विनोद उपाध्याय
बात 1978 की है जब लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) केटी सतारावला को जबलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्ति किया गया था तब उन्होंने कहा था कि मध्यप्रदेश के किसी विश्वविद्यालय में उपकुलपति बनने से बेहतर है किसी होटल का मैनेजर बनना। सतारावला ने यह बात किस नजरिए से कही थी यह तो वही जाने लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पीयूष त्रिवेदी एवं वहां के अन्य प्रशासनिक पदों पर आसिन लोगों की योग्यता कुछ यही दर्शा रही है। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्रा कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक और उपकुलसचिव प्रशासन एवं अन्य पदाधिकारी अपात्र होते हुए भी इन पदों पर आसीन है। ऐसे में यहां सरकारी कायदे- कानून को ताक पर रखकर शैक्षणिक गतिविधियों की जगह मनमानी की पाठशाला चलाई जा रही है। कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी राजभवन और राज्य सरकार से बिना अनुमति लिए ही पदों का सृजन कर उन पर अपने चहेतों को बिठा रहे हैं। ऐसा भी नहीं की विश्वविद्यालय में व्याप्त इस भर्राशाही की खबर राजभवन और तकनीकी शिक्षा विभाग को नहीं है लेकिन शासन मौन तो देखे कौन की तर्ज पर यहां सब कुछ चल रहा है। इस मामले को लेकर राष्ट्रीय छात्र संघ ने भी राज्यपाल के यहां आपत्ति दर्ज कराई है और विश्वविद्यालय परिसर में प्रदर्शन भी किया था।
उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सशक्त भारत का सपना देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री ने जो सपना देखा था उसे साकार करते हुए प्रदेश में तकनीकी शिक्षा युक्त मानव संसाधन की बदलती आवश्यकताओं को देखते हुए राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना मध्यप्रदेश विधानसभा एक्ट 13 के तहत 1998 में भोपाल में की गई। विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि शिक्षा एवं शिक्षा संसाधन की गुणवत्ता में वृद्धि हो, कंसलटेंसी, सतत शिक्षा, शोध एवं विकास गतिविधियों के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाए,इंडस्ट्री के साथ परस्पर लाभ हेतु मजबूत संबंध बने, छात्रों में स्वरोजगार की भावना का विकास किया जाए और भूतपूर्व छात्रों में सतत् संपर्क एवं उनके प्रायोजित विकास प्रोग्राम बनाया जाए लेकिन विश्वविद्यालय में छात्रों का भविष्य तय करने वाले ही जब अपात्र हैं तो राजीव गांधी का सपना कैसे सकार होगा यह शोध का विषय है।
बात करते हैं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी की। विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति (गवर्नर) द्वारा राज्य सरकार के बिना हस्तक्षेप के की जाती है। धारा 12 (1) विश्वविद्यालय की उपधारा (2) या (6) के अंतर्गत गठित समिति द्वारा तैयार तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात कम से कम तीन व्यक्तियों के पैनल में से किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति कुलपति के रूप में कुलाधिपति द्वारा की जाती है लेकिन तात्कालिक गवर्नर बलराम जाखड़ से अपने नजदीकी संबंधों और गवर्नर हाउस के कुछ अधिकारियों की मेहरबानी से प्रोफेसर त्रिवेदी कुलपति बनने में सफल रहे। