रहम कीजिए हिंदी पर

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hindiभाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन अपितु किसी देश, किसी वर्ग का गौरव होती है। यही वह माध्यम है जिससे किसी से संपर्क साधा जा सकता है या किसी तक अपने विचारों को पहुंचाया जा सकता है। भारतवर्ष की प्रमुख भाषा हिंदी तो जैसे इस देश की पहचान ही बन गयी है। हिंदुस्तान से हिंदी का क्या नाता है यह किसी से छिपा नहीं है। भारतमाता के माथे की बिंदी है हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी। लेकिन आज अपने ही देश में यह उपेक्षित है। सरकार की ओर से हिंदी की श्री वृद्धि और इसके प्रचार-प्रसार के नाम पर हर साल हिंदी दिवस के दिन इसका सालाना श्राद्ध मनाया जाता है। लाखों रुपयों का बजट बनता है, जलसे होते हैं, कुछ कर्मचारियों को पुरस्कार बंटते हैं और हो जाता है हिंदी का विकास। इस तरह के आयोजनों में देखा गया है कि भाषण दिलवाने के लिए कभी किसी संपादक, पत्रकार क्या किसी हिंदी अधिकारी को बुला लिया जाता है। वह सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों की हिंदी में किये कार्य की `दक्षता’ का मूल्यांकन करता है और उन्हें पुरस्कार देकर हिंदी में काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है बस हो गया हिंदी दिवस और हिंदी के कल्याण का तथाकथित सरकारी प्रयास। इस तरह के हिंदी दिवसों और हिंदी के बारे में एक दिन चिंता जताने से कुछ होने वाला नहीं। हिंदी को इस तरह के सालाना श्राद्धों (सरकार इसे हिंदी दिवस कहती है) की नहीं श्रद्धा की जरूरत है। हिंदी को हृदय में रखिए, इसके प्रति अगाध श्रद्धा रखिए और यह प्रण कीजिए की भाषा हमारी मां है हम इसका असम्मान नहीं होने देंगे और इसे मरने नहीं देंगे बस हिंदी लोकप्रियता के शिखर पर होगी। इसके लिए किसी सरकारी बैसाखी की नहीं जनांदोलन और जन चेतना की जरूरत है। हिंदी आज इंटरनेट की बांह थाम विश्व स्तर पर अपनी धाक जमा चुकी है। भला हो यूनिकोड फांट का जिसने इस भाषा को सर्व ग्राह्य और सर्वसुलभ बना दिया है। जो ब्लागर हैं या ब्लाग प्रेमी हैं वे जानते हैं कि आज हिंदी में कितना अच्छा काम हो रहा है। सात समंदर पार तक हिंदी के ब्लाग, वेबसाइट्स काम कर रही हैं जो इस भाषा से संबंधित साहित्य व अन्य सामग्री हिंदी प्रेमियों तक पहुंचा रही हैं। साइबर क्रांति ने इसे विश्व भर में ख्यात कर दिया है। आज हिंदी दासी नहीं , वह विश्व पटल पर विराजती महारानी है। वह महारानी जिसका आंचल तुलसी, सूर. मीरा. रहीम, भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, निराला और ऐसे ही न जाने कितने साहित्य मनीषियों की साहित्य-साधना से समृद्ध है। वह किसी सरकार या किसी प्रशासन की मुंहताज नहीं। वह हर हिंदी प्रेमी के हृदय में बसती है और तब तक बसती रहेगी जब तक सू्र्य, चंद्र और इस सृष्टि का अस्तित्व है।

भाषा किसी जाति या देश के लिए क्या अर्थ और क्या प्रभाव रखती है इस पर हमारे साहित्य मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा-कहा है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने तो यहां तक लिखा था-जिसको न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं हैं पशु निरा और मृतक समान है। यहां `अभिमान’ शब्द को घमंड नहीं गर्व के अर्थ में देखना चाहिए। वाकई अगर हमें अपनी भाषा पर गर्व नहीं, उसके प्रति श्रद्धा नहीं तो फिर जीवन ही अकारथ है।

भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने तो और आगे बढ़ते हुए कहा था- निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल। वाकई अगर भाषा की प्रगति नहीं होगी तो निश्चित ही उस समाज या देश की उन्नति भी ठिठक जायेगी। हिंदी के प्रति प्यार का सीधा अर्थ है देश और समाज के प्रति प्यार लेकिन पता नहीं क्यों आज भी समाज का बड़ा तबका हिंदी को हिकारत की दृष्टि से देखता है और अंग्रेजी को सिर पर चढ़ाये बैठा है। उसका बेटा उसे पिताश्री कह दे तो वह उसका उपहास उड़ायेगा और अगर डैडी ( जो अब संक्षिप्त होकर डैड बन गया है। वैसे ही जैसे दादा डाडा बन गये हैं) कह कर बुलाये तो उसकी बांछें खिल जायेंगी जैसे पता नहीं कहां का सिंहासन मिल गया। मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने जो गजब ढाया है उसका ही दुष्परिणाम है की आज भी यह निश्चित धारणा बन गयी है कि अच्छी नौकरी पाना है तो अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाओ। बहुत हद तक यह धारणा सच भी है क्योंकि आज भी नौकरियों में अंग्रेजीदां तबके का ही बोलबाला और रौब है जो हिंदीवालों को हिकारत और उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। यह कटु सत्य है भले ही कोई इसे नकारे लेकिन यह आज का सच है और हिंदी और हिंदुस्तानियों के हित में यही अच्छा है कि यह जितना जल्द बदल जाये उतना ही बेहतर। मानाकि आज हिंदी के विद्वान भी समादृत और अच्छे स्थानों पर हैं लेकिन अगर औसत देखा जाये तो अंग्रेजों के जाने के बाद भी राष्ट्रभाषा हिंदीवाले देश हिंदुस्तान में आज भी अंग्रेजीदां राज करते हैं।

इसके लिए हिंदीभाषी कम दोषी नहीं जो बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण स्थानों में होने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ अपनी रोजी-रोटी तक ही सीमित हैं। वे सामर्थ्यवान हैं, ऐसे केंद्रों में हैं जहां से हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन करते नहीं यह सोच कर कि क्या हमने इसका ठेका ले रखा है। यों तो भारत सरकार हिंदी के विकास और संवर्धन के लिए अथक प्रयास कर रही है। करोड़ों रुपये राजभाषा की पारिभाषिक शब्दावली बनाने में सरकार ने खर्च किये, अपनी समझ में बड़ा काम किया लेकिन हिंदी का भला करने की बजाय उसके साथ वेवजह की छेड़छाड़ की। हिंदी के इन सरकार पोषित विद्वानों ने एक ऐसी हिंदी गढ़ दी जो लोगों को डराने लगी। साधारण से शब्दों के लिए लोगों को शब्दकोश झांकने की जरूरत पड़ने लगी। सरकार ने तो बाकायदे अपनी ओर से गढ़ायी गयी इस तथाकथित सरकारी हिंदी का शब्दकोश तक जारी कर दिया पारिभाषिक शब्दावली के नाम पर। भाई हमारी हिंदी इतनी बेचारी और लाचार तो नहीं कि इसके सरकारी प्रयोग के लिए नयी शब्दावली गढ़नी पड़े। इसके अपने प्रचलित शब्द क्या तकलीफ दे रहे थे जो यह तमाशा किया गया। साधारण सा जारी शब्द (माना कि यह उर्दू का है लेकिन हिंदी ने अपनी बहन उर्दू को कभी पराया नहीं समझा और गांधी जी ने भी उस हिंदी का समर्थन किया था जो सीधी-सादी और सर्व ग्राह्य हो) के लिए सरकार के इन विद्वानों ने भारी भरकम निर्गम शब्द रच डाला। आप किसी से पूछिए उसके लिए जारी ज्यादा आसान होगा या निर्गम मैं यकीन के साथ कहता हूं ज्यादातर लोग जारी के पक्ष में खड़े नजर आयेंगे। ऐसे ही अनेक शब्द हैं। इस तरह की हिंदी गढ़ने पर इससे जुड़े बड़े-बड़े हिंदी विद्वानों की तो पौ-बारह हुई लेकिन इससे हिंदी भाषा का क्या कल्याण हुआ। वह तो और भी कठिन हो गयी। अहिंदीभाषी क्षेत्रों के जो लोग पहले ही इससे बिदकते थे वे इससे और भी दूर होते गये। इस तरह गांधी जी का इसे आसान बनाने का प्रयास भी फीका पड़ता गया।

