भारतीय अर्थव्यवस्था और उसके अंर्तद्वंद्व

दूलीचन्द रमन
1991 में भारत मे जब नई आर्थिक नीति अपनाई गई तो उसमें उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण महत्त्वपूर्ण बिन्दु थे। इन्ही के आधार पर उस समय की भारत की 84 करोड़ जनसंख्या के जीवन में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाने के उद्देश्य से तत्कालीन वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उस समय भुगतान संतुलन के गंभीर संकट से निकालने के लिए विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में अर्थव्यवस्था को लेकर कई संरचनात्मक बदलाव किये। विदेशी मुद्रा भंडार तथा निवेश के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिये गये। कई आरक्षित क्षेत्रों को भी निजी व निदेशी कंपनियों के लिए खोल दिया गया। नई आर्थिक नीति से ऐसा माना गया कि इससे उत्पादन और कुशलता दोनों बढ़ेगें। इसका लाभ भारत की जनता को मिलेगा।
आज इन आर्थिक सुधारों को एक चैथाई सदी पुर्ण हो चुकी है। इतने समय के बाद नई आर्थिक व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि वह अपने उद्देश्यों में कितनी सफल रही है। विदेशी मुद्रा भंडार वर्तमान में 400 अरब डालर तक पहँुच गया है। सकल घरेलू उत्पाद की दर सात प्रतिशत से अधिक है। भारतीय अर्थव्यस्था विश्व की सातवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है। शेयर बाजार 34 हजार के आकड़े को छू गया हें नोटबंदी के बाद आयकर दाताओं की संख्या में गुणात्मक बढ़ोतरी हुई है। जी.एस.टी. के बाद सरकार के राजस्व में उरोत्तर बढ़ोतरी हो रही है। यह इस तस्वीर का एक पक्ष हे।
पिछली दिनों कई अतंराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा आर्थिक स्थिति को लेकर ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिससे लगता है कि देश में नई आर्थिक-नीतियों के लागू होने के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इंटरनेशनल राईटस ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार देश में 2017 में जितनी संपत्ति बढ़ी उसका 73 प्रतिशत हिस्सा महज एक प्रतिशत अमीरों के पास पहुंचा। देश के एक प्रतिशत अमीरों की सम्पति में पिछले साल 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई तो 67 करोड़ भारतीयों की सम्पति 1 प्रतिशत बढ़ी।
इसी प्रकार दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच के दौरान समावेशी विकास सूचकांक में भी इसी आर्थिक गैर-बराबरी के चलते भारत पिछले साल से 2 अंक नीचे 62वें स्थान पर रहा। न्यू वल्र्ड वेल्थ 2017 की रिपोर्ट अनुसार भारत 523 लाख करोड़ की संपति के साथ दुनिया का छठा सबसे अमीर देश बन गया। कुल संपति से मतलब उस देश के रहने वाले सभी व्यक्तियों की निजी संपतियों में उनकी देनदारियों को घटाकर सभी सम्पत्तियाँ शामिल की जाती है। इसमें सरकारी संपत्ति की गणना नही की जाती। भारत में घोषित तौर पर 20,730 करोड़पति तथा 119 अरबपति है। इसी बीच ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2017 करप्शन इंडेक्स में भारत 183 देशों में 81वें स्थान पर है जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता।
बैंकों की एन.पी.ए. की स्थिति एक बढ़ता हुआ मर्ज है। भारतीय बैंकिग तंत्र की कमजोरी को इंगित करती एक रिपोर्ट ऐसोचैम-क्रिसिल ने भी जारी की है। जिसके अनुसार बैंकों का फसा कर्ज (एन.पी.ए.) मार्च 2018 के अंत तक 9.5 लाख करोड़ रुपये तक पहुंचने का अदेंशा है। जो भारतीय बैंकिंग तंत्र में बाटे गए कुल कर्ज का 10.5 प्रतिशत होगा।
1969 में जब बैंकों का निजीकरण किया गया तो इसके पीछे मंशा यह थी कि इसका लाभ देश के हर नागरिक को मिलगा लेकिन इतने वर्षो बाद भी बैंकिग-तंत्र इस उद्देश्य को पूरा नही कर पाया। प्रधानमंत्री मोदी ने जनधन खातो के माध्यम से करोड़ो लोगों को बैंकिग तंत्र से जोड़ने का काम किया जो प्रंशसनीय है लेकिन आम आदमी को आज भी नियम व शर्तो के नाम पर ऋण देने से मना कर दिया जाता है तथा बैंकों में दलालों का एक नेटवर्क काम कर रहा है जिसके माध्यम से रसूखदार व बड़े उद्योगपति करोड़ों के ऋण लेकर बैंकों को चूना लगा जाते है।