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए प्रौद्योगिकी या तकनीकी क्षेत्र का प्रोफेसर होना चाहिए जबकि प्रो. त्रिवेदी फार्मेसी के प्राध्यापक है। अत: नियमों के तहत देखा जाए तो इनकी नियुक्ति पूर्णत: गलत है। वहीं विश्वविद्यालय के कुलसचिव (प्रभारी) एवं रजिस्ट्रार डॉ. एम.एस. भदौरिया भी गैर तकनीकी क्षेत्र से आते हैं। वे जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के रसायन शास्त्र के प्राध्यापक है।
अधिनियम के अनुसार इस विश्वविद्यालय में उपकुलसचिव की प्रतिनियुक्ति मई 2009 को समाप्त हो चुकी है लेकिन वे अभी भी विश्वविद्यालय के कुलसचिव पद पर आसीन है। नियम है कि कुलसचिव एवं अन्य काडर के अधिकारियों के पद म.प्र. विश्वविद्यालय अधिनिमय, 1973 (क्र. 22, 1973) द्वारा गठित राज्य विश्वविद्यालयीन सेवा के अधिकारियों द्वारा ही भरे जाएंगे। इनकी अनुपलब्धता की स्थिति में ये पद कुलाधिपति द्वारा प्रतिनियुक्ति पर अन्य योग्य अधिकारियों से भरे जाएंगे। विश्वविद्यालय में ढांचागत बदलाव करते हुए उपरोक्त अधिनियम में विश्वविद्यालयीन अधिकारियों के पद भरे जाने में उच्च तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारियों को प्राथमिकता दिए जाने संबंधी संशोधन किया गया। संशोधन 2003 की धारा 17 के अनुसार कुलसचिव एवं ऐसे अन्य काडर के अधिकारियों के पद मध्यप्रदेश राजपत्रित तकनीकी सेवा के अधिकारियों द्वारा भरे जाएंगे। इनकी अनुपलब्धता की स्थिति में ये पद कुलाधिपति द्वारा अन्य सेवा के योग्य अधिकारियों से प्रतिनियुक्ति से भरे जाएंगे, लेकिन इसका अनुपालन नहीं किया जा रहा है।
वर्तमान में कुलसचिव सहित अधिकांश अधिकारियों के पद (जैसे उपकुलसचिव एकेडेमिक, उपकुलसचिव प्रशासन, डीन छात्र कल्याण, आदि) ना शासन द्वारा ना ही राज्यपाल की अनुमति से भरे गये है वरन् कुलपति द्वारा नियम विरुद्ध अपने खास लोगों से भर दिये गये हैं। इतना ही नहीं उप कुलसचिव एकेडमिक जैसे महत्वपूर्ण पद पर मुकेश पांडे (यूआईटी) जो मध्यप्रदेश तकनीकी शिक्षा (राजपत्रित) सेवा के अधिकारी नहीं है गत 10 वर्षों से नियम विरुद्ध जमे हुये है। जबकि राजभवन द्वारा कुलपति पी.बी. शर्मा से विरुद्ध 2008 में जस्टिस चावला समिति की जांच में इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज की गयी थी। उल्लेखनीय हैै कि वर्ष 2003 में हुए संशोधन के अनुसार उप कुलसचिव शैक्षणिक व उप कुलसचिव प्रशासन शासन के खर्चें पर बनाए गए थे लेकिन विसंगति यह है कि पिछले 10 साल से उप कुलसचिव शैक्षणिक के पद पर कोई भी शासकीय अधिकारी तैनात नहीं किया गया है। आज ये पैसे के जोर पर इतने शक्तिशाली हो गये है कि इस पद पर इनके अवैध कब्जे को हटाना लगभग नामुमकिन हो गया है। सन् 2006 मई में तत्कालीन कुलपति ने इन्हें हटाकर नियमानुसार शासकीय अधिकारी की इस पद पर नियुक्ति की थी। परिणामस्वरूप 3 दिन के अंदर कुलपति बर्खास्त हो गये एवं मुकेश पांडे वापस नियम विरुद्ध उसी पद पर काबिज हो गये। तत्पश्चात अन्य किसी कुलपति या प्रशासनिक अधिकारी की हिम्मत इनको हटाने की नहीं हुई अलबत्ता कहा जा सकता है कि इनकी सेवाओं से उच्चाधिकारी इतने प्रसन्न रहते है कि नियम कानून की चिंता करना ही भूल जाते है।
