विविधा

ममता की रेल: सुविधा की प्रतीक या असुविधा की

-निर्मल रानी

भारतीय रेल निश्चित रूप से विश्व के सबसे बड़े रेल नेटवर्क में एक प्रमुख है। परंतु जिस प्रकार दिन-प्रतिदिन यह भारतीय रेल नेटवर्क तरक्की क़ी अपनी मंजिलें तय कर रहा है शायद उसी गति से यही नेटवर्क असुविधा, अराजकता तथा प्रशासनिक असहयोग का भी शिकार होता जा रहा है। गत् सप्ताह मैंने बिहार की राजधानी पटना की एक पारिवारिक यात्रा की। यात्रा का माध्यम भारतीय रेल को चुना। अकाल तख्‍त एक्सप्रेस के द्वारा मैंने अम्‍बाला से पटना जाने का कार्यक्रम निश्चित किया था। उक्त ट्रेन अपने निर्धारित समय से भी लगभग 10 मिनट पूर्व अंबाला छावनी जंक्शन पर पहुंच गई तथा ठीक समय पर अपने निर्धारित गंतव्य सियालदाह के लिए रवाना हो गई। साफ सुथरी बोगी, अच्छी बर्थ, बिजली, पंखे, स्वच्छ शौचालय आदि सब कुछ सराहनीय था। परंतु बोगी के विद्युत बोर्ड में मोबाईल फ़ोन चार्ज करने हेतु लगाये गए सॉकेट केवल दर्शन मात्र थे। पूरे रास्ते तमाम यात्री अपना मोबाईल फ़ोन व चार्जर लिए प्रत्येक कूपे में यही पूछते फिर रहे थे कि क्या मेरा मोबाईल फोन यहां चार्ज हो सकता है। और प्रत्येक कूपे से एक ही उत्तर मिलता-नहीं यह सॉकेट काम नहीं कर रहा है। बहरहाल अंबाला से गाड़ी के प्रस्थान करते ही बोगी में दो हिजड़ों ने बेधड़क प्रवेश किया तथा यात्रियों के साथ बदतमीज़ी व बदसलूकी से पेश आते हुए तालियां ठोक-ठोक कर रूपये वसूलने लगे। कई यात्रियों ने तो उन्हें पैसे देकर भविष्य में भी उन्हें ऐसा ही करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि कई यात्रियों ने पैसे देने से इंकार भी किया। यह बेलगाम लुटेरे रूपी हिजड़े ऐसे कई यात्रियों को जोर का थप्पड़ उनके मुंह पर मारकर आगे निकल जाते थे। इस प्रकार की गुंडागर्दी को रोकने वाला उस ट्रेन में कोई नहीं था। न तो चलती फिरती पुलिस बेलगाम हिजड़ों को ट्रेन पर ऐसा करने से रोकती, न ही टिकट निरीक्ष्क महोदय।

बहरहाल, अकाल तख्‍त एक्सप्रेस अपनी तो रफ्तार से आगे बढ़ रही थी। हमारे कंपार्टमेंट में एक यात्री ऐसा था जिसके पास आरक्षित टिकट नहीं था। जाहिर है वह व्यक्ति आरक्षित बोगी में कानूनी तौर पर यात्रा नहीं कर सकता था। परंतु टिकट निरीक्षक महोदय ने उस यात्री से 200 रुपये ऐंठ लिए तथा उसे उसी आरक्षित बोगी में यात्रा करते रहने की मौखिक इजाजत दे दी। गोया टिकट निरीक्षक को चंद पैसे देकर कोई भी व्यक्ति आरक्षित टिकट लेने वाले यात्रियों के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। खैर, हमारी ट्रेन लखनऊ स्टेशन पर भी निर्धारित समय से कुछ मिनट पूर्व अर्थात् 8 बजे रात से कुछ पहले ही पहुंच गई। बस इसके आगे इस ट्रेन ने तो मानों खून के आंसू ही रुला दिए हों। जहां अंबाला से लखनऊ तक का लगभग 600 किलोमीटर का सफर इस ट्रेन ने 10 घंटों में तय किया था वहीं लखनऊ से बनारस तक की