नोटबंदी के दौरान भी बैंको के कुछ कर्मचारियों व अधिकारियों ने बड़े पैमाने पर धालमेल किया था। उन पर भी कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए ताकि कानून का डर स्थापित किया जा सके। क्योंकि सारी अर्थव्यवस्था बैंकों पर आधारित है। नीरव मोदी व विजय माल्या जेसे उदाहरणों ने बैंकों की साख पर बट्टा लगाया है जो अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्व हो सकता है। बैंकिग क्षेत्र के मौजूदा घोटालों ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है कि क्या फिर से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिए। क्योंकि ज्यादातर एन.पी.ए. तथा घोटाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ही हो रहे है। इसके विपरित निजी बैंक एच.डी.एफ.सी. बहुत कम समय में ही ग्रोथ के मामले में सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों को पीछे छोड़ गया है। लेकिन भारत जैसे विविधताओं व ग्रामीण आबादी को देखते हुए निजीकरण सही रास्ता नही है अपितु सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर नियामक व नियंत्रक व्यवस्था तथा जवाबदेही का स्तर बढ़ाना होगा ताकि बैंकों की साख व अर्थव्यवस्था में आम-आदमी का विश्वास बना रहे। सरका भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वित्तिय स्थिति सुधारने के लिए निरन्तर अतिरिक्त पूंजी जारी करती रहती है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2008 से 2017 के बीच लगभग 1 लाख 19 हजार करोड़ रुपये की पूंजी सरकार द्वारा इन बैंकों की वित्तिय सेहत सुधारने के लिए डाली जा चुकी है। लेकिन इन बैंकों की अर्थव्यवस्था और अकुशलता का बोझ आम कर दाता कब तक सहेगा?
बैंकिंग सैक्टर की अप्रर्याप्तता का लाभ कुछ चिटफंड कंपनियाँ उठाती है। ऊँची ब्याज दर के झांसे में आम आदमी अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई, ऊँची पहुंच और राजनीतिक पृष्टभूमि के व्यक्तियों के प्रभाव में आकर गंवा बैठते है। सहारा ग्रुप और शारदा चिटफंड घोटाला अभी पुराना नहीं हुआ है।
कृषि क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। जिसका सफल घरेलू उत्पादन में 17.9 प्रतिशत योगदान है। भारत की कुल कार्यशक्ति का 47 प्रतिशत कृषि क्षेत्र में जुटा है और कुल आबादी की लगभग 61 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आश्रित है। यह क्षेत्र अभी भी विकास की दौड़ में पीछे है। सरकार द्वारा 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का वायदा तो किया गया है लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि विपणन की पर्याप्त सुविधाऐं न मिलने के कारण न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ भी केवल कुछ ही किसानों को मिल पाता है। वर्षो से फंड की सभी से कई सिचाई योजनायें लंबित पड़ी है। सरकार ने इस बजट में 22 हजार ग्रामीण हाट बनाने की महत्वकाक्षी योजना पर कार्य शुरू किया है। लेकिन अभी भी कृषि विशेषज्ञों की मदद से उपज का लागत मूल्य कम करना, फसल का लाभकारी मूल्य दिलाना, आय के अन्य वैकल्पिक स्त्रोंतो की तलाश जैसे कई कदम उठाये जाने बाकी है।
इतनी विड़बनाओं से भरी अर्थव्यवस्था चिरस्थायी नही हो सकती। समाज में बढ़ती गैर-बराबरी की खाई सामाजिक विचलन को जन्म देती है। भारत के लिए यह समय सचेत होने का है। कोई भी व्यवस्था अंतिम नहीं होती। समय समाज के साथ व्यवस्था में भी बदलाव लाने होगें। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था में समाज, सरकारों की क्या भूमिका हो सकती है। इस पर भी विचार करना होगा। केवल पश्चिमी दृष्टिकोण से ही चीज़ों को देखना मानसिक गुलामी का द्योतक है। हमें भविष्य में सर्व-समावेशी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने होगें जिससे ‘सबका साथ, सबका विकास’ संभव हो सकें।

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