आज अगर हिंदी को आगे बढ़ाना है तो इसके लिए जरूरी है कि हर स्तर पर इसके लिए ईमानदारी से प्रयास करने होंगे। ईमानदारी शब्द इसलिए प्रयोग कर रहा हूं कि हमारे यहां भाषा आदि के मायने में होने वाले प्रयास अब महज फर्जअदायी बन कर रह गये हैं। सरकारी संस्थान सालाना जो हिंदी पखवाड़ा मनाते हैं उससे हिंदी का क्या भला होता होगा मुझे नहीं पता। दुर्भाग्य या सौभाग्य से मैं भी ऐसे कई समारोहों का साक्षी रहा हूं जहां अगर कुछ होता है तो चायपान कुछ पुरस्कार वितरण पर हिंदी का कल्याण नहीं। सरकार से सालाना बजट मिलता है उसे खपाना है बस यही उद्देश्य है इन समारोहों का। किसी को यह बात बुरी लगे तो लगे मगर मुझे तो नहीं लगता कि इस तरह के समारोहों की आवश्यकता है। हिंदी का केवल एक दिन ही क्यों हो हर दिन हिंदी दिवस क्यों न हो। हम कार्यालय में पहुंचे और शपथ लें कि हम रोज अपना कामकाज अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी में ही करेंगे। हां हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं व जन भाषाओं का संरक्षण-संवर्धन आवश्यक है क्योंकि उनकी अपनी एक अलग पहचान और महत्ता है। हिंदी को हृदय में बसाइए और आज से सिर्फ और सिर्फ हिंदी में काम करने की शपथ लीजिए देखिए आपको आत्मिक शांति मिलेगी कि आपने अपनी भाषा अपने देश के लिए कुछ तो किया।

जय हिंदी, जयहिंद।

-राजेश त्रिपाठी

7 COMMENTS

  1. हिंदी पर मेरे विचार जानने के लिए hindikunj.com पर मेरी शृंखला राजभाषा हिंदी देखें.
    साथ ही मेरे अपने ब्लॉग laxmirangam.blogspot.in में भी वे लेख ज्यादातर मिल ही जएंगे.
    सादर
    अयंगर
    laxmirangam@gmail.com
    m : 8462021340.

  2. राजेश जी,

    हमारी कमी यहीं है कि हम केवल और केवल सलाहकार बन सकते हैं. कर कुछ नहीं सकते. जो कर सकते हैं उन्हें इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि उनका आशय वोट से है. हिंदी हमारी माँ है, मातृभाषा है यह सब भावनाओं की भाषा अब फूहड़ लगने लगी है . यथार्थता की तरफ कोई ध्यान नहीं देता. कंप्यूटर में हिंदी उपलब्ध है लेकिन हिंदी भक्तों को चाहिए कि कंप्यूटर का की बोर्ड हिंदी में ही हो. हो तो बढ़िया है किंतु हिंदी से दूर रहने का यह भी कोई कारण है. ऐसी ही विडंबनाएं हमें मकसद से दूर ले जाती हैं. पहले मानसिकता सुधरे तो कोई कुछ करने की सोचे . अन्यथा हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे.. और वैसे ही रहेंगे केवल सलाह कार बनकर. हिंदी अंध भक्तों को समझाते हुए परेशान हो ही गया हूँ कि हिंदी सारे भारतीयों की मातृभाषा कैसे हो सकती है. दूसरा कि हिंदी राष्ट्रभाषा है ही नहीं. अभी किसी लेख में पढ़ा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने के लिए सरकारी ठप्पे की जरूरत नहीं है – वह अपने आप राष्ट्रभाषा बन चुकी है. उन्हें कैसे समझाएं कि वास्तविकता क्या है. एक और बात लोग राष्ट्रभाषा शब्द से चिपके क्यों हैं. यह शब्द काँग्रेसियों ने अपने अधिवेशनों में गढ़ा था बिना किसी से संपर्क साधे और इसीलिए बहुतों ने और खास कर तमिल भाषियों ने इसका विरोध किया. क्या हिंदी के लिए राष्ट्रभाषा के बदले कोई दूसरा उपयुक्त शब्द खोजा नहीं जा सकता. मुझे लगता है कि इससे बहुत बड़ी समस्या हल हो जाएगी. स्थान मुख्य है नाम नहीं. – ऐसा मेरा मानना है.

    September 10th, 2015

    • लक्ष्मीरंगम जी, मैं प्रवक्ता.कॉम पर हिंदी भाषा के संदर्भ में प्रस्तुत वक्तव्यों और निबंधों पर आपकी टिप्पणियां पढ़ता हूँ। अधिकतर आपके विचारों से सहमत, मैं सोचता हूँ कि कांग्रेस ने हिंदी के लिए “राष्ट्रभाषा” शब्द क्योंकर गढ़ा था जबकि कांग्रेस ने अपने दीर्घ शासन-काल में हिंदी-भाषी प्रांतों में हिंदी भाषा को उचित ढंग से प्रचलित करने का प्रयास तक नहीं किया। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि आज तमिलनाडु में सामान्य नागरिक को अंग्रेजी नहीं आती तिस पर वह हिंदी भाषा का विरोध क्योंकर करे? आप इस प्रश्न पर अपने विचारों से मुझे कृतार्थ करें।

      • इंसान जी,
        आपने अपना छद्म नाम देना उचित समझा , वो भी ठीक है.
        आपने मेरी टिप्पणियों से सहमति जताई तद्हेतु आभार.
        मुझसे आपका सवाल है कि तमिलनाडु में सामान्य जन को अंग्रेजी भी सही नहीं आती , उनका हिंदी से विरोध क्यो? यही ना .
        पहली बात तमिलनाड़ु में हिंदी का विरोध जनता नहीं नेता कर रहे हैं करा रहे हैं.
        दूसरी बात जिसको तमिलनाड़ु से बाहर निकलना ही नहीं है उसे हिंदी और अंग्रेजी से क्या मतलब. वह क्यों कर किसी भी भाषा की पैरवी या उससे नफरत करे. यह वहाँ के नेताओं का फैलाया हुआ जहर है. राजनीतिक कारणों से.
        अब आईए जानें राजनीतिक कारण कौन से – तो आपको संविधान की भाषाई समिति की कार्य़वाहियों पर गौर करना होगा . यदि आपसे संभव हो तो उनको प्राप्त कीजिए. साराँश मैं आपको यहाँ बता देता हूँ. संविधान की भाषाई समिति में एक एक कर कमजोर भाषा को हटाते हुए, अततः हिंदी व तामिल बच गए. टक्कर बराबरी की हुई और उस पर मतदान हुआ. वहाँ पर भी दोनों बराबरी पर रहे. फलस्वरूप अध्यक्ष नेहरू को मतदान करना पड़ा, जिससे हिंदी विजयी हुई. वहाँ के तमिल भाषी आज भी समझते हैं कि नेहरू के पक्षपाती रवैये काे कारण ही तमिल राजभाषा नहीं बन सकी. राजनेता तब से अब तक इसे भुना रहे हैं. सन 65 में हिंदी के विरोध में तो हिंसा तक हो गई थी. आज भी वहाँ के नेता, जन सामान्य लोगों को हिंदी से परहेज करने की घुट्टी पिलाते रहते हैं. कई सालों तक रेडियो व टीवी पर हिंदी के राष्ट्रीय समाचार भी प्रसारित नहीं होते थे. यदि लोग सही मायने में हिंदी से नफरत करते होते तो हिंदी सिनेमा में इतनी भीड़ क्यों होती है. वहां हिंदी सिनेमा का जो क्रेज है – मुंबई में भी शायद ही मिले. कभी जाना हुआ तो देखिएगा हिंदी सिनेमा के हॉल में जाकर. और यह भी जान लें कि हिंदी का विरोध चेन्नै में बहुत है और उससे दूर जाते-जाते घटते जाता है. साराँशतः राजनेता हिंदी विरोधी हैं – जनता नहीं.