ए आई एस टी की स्पष्ट नवीन गाइड लाइन में कॉलेजों की मान्यता के संबंध में आया है जिसके तहत कॉलेजों की प्रॉपर्टी मार्टगेज नहीं होना चाहिए श्री पांडे ने इस गाइड लाइन से कॉलेजों को मुक्त रखने के लिए प्रति कॉलेज 1 लाख रुपये की वसूली से लगभग 2 करोड़ रुपए एकत्रित किये है। ऐसा भोपाल के एक कॉलेज संचालक ने बताया और उक्त कॉलेज संचालक को किन्हीं अन्य मामलों में बहुत परेशानी में भी डाल दिया।विश्वविद्यालय के उप कुलसचिव (शैक्षणिक) मुकेश पाण्डे के खिलाफ सीबीआई में शिकायत की गई है शिकायत में उन पर नियम विरुद्ध पद पर बने रहने और आर्थिक अनियमितता करने के आरोप लगाए गए है। शिकायत की गंभीरता को देखते हुए सीबीआई ने राज्य सरकार से इस संदर्भ में 6 अक्टूबर 2010 को पत्रक्रमांक 0524/एमआईएससी.सी/ सीबीआई/ बीपीएल/2010 से जवाब मांगा है।
ऐसे ही विश्वविद्यालय के एक अन्य कुलसचिव प्रशासन आरके चिढार की नियुक्ति भी अवैध है। इसी प्रकार विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक डॉ. एके सिंह नोशनल प्रतिनियुक्ति पर यहां जमे हुए हैं जबकि उनका आदेश त्रुटि पूर्वक है। डॉ. सिंह रसायन शास्त्र के प्राध्यापक हैं। वहीं विश्वविद्यालय की अधिष्ठïाता छात्र कल्याण श्रीमती मंजू सिंह व्याख्याता रसायन भी अपात्र होते हुए वर्षों से इस पद पर जमी हुई हैं। धारा 19 (1) अधिष्ठाता, छात्र कल्याण की नियुक्ति कुलपति की अनुशंसा पर कार्यपरिषद द्वारा की जाती है। नियम यह है कि धारा (11) अधिष्ठाता, छात्र कल्याण की नियुक्ति उपधारा (1) के अंतर्गत पूर्णकालिक वेतन प्राप्त अधिकारी जो तकनीकी संवर्ग रीडर से निम्न पद का ना हो, जिसकी अनुशंसा कुलपति द्वारा की गई हो और उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए की जा सकती है। ऐसे शिक्षक को कार्यपरिषद द्वारा योग्य भत्ता भी आवंटित किया जा सकेगा।
यहीं नहीं प्रदेश में पहली बार किसी विश्वविद्यालय के कुलपति को सूचना देने से मना करने पर सूचना आयोग ने कारण बताओ नोटिस जारी किया है। 26.10.10 को मुख्य सूचना आयुक्त पीपी तिवारी ने अपीलकर्ता हरगोविंद गोस्वामी के मामले में आरजीपीवी के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी एवं लोक सूचना अधिकारी एएस चिढ़ार को फटकार लगाते हुए कहा कि आप पर क्यों न जुर्माना लगाया जाए।
नेक के डायरेक्टर प्रो. एच.आर. रंगनाथन कहते हैं कि कुलपति तो राज्यपाल और राज्य शासन के अधीन होता है, जबकि रजिस्ट्रार केवल राज्य शासन के। इससे विश्वविद्यालयों की स्वायतत्ता पर प्रश्नचिह्न् लगता है। यूनिवर्सिटी या कोई संस्थान शुरू करते समय ही उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। शुरू से ही सभी मापदंडों का पालन हो तो कभी कोई समस्या नहीं आएगी। पिछले पांच सालों के दौरान हुई कुलपतियों की नियुक्ति में एकेडमिक औचित्य का अभाव है।
शिक्षा के छेत्र में ऐसी मनमानी बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण है