजी में परास्त किया!

इतना भर ही नहीं द्रोणाचार्य ने प्रिय शिष्य अर्जुन के
नाबालिग पुत्र अभिमन्यु को अर्जुन की अनुपस्थिति में
छः महारथियों के चक्रव्यूह के घेरे में अधमरा होते देखे,
अंततः अर्जुन के अग्रज कर्ण के हाथ से गला कटवा दी!

अभिमन्यु वध के पश्चात द्रोण ने अपने मित्र विराट और
द्रुपद का पुत्र पौत्र सहित वधकर अगली पीढ़ी भी मिटा दी
सिर्फ बचे द्रुपदपुत्र धृष्टिधुम्न और किन्नर संतति शिखंडी
फिर भी द्रोण की जिजीविषा व महत्वाकांक्षा मिटी नहीं थी!

वो तो गुरु द्रोणाचार्य की सत्यंब्रूयात प्रियंब्रूयात की
युधिष्ठिर को सिखाई गई मनुस्मृति ज्ञान प्रवृत्ति को
कृष्ण परामर्श से भीम के द्वारा दबा नहीं दी जाती,
तो अपने नराधम शापित पुत्र अश्वत्थामा के समान
अजातशत्रु द्रोण भी पुत्र सहित अजर अमर हो जाते!

फिर भी पूर्वाग्रही गुरु द्रोणाचार्य ने क्या कम किए?
पुत्र और शिष्यों में भेदभाव करके सभी राजपुत्रों को
अलग अलग, टुकड़े टुकड़े में ज्ञान की घुट्टी पिलाई!

द्रोण अपने पुत्र को बड़े मुख का जलपात्र देते थे जबकि
शिष्यों को क्षीणमुखी सुराही देते नदी से जल भरने को,
ताकि अश्वत्थामा अतिशीघ्र आश्रम आके अधिक पढ़ ले,
मगर अर्जुन कहां पीछे रहने वाले थे वरुणास्त्र से सुराही
शीघ्र भरकर के अश्वत्थामा से पहले आश्रम आ जाते थे!

द्रोणाचार्य के ऐसे ब्रह्मास्त्र ज्ञानी अनुसंधानी पुत्र अश्वत्थामा ने
युद्धांत में कायर की भांति पाण्डवपुत्रों औ’ पिता सदृश द्रुपद के
एकमात्र जीवित पुत्र धृष्टद्युम्न की रात्रि में सोते में गला रेत दी
मामा कृपाचार्य संग उत्तरा के गर्भस्थ भ्रूण पर ब्रह्मास्त्र चलाए!

युद्ध समाप्ति पर कौरव पक्ष में रहा नहीं कोई
वीरगति प्राप्त लाशों पर रोने वाला लड़ाकू योद्धा,
सिर्फ तीन जीवित बचे जिसमें एक दुर्योधन को
कृष्ण प्रदत्त नारायणी सेना के सेनापति थे कृतवर्मा!

बाकी दो अवध्य ब्राह्मण मामा भांजे
एक कृपाचार्य दूजा द्रोणपुत्र अश्वत्थामा,
जो अजर अमर मिथकीय इतिहास के
प्रथम मानव भ्रूण हत्यारा कहलाने लगे!

गुरु द्रोण क्षत्रियहंता ब्राह्मणवादी परशुराम के ऐसे शिष्य थे,
जो परशुराम से याचना करने गए थे विजित भूमि दान लेने,
उन्हें इच्छा थी ब्राह्मण राज्य स्थापना की,जो पूर्ण नहीं हुई,
परशुराम विजित सारी धरती चारो वर्णों के गोत्र पिता महर्षि
कश्यप ने ली और परशुराम को निर्वासित किए धरातल से!

‘भरद्वाजात् समुत्पन्नं तथा त्वं मामयोनिजम्
आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजर्षभ।‘ (आदिपर्व महा.)
परशुराम से द्रोण ने कहा ‘द्विजश्रेष्ठ मैं महर्षि भरद्वाज से
उत्पन्न उनका अयोनिज पुत्र द्रोण आया हूं मैं धन कामना से!

