सुख-दुख मुख्यतः हमारे जन्म-जन्मान्तर के कर्मों सहित देश-काल-परिस्थितियों से भी होते हैं

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य जीवन उभय योनि है। इस योनि में मनुष्य कर्म करता भी है पूर्व किये हुए कर्मों का फल भोगता भी है। कर्म पूर्व जन्म व इस जन्म दोनों के हो सकते हैं। हमारे जन्म का आधार हमारे पूर्वजन्मों के कर्म व प्रारब्ध ही होता है। प्रारब्ध के अनुसार ही हमें जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं। अपने प्रारब्ध को तो कोई मनुष्य बदल नहीं सकता परन्तु इस जन्म के कर्म, जब से हमें बोध हो जाये, हम अपने कर्मों में सुधार कर सकते हैं। यदि हमारे सभी कर्म हमारे कर्तव्यों के अनुरूप हों और कोई कर्म वेद विरुद्ध व मनुष्य की मर्यादा के विपरीत न हो, तो हम अनेक प्रकार के दुःखों से बच सकते हैं। सुख व दुःख का एक कारण हमें देश, काल व परिस्थितियां भी प्रतीत होता है। इन देश, काल व परिस्थितियों से हमें जो सुख व दुःख मिलते हैं, उनसे हम अपने विवेक का प्रयोग कर कुछ कुछ बच सकते हैं और अनेक परिस्थितियों में हम परतन्त्र रहते हैं, उनसें होने वाले दुःखों से बच नहीं सकते। एक व्यक्ति कहीं खड़ा है, वहां बम विस्फोट हो जाये और उससे वह घायल व मृत्यु को प्राप्त हो जाये, ऐसा यदि कहीं होता है तो यह मनुष्यों के प्रारब्ध वा कर्मों का फल न होकर देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित घटना होती है। ऐसे दुःखों से पृथक रहना मनुष्य के पूर्णतया वश में नहीं है। ऋषि दयानन्द को उनके विरोधियों ने विष दिया जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुए। यह भी देश-काल व परिस्थितियों के कारण हुई घटना का ही परिणाम था। ऐसे अनेक उदाहरण और भी हो सकते हैं। अतः मनुष्य को शुभ कर्म करने के साथ दूसरों से सावधान भी रहना है और प्रयत्न करना है कि वर्तमान या भविष्य में ऐसी परिस्थितियां न बने जिससे हमें व हमारी सन्ततियों को दुःख उठाना पड़े। प्रयास यही करना चाहिये कि हमारा व हमारी सन्ततियों का भविष्य उज्जवल व सुखमय हो, इसके लिए कार्य किया जाये।

 

मनुष्य को मनुष्य जन्म तब मिलता है जब उसके पूर्वजन्म में शुभ व अशुभ कर्म समान हों वा शुभ कर्म आधे से अधिक हों। जितने अधिक शुभ कर्म होंगे उतना ही अधिक अच्छा मनुष्य को परजन्म में परिवेश मिलता है, ऐसा अनुमान होता है। यह भी प्रश्न उठता है कि मनुष्य जन्म का उद्देश्य क्या है? इसका उत्तर शास्त्र देते हैं कि दुःखों से सर्वथा निवृत्ति और प्रारब्ध का भोग ही मनुष्य जन्म का कारण है। दुःखों की निवृत्ति के अनेक साधन व उपाय हैं। पहला उपाय तो सद्ज्ञान की प्राप्ति है। सद्ज्ञान मनुष्य को वेद व वैदिक साहित्य के अध्ययन, चिन्तन, मनन, उसके आचरण व अभ्यास से होता है। इसके लिए बाल्यकाल में वैदिक साहित्य के विद्वान, गुरु व शिक्षक की आवश्यकता होती है। यदि मनुष्य आर्यसमाज के सम्पर्क में आ जाता है और वहां विद्वानों के उपदेश सुनता है, सामूहिक सन्ध्या व यज्ञ आदि अनुष्ठानों में भाग लेता है, सत्यार्थप्रकाश, अन्य ऋषि ग्र्रन्थों व वैदिक साहित्य के अन्तर्गत उपनिषद, दर्शन व वेद भाष्य आदि का स्वाध्याय करता है तो इससे भी मनुष्य सत्य व उसके अर्थ को जान सकता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद कर्म का स्थान है। मनुष्य को वही कर्म करने चाहियें जिनका ऋषियों ने आर्ष ग्रन्थों में विधान किया है और जो पूर्णतया वेदानुकूल हैं। सभी कर्मों को करते हुए मनुष्य को परहित व परोपकार एवं सद्विचारों का दान अर्थात् प्रचार करना उचित है। मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों का निष्पादन बिना फल की इच्छा से करना चाहिये जिससे वह उसके फल की प्राप्ति में न फंसे अर्थात् लिप्त न हों। मनुष्य ईश्वरोपासना व यज्ञ आदि करे जिससे वह ईश्वर को प्राप्त हो सके। इसके लिए योगदर्शन का अध्ययन व अभ्यास करना उपयुक्त प्रतीत होता है। ऐसा करके मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य के निकट पहुंच सकता है और वह दुःखों से निवृत्त व मोक्ष के समीप होने से सुख व दुःख में समभाव रखता हुआ जीवन व्यतीत करता है। ऐसी स्थिति में भी यदि उसके साथ कुछ विपरीत हो जाये जिससे उसे शारीरिक कष्ट आदि प्राप्त हो तो महर्षि दयानन्द के जीवन में विष की घटना को ध्यान कर इसे शरीर का धर्म मानकर योग्य वैद्य से चिकित्सा व उपचार कराये और इस शारीरिक कष्ट को सहन करे। इस स्थिति में वह ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता रहे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय प्रतीत नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने भी अपने जीवन से यही उदाहरण हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया है। ऐसा करने पर मनुष्य का भविष्य ईश्वर की व्यवस्था से जीवात्मा की उन्नति व हित में ही होता है, यह विश्वास कर जीवन का शेष समय व्यतीत करना चाहिये।