        • लक्ष्मीरंगम जी, तमिलनाडु में हिंदी भाषा के संबंध में प्रस्तुत आपके दृष्टिकोण से मैं पहले से पूरी तरह अवगत हूँ लेकिन विशेषकर हिंदी भाषी प्रांतों में हिंदी भाषा की दयनीय स्थिति की पृष्ठभूमि पर आधारित मेरा प्रश्न राजनैतिक षड्यंत्र की ओर संकेत करता है। जिस मूल भाषा को उसके क्षेत्र में ही विस्तृत एवं विकसित न किया गया हो उसे किसी और प्रांत के मूल निवासियों पर थोपना विरोध का कारण अवश्य बन सकता था। ऐसा करना ही तमिलनाडु में हिंदी भाषा के लिए निश्चित अथवा वांछित विरोध को आमंत्रित कर तथाकथित स्वतंत्रता के उपरान्त अंग्रेज़ों के प्रतिनिधि कार्यवाहक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेहरु द्वारा भारतवासियों को बांटे रखने का क्रूर राजनैतिक षड्यंत्र था। आप संभवतः ठीक कहते हैं, “जिसको तमिलनाडु से बाहर निकलना ही नहीं है उसे हिंदी और अंग्रेजी से क्या मतलब. वह क्यों कर किसी भी भाषा की पैरवी या उससे नफरत करे.” लेकिन ऐसा कहने से अनपढ़ और पढ़े-लिखे लोगों में गरीबी और अमीरी का अंतर वैसे ही बना रहता है जैसा आज तमिलनाडु में बहु-संख्यक तमिल भाषा और अल्प-संख्यक अंग्रेजी बोलने वालों में बना हुआ है और न ही वे मुख्यधारा भारतवासियों में सम्मिलित हो पाते हैं। भारत में पूर्ण विकास हेतु यह अति आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक के सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए शासकीय और गैर-शासकीय सार्वजनिक नीतियों के अंतर्गत देश के सभी सामाजिक तत्वों में एक सामान्य भाषा प्रयोग में लायी जाए।

  3. राजेश जी,

    हमारी कमी यहीं है कि हम केवल और केवल सलाहकार बन सकते हैं. कर कुछ नहीं सकते. जो कर सकते हैं उन्हें इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि उनका आशय वोट से है. हिंदी हमारी माँ है, मातृभाषा है यह सब भावनाओं की भाषा अब फूहड़ लगने लगी है . यथार्थता की तरफ कोई ध्यान नहीं देता. कंप्यूटर में हिंदी उपलब्ध है लेकिन हिंदी भक्तों को चाहिए कि कंप्यूटर का की बोर्ड हिंदी में ही हो. हो तो बढ़िया है किंतु हिंदी से दूर रहने का यह भी कोई कारण है. ऐसी ही विडंबनाएं हमें मकसद से दूर ले जाती हैं. पहले मानसिकता सुधरे तो कोई कुछ करने की सोचे . अन्यथा हम जहाँ हैं वहीं रहेंगे.. और वैसे ही रहेंगे केवल सलाह कार बनकर. हिंदी अंध भक्तों को समझाते हुए परेशान हो ही गया हूँ कि हिंदी सारे भारतीयों की मातृभाषा कैसे हो सकती है. दूसरा कि हिंदी राष्ट्रभाषा है ही नहीं. अभी किसी लेख में पढ़ा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने के लिए सरकारी ठप्पे की जरूरत नहीं है – वह अपने आप राष्ट्रभाषा बन चुकी है. उन्हें कैसे समझाएं कि वास्तविकता क्या है. एक और बात लोग राष्ट्रभाषा शब्द से चिपके क्यों हैं. यह शब्द काँग्रेसियों ने अपने अधिवेशनों में गढ़ा था बिना किसी से संपर्क साधे और इसीलिए बहुतों ने और खास कर तमिल भाषियों ने इसका विरोध किया. क्या हिंदी के लिए राष्ट्रभाषा के बदले कोई दूसरा उपयुक्त शब्द खोजा नहीं जा सकता. मुझे लगता है कि इससे बहुत बड़ी समस्या हल हो जाएगी. स्थान मुख्य है नाम नहीं. – ऐसा मेरा मानना है.

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