मीडिया वर्चस्व का विभ्रम और यथार्थ

यह मीडिया वर्चस्व का युग है। सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक वर्चस्व का यह मूलाधार है। मीडिया हमारे जीवन की धड़कन है। मीडिया के बिना कोई भी विमर्श, अनुष्ठान, कार्यक्रम, संदेश, सृजन, संघर्ष, अन्तर्विरोध फीका लगता है। हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया इस समाज की नाभि है। जहां अमृत छिपा है।

आज आपको किसी विचार,व्यक्ति, राजनीति, संस्कृति, मूल्य,संस्कार आदि को परास्त करना है या बदलना है तो मीडिया के बिना यह कार्य संभव नहीं है। मीडिया सिर्फ संचार नहीं है। वह सर्जक भी है। वह सिर्फ उपकरण या माध्यम नहीं है। बल्कि परिवर्तन का अस्त्र भी है।

मीडिया के प्रति पूजाभाव,अनुकरणभाव,अनालोचनात्मक भाव अथवा इसके ऊपर नियंत्रण और अधिकारभाव इसकी भूमिका को संकुचित कर देता है। मीडिया को हमें मीडिया के रूप में देखना होगा। पेशेवर नियमों और पेशेवराना रवैयये के साथ रिश्ता बनाना होगा।मीडिया को नियंत्रण, गुलामी, अनुकरण पसंद नहीं है। मीडिया नियमों से बंधा नहीं है।

जो लोग इसे नियमों में बांधना चाहते हैं, राज्य और निजी स्वामित्व के हितों के तहत बंदी बनाकर रखना चाहते हैं। उन्हें अंतत: निराशा ही हाथ लगेगी।मजेदार बात यह है कि प्रत्येक जनमाध्यम की अपनी निजी विशेषताएं होती हैं।किंतु कुछ कॉमन तत्व भी हैं।

मीडिया को आजादी, पेशेवर रवैयया,जनतंत्र,अभिव्यक्ति की आजादी, सृजन की आजादी पसंद है। मीडिया स्वभावत: साधारणजन या दरिद्र नारायण की सेवा में मजा लेता है। वही इसका लक्ष्य है। लेकिन मुश्किल यह है कि मीडिया के पास राज्य से लेकर बहुराष्ट्रीय निगमों तक जो भी जाता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए जाता है। हमारी मुश्किल यहीं से शुरू होती है और हम मीडिया को गरियाने लगते हैं। उसके प्रति, उसकी सामाजिक भूमिका के प्रति निहित स्वार्थी दृष्टिकोण से रचे जा रहे उसके स्वरूप को ही असली स्वरूप मान लेते हैं।

मीडिया किसी का सगा नहीं है। वह अपना विलोम स्वयं बनाता है। वह जो चाहता है वह कर नहीं पाता। जो नहीं चाहता वह हो जाता है। मीडिया क्या कर सकता है? यह कोई व्यक्ति, व्यक्तियों का समूह, राजनीतिक दल, राज्य अथवा कारपोरेट हाउस तय नहीं कर सकता। कुछ क्षण, दिन, महीना या साल तक यह भ्रम हो सकता है कि मीडिया वही कर रहा है जो मालिक करा रहे हैं। सच्चाई किंतु इसके एकदम विपरीत होती है।मीडिया जो दिखाता है वह सच है और सच नहीं भी है।जो नहीं दिखाता वह उससे भी बड़ा सच होता है। इसे हम अदृश्य सत्य कह सकते हैं।मीडिया में दृश्य सत्य से बड़ा अदृश्य सत्य होता है। यही वह बिन्दु हैं जहां मीडिया अनजाने अपना विलोम रच रहा है। मीडिया का विलोम मीडिया में कभी नहीं आता। इसीलिए हमें मीडिया के बारे में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से सोचना होगा। हमने समाज, साहित्य, संस्कृति, राजनीति, दर्शन, अर्थनीति आदि सभी क्षेत्रों में द्वंद्वात्मक भौतिकवादी नजरिए से विचार किया है। किंतु मीडिया के क्षेत्र में इस नजरिए की कभी जरूरत ही महसूस नहीं की। मीडिया की सृष्टि अस्थायी होती है।उसका सृजन चंचल होता है। प्रत्येक मीडिया का अपना स्वतंत्र चरित्र है।उसकी निजी माध्यमगत विशेषताएं हैं। मीडिया के मूल्यांकन के समय,उसकी अंतर्वस्तु के मूल्यांकन के समय माध्यमगत विशेषताओं और विधागत विशेषताओं को प्राथमिक तौर पर सामने रखना चाहिए।