 

जिस प्रकार रात्रि के बाद दिवस आता है उसी प्रकार दुःख भी स्थाई नहीं होते। कई दुःख उपचार आदि से ठीक हो जाते हैं और कुछ नहीं भी होते। यदि ठीक नहीं होंगे तो मृत्यु का होना सम्भव है। यह हमें किसी भी मनुष्य के लिए सबसे कठिन अवस्था प्रतीत होती है। यहां मनुष्य परतन्त्र होता है और उसे ईश्वर की व्यवस्था को ही स्वीकार करना होता है। मृत्यु तक तो दुःख होता देखा जाता है परन्तु मृत्यु अर्थात् शरीर छोड़ने के बाद जीवात्मा सुख व दुःख दोनों से दूर हो जाता है। अनुमान से कह सकते हैं कि उसके बाद उसका पुनर्जन्म वा मोक्ष होता है। मोक्ष तभी प्राप्त होता है जब मनुष्य सभी व अधिकांश अशुभ कर्मों के फलों का भोग कर लेता है। इसके साथ ही मोक्ष के लिए विवेक ज्ञान का उत्पन्न होना भी आवश्यक है जो कि समाधि अवस्था प्राप्त करने व उसमें ईश्वर साक्षात्कार हो जाने पर ही सम्भव होता है। यदि किसी मनुष्य को समाधि की अवस्था प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, तो यह सम्भव है कि उसका मोक्ष होगा। समाधि में ईश्वर साक्षात्कार होने पर ही मनुष्य को विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है। यह सब ईश्वर की व्यवस्था है। मनुष्य इसे शास्त्राध्ययन, विचार, चिन्तन व विवेक से ही कुछ कुछ जान सकता है। दुःख निवृत्ति वा मोक्ष शास्त्र ज्ञान के अनुरूप व तर्क आदि से सिद्ध होता है अतः इसकी प्राप्ति के लिए सभी सुधी जनों को प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि ऐसा करके हानि कुछ नहीं होनी है अपितु लाभ ही होगा।

 

हम जैसे साधारण मनुष्यों के लिए ऋषि ग्रन्थों सहित वेदों का स्वाध्याय एवं सन्ध्या एवं यज्ञ आदि कार्य करना उत्तम है। इससे और अधिक नहीं तो इस जन्म व परजन्म दोनों में हमारे सुधार व जीवन उन्नति की निश्चित सम्भावना है। हम सत्य को ग्रहण करें। विद्या की वृद्धि करें। दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझे तथा सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहें। इससे हमें लाभ होगा। परिस्थितियोंवश यदि हमें कोई दुःख मिलेगा, जो हमारे कर्मों के कारण नहीं है, तब भी उसे सहन करने से हमें लाभ होगा। ईश्वर हमारे उस भोग का प्रतिफल भी हमें प्रदान करेंगे। इसी के साथ हम इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

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