अगर वित्त लोलुप राजगुरु द्रोणाचार्य युद्ध जीतकर जीवित रहते
तो अपने पुत्र को पांचाल सहित संपूर्ण इन्द्रप्रस्थ औ’ हस्तिनापुर
राज्य प्राप्ति हेतु अर्जुन का दाहिना अंगूठा दक्षिणा में कटा लेते
और गुरुभक्त अर्जुन वो सब करते जो जो गुरु द्रोण उन्हें कहते!

लेकिन महाभारत के परिणाम में कुछ भी नहीं अंतर होता
क्योंकि मध्यम पाण्डव अर्जुन बामहस्त, सव्यसाची भी थे,
परशुराम द्वारा अतिरिक्त एक हजार वरदानी हाथों को
कटवाने वाले, सहस्रबाहु अर्जुन के दो बचे भुजाओं में से
कमजोर बाई भुजा से भी सारे हथियार चलाने की शक्ति
विरासत में लेकर जन्मे सव्यसाची अजानबाहु अर्जुन थे
कि वीर प्रसूता भारत माता क्षत्रिय विहीन कभी नहीं हुई!

कोई वर्णवादी जातिवादी गुरु कितना भी तिकड़म कर ले,
दो के अतिरिक्त हजार भुजाओं का वरदान देकर काट दे,
या दाहिना अंगूठा कटाए या अंगूठाछाप क्यों ना बना दे!

अर्जुन के बेटे गर्भ से ज्ञान लेकर आते
गुरुकुल में समय नहीं बिताते, यौवन की प्रतीक्षा नहीं करते
सदा सत्यमेव जयते कहते
अन्याय के विरुद्ध युद्ध जीतते या बाल्यकाल में शहीद होते!

हर युग में अर्जुन जन्म लेते रहे
कभी सुदर्शन चक्रावतार कार्तवीर्य अर्जुन
“मम चक्रावतारो हि कार्तवीर्यो धरातले” (ब्रह्माण्ड पुराण)
जो भार्गव परशुराम के ब्राह्मणवाद से
इक्कीस बार लड़ चुके थे, पुत्र पौत्र सहित कट मर चुके थे!

कभी नरावतार अर्जुन जो गुरुज्ञान नहीं
नारायणावतार कृष्ण की गीता सुनकर महाभारत रण जीते थे!

कभी पंचमगुरु अर्जुनदेव जो जहांगीर के
गर्म तवे पर जलने के पहले गुरुग्रंथ साहिब संपादित कर चुके थे!

कभी अर्जुनसिंह सोंधी जो शहीदेआजम
भगतसिंह इन्कलाबी के पितामह बनने के गौरव प्राप्त कर चुके थे!

कि अर्जुन होते गुरु बिना ज्ञान के गर्भ से ज्ञान देकर
अभिमन्यु जैसे गुरु हरगोबिन्द, गुरु हरराय, गुरु हर किशन,
गुरु तेग बहादुर, गुरु गोविंद सिंह, फतेह, जुझार, जोरावर
अजीत चार साहिबजादे व भगतसिंह जैसे वीर संतति पैदा करते!

आज भी गली मुहल्ले में
ढेर सरकारी द्रोणाचार्य कोचिंग सेंटर खोल कर बैठे
सरकारी वेतन के बावजूद मोटी गुरुदक्षिणा कमाते
जो गरीब मां पिता मनोनुकूल निर्धारित फीस राशि
गुरुदक्षिणा में नहीं दे पाते बाद में पछताते छटपटाते!

ये सरकारी गुरु द्रोणाचार्य आज सिर्फ अंगूठा नहीं कटाते,
बल्कि वांछित फीस नहीं भरने पर अंगूठा छाप बना देते
वैसे कोई गुरु किसी शिष्य की सफलता का श्रेय लेने का
अधिकारी नहीं जो गुरु द्रोण सा सरकारी वेतन पाकर भी
शिष्य के गरीब पिता से मोटी रकम दक्षिणा में वसूलते!

बाबा तुलसीदास ने ठीक ही लिखा है
‘हरहि शिष्य धन शोक न हरहि ते गुरु महा नरक ते परहि’!
—विनय कुमार विनायक

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