भारत में माध्यम मूल्यांकन शैशव अवस्था में है। यह सिर्फ पेशेवर चंद माध्यम विशेषज्ञों और विज्ञापन एजेंसियों की सीमा में कैद है। हमें माध्यम पढ़ने का हुनर विकसित करना होगा। इसके लिए माध्यम साक्षरता को हमें सामान्य शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना होगा। सभी किस्म के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रशिक्षण का हिस्सा बनाना होगा। अभी इन सभी क्षेत्रों का माध्यमों की समझदारी पूर्ण भूमिका के साथ कोई रिश्ता नहीं है।

मीडिया स्वभावत: वैश्विक है। मीडिया के जो रूप एक बार जन्म ले लेते हैं। व्यवहार में आ जाते हैं। ठोस भौतिक शक्ति बन जाते हैं। वे खत्म नहीं होते। अप्रासंगिक नहीं होते।मीडिया के विभिन्न रूपों में गहरा भाईचारा है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। वे साथ-साथ रहते हैं। इसलिए मीडिया के नए रूप के आने से भयभीत होने या अथवा यह कहने की जरूरत नहीं है कि नया मीडिया पुराने मीडिया को खत्म कर देगा। मीडिया तकनीकी में भी निरंतरता का तत्व होता है। तकनीकी परंपरा को आत्मसात् करके ही नया मीडिया जन्म लेता है।यदि किसी वजह है किसी मीडिया तकनीकी का पूर्ववर्ती मीडिया से स्वतंत्र रूप में विकास हो जाता है तो नई मीडिया तकनीकी पुराने मीडिया तकनीकी रूपों को अपग्रेड करती है। मीडिया वस्तुत: मनुष्य की तरह ही है वह अपनी परंपरा को भूलता नहीं है।उसे ठुकराता नहीं है। बल्कि उसे आत्मसात् करता है। बदलता है। उसमें नया जोड़ता है। निरंतरता बनाए रखता है। मीडिया में भी परंपरा और निरंतरता का तत्व सक्रिय रहता है। मीडिया को लेकर सशंकित होने, भयभीत होने, घृणा करने या अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। मीडिया मनुष्य का बंधु है। उसके साथ मित्रता की शर्त है आलोचनात्मक रवैयया। आलोचनात्मक दृष्टिकोण से मीडिया पर बातें की जाएं तब ही मीडिया सुनता है। बदलता है।

भक्तिभाव, घृणा, नियंत्रण या गुलाम मानसिकता से इसे बदल नहीं बना सकते। मीडिया ने अब तक के सभी नियमों और कानूनों को तोड़ा है। यह कार्य वह रोज करता है। उसे स्वतंत्रता से प्यार है। यह छद्म स्वतंत्रता नहीं है। यह वर्गीय स्वतंत्रता भी नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इसे विश्लेषित करने के लिए केटेगरी बनाकर बात शुरू की जा सकती है किंतु यह केटेगरी की सीमाओं से मुक्त होता है। यही वजह है कि वह सबका है। यह है भी और नहीं है।इसके सामाजिक प्रभाव के बारे में दावे के साथ कुछ भी कहना संभव नहीं है। यह मानवता का शत्रु नहीं है। बल्कि मित्र है। मीडिया की खूबी है कि उसके तकनीकी रूपों में अन्तर्विरोध नहीं होते।यही वजह है कि उसमें कनवर्जन के युग में पहुँच गए हैं।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

2 COMMENTS

  1. आप गलत कह रहे हैं मीडिया स्वतंत्र नहीं है. एक संपादक जो की आपका घनिष्ट मित्र हो उससे यह बात पूछ के देखें की वो अपना काम करने के लिए कितना स्वतंत्र है? यही हाल पत्रकार, संवाददाताओं का है, उन्हें अपने मालिको के कहे अनुसार काम करना होता है, जो की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कभी कभी बेच देते हैं या किराये पर दे देते हैं. मीडिया पैसे के आगे नतमस्तक है. और अपने मूल स्वरुप को खो चूका है. अब मीडिया की ख़बरों पर कोई भरोसा नहीं करता.

Leave a Reply to dev Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here