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वे हिन्दुस्तानी के लेखक थे और पक्षधर भी

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प्रेमचन्द की जयंती पर

वीरेन्द्र जैन 

जब समाज को बांटने वाली शक्तियां अपना काम कर रही होती हैं तो वे उसे कई स्तरों पर बांटती हैं। दूसरी ओर समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाली शक्तियां उसे सभी स्तरों पर बंटने से रोकती हैं हमारे देश के संदर्भ में मुंशी प्रेमचन्द समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाली भाषा में साहित्य रचने वाले सबसे सटीक उदाहरण की तरह सामने आते हैं। एक धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था में ऐसा ही लेखक साहित्य का सर्वोच्च प्रतीक बन सकता है। उनकी प्रासंगिकता का यह सबसे बड़ा कारण है।

प्रेमचन्द हिन्दी के नहीं हिन्दुस्तानी के लेखक हैं जिन्होंने सबसे पहले अपनी हिन्दुस्तानी कहानियों को उर्दू लिपि में लिखा और बाद में नागरी लिपि में। यही कारण है कि उनका संपूर्ण साहित्य साथ ही साथ उर्दू लिपि में भी अनुवादित या कहें लिप्यांतर हुआ है। उनके भाषा सम्बन्धी विचार इस बात की पुष्टि करते हैं। वे कहते हैं कि ”राष्ट्रभाषा के नाम से हमारी कोई बहस नहीं है इसे हिन्दी कहिये, हिन्दुस्तानी कहिये, या उर्दू कहिये, चीज एक है। राष्ट्रभाषा केवल रईसों और अमीरों की भाषा नहीं हो सकती। उसे किसानों और मजदूरों की भी बनना पड़ेगा। जैसे रईसों और अमीरों से राष्ट्र नहीं बनता उसी तरह उनकी गोद में पली हुई भाषा ही राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती।”

प्रेमचन्द न केवल कहानियों के विषय के कारण अपितु उनमें प्रयुक्त अपनी बोलचाल की भाषा के कारण भी जन-जन के प्रिय कथाकार बने हैं। वे कहते हैं कि ”लिखित भाषा की यह खूबी है कि बोलचाल की भाषा से मिले। इस आर्दश से वह जितनी दूर जाती है इतनी ही अस्वाभाविक हो जाती है”। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए एक जगह वे कहते हैं कि ” सवाल यह उठता है कि जिस कौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है उसका स्वरूप क्या है। हमें खेद है कि अभी तक हम इसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके हैं, इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे वे अंग्रेजों के पुजारी थे और हैं, मगर उसकी कसौटी यही है कि उसे ज्यादा से ज्यादा लोग समझ सकें। हमारी कोई सूबे वाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नहीं उतरती। सिर्फ हिंदुस्तानी उतरती है, क्योंकि मेरे खयाल में हिन्दी और उर्दू एक ज़बान है। क्रिया और कर्ता, फेल और फाइल जब एक हैं, तो उनके एक होने में कोई सन्देह नहीं हो सकता। उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है जिसमें अरबी फारसी के लफ्ज ज्यादा हों, उसी तरह हिंदी वह हिंदुस्तानी है जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हों। लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लेटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या एंग्लो सैक्सन, दोनों ही अंग्रेजी हैं, उसी भांति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती। साधारण बातचीत में तो हम हिंदुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं। थोड़ी सी कोशिश से हम इसका व्यवहार उन सभी कामों में कर सकते हैं जिनसे जनता का सम्बन्ध है।

प्रेमचन्द ग्रामीण जीवन के सबसे बड़े चितेरे थे किंतु उनकी निगाह में पूरा देश और पूरा समाज रहता था इसलिए उन्होंने अपनी भाषा को बोलचाल की सरल भाषा रखते हुये भी आंचलिक नहीं होने दिया। दक्षिण भारत राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के एक व्याख्यान में उन्होंने कहा था ” जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती रहती है। भाषा सुंदरी को कोठरी में रख कर आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं,लेकिन उसके स्वास्थ का मूल्य देकर। उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइये कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ की रक्षा कर सके। बेशक हमें ऐसे ग्रामीण शब्दों को दूर रखना होगा जो किसी खास इलाके में बोले जाते हें। हमारा आर्दश तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें। अगर इस आर्दश को हम अपने सामने रखें तो लिखते समय भी हम शब्द चातुरी के मोह में न पड़ेंगे।

एक धर्मनिरपेक्ष लेखक में ही यह शक्ति हो सकती है कि वह हर तरह की संकीर्णता को नकार कर उन्हें डांट पिला सके। प्रेमचन्द हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बनाकर शुद्ध हिंदी बनाने वालों पर ही अपना गुस्सा व्यक्त नहीं करते अपितु उर्दू वालों को भी उसी अधिकार से फटकारते हैंं ”इधर तो हम राष्ट्र राष्ट्र का गुल मचाते हैं, उधर अपनी ज़बानों के दरवाजे पर संगीन लिए खड़े रहते हैं कि कोई उनकी तरफ आंख न उठा सके। हिन्दी में हम उर्दू शब्दों को बिना तकल्लुफ स्थान देते हैं, लेकिन उर्दू के लेखक संस्कृत के मामूली शब्दों को भी अंदर नहीं आने देतें वह चुन चुन कर हिन्दी की जगह फारसी और अरबी शब्दों का स्तेमाल करते हैं। जरा जरा से मुजक्कर और मुअन्नस के भेद पर तूफान मच जाया करता है। उर्दू ज़बान सिरात का पुल बन कर रह गयी है जिससे जरा सा इधर उधर हुए और जहन्नुम में पहुंचे।

प्रेमचन्द के कथन की आत्मा को फिल्मी जगत ने पहचाना और माना है। यही कारण है कि आज सिनेमा, साहित्य से अधिक लोकप्रिय और सम्प्रेषणीय होता है क्योंकि उसकी भाषा न हिन्दी होती है और न उर्दू होती है अपितु हिन्दुस्तानी होती है। इसी तरह हिन्दुस्तानी फिल्म (भले ही उसका लोकप्रिय नाम हिन्दी फिल्म हो) के र्दशकों में भी कोई भाषा और धर्म का भेद भाव नहीं होता। समाज को बांटने के लाख प्रयत्नों के बाद भी आज तक हमारा संगीत हिंदुस्तानी संगीत है और वह हिंदी संगीत या उर्दू संगीत नहीं बना। प्रेमचन्द इस बात को समझते थे, मानते थे और व्यवहार में लाते थे। जनता की एकता का सच्चा पक्षधर उसकी एकजुट अभिव्यक्ति तथा उस अभिव्यक्ति के लिए एक भाषा का पक्षधर भी होगा। प्रेमचन्द ऐसे ही थे इसलिए महान थे और बने रहेंगे।

3 COMMENTS

  1. भाषा-भारती को लेकर मधुसुदन जी ने तलस्पर्शी बात रखी है…
    जहाँ विषय को लेकर एक भलमनसाहत भी है और अमलीजामा पहना ने कि
    तत्परता भी… उनके सुचन भी अभ्यासपूर्ण व अनुभवपरक… सहमति बनाई जा सके वैसे.

  2. कुछ दक्षिण की भाषाएं जैसे तेलुगु, तमिल, मलयालम, कन्नड ऐसी और गुजराती, मराठी, बंगला …..इत्यादि भाषाओं में भी, कई शब्द हैं, जिन्हें हिन्दी में घुलने-मिलने में कोई कठिनाई ना होती।ऐसे, भारतीय मूल के पर्याय वाची शब्द भी सरलता से मिल पाते। और “भाषा-भारती” के नाम से हिन्दी स्वीकृत होने में भी कम कठिनाइ होती।
    वास्तव में “उत्तर भारतीय” को यह बिन्दू समझना कुछ कठिन ही है, ऐसा लगता है।वैसे, दक्षिण में बहुतेरे इस्लाम धर्मी भी वहां की स्थानीय भाषा बोलते हैं। बंगळूर में तो, रामानंद सागर की रामायण दर्शकों को समझ में आती थी, क्यों कि वह संस्कृतप्रचुर हिन्दी में थी।आंगन में खडे खडे, खिडकी से दूर दर्शन देख देख धारावाही प्रस्तुति से घुल मिलकर आनंद उठाते, कभी दुःख से व्यथित होते, देखे गए हैं।
    राजनीतिज्ञों को और उत्तर भारतीय नागरिकों को छोडकर, दक्षिण से और अ-हिन्दी प्रदेशोंसे हिन्दी विद्वानों की समिति गठन करते हुए, मेरी दृष्टि में यह काम कम विरोध से, हो सकता है। “भाषा भारती” नाम पर विचार किया जाए। मुझे तो, सारी भाषाओं के योगदान से शब्द भंडार बहुत समृद्ध नज़र आता है।
    इस रण नीति के कारण, (१) राजनीति का दोषारोपण नहीं होगा। और (२)न हिन्दी भाषियों के वर्चस्व का दोष लगेगा। (३) व्याकरण “खडी बोली” का और शब्द सारे भारत के।(४)नाम “भाषा भारती”। किसीका अनुनय नहीं, किसी भाषा की (उर्दू की भी) उपेक्षा नहीं।
    बहुत कुछ बिन्दू हैं। संक्षेप में कहा है। प्रेमचंद जी महान साहित्यिक थे। पर भाषा विज्ञानी थे क्या? मुझे पता नहीं है। यह साहित्यका विषय नहीं है।
    आप सभी इन बिन्दुओंपर विचार रखें, जो भी हो, मैं ने मेरा मस्तिष्क खुला रखा है, और मैं आप सभीके, विचार पढना चाहता हूं।

  3. वे हिन्दुस्तानी के लेखक थे और पक्षधर भी…प्रेमचंद महान थे और महान बने रहेंगे….
    वीरेन्द्र जैन जी का यह आलेख मन को छुआ, क्योंकि आलेख हिन्दुस्तानी
    ‘सत्य’ और ‘वास्तव’ के आसपास है… (वीरेन्द्र जैन जी, श्री राम जी जैसों को
    ‘प्रवक्ता.कॉम’ में ज़्यादा स्थान मिले…).

    मुझे याद नहीं ‘प्रवक्ता.कॉम’ किसने मुझे पहली बार भेजा था. पर अब उसे
    पढ़ ही लेता हूँ…और इसके ज़रिए ‘चौथी दुनिया’ मैं भी झाँक लेता हूँ.
    पर कभी कुछ आलेख पढ़कर घुटन और कोफ़्त भी होती है, क्योंकि आलेख
    इतने संकीर्ण, एकांगी, अर्ध-सत्य से प्रेरित प्रतीत होते हैं…कभी यह सोच मन उदास
    भी हो जाता है कि क्या संपादक महोदय या संपादकगण भी वैसी ही मानसिकता
    से ग्रस्त होंगे…

    किसी भी गलत को गलत कहने से क्या कतराना… पर आयासपूर्ण अतिशयोक्ति मन
    को म्लान कर जाती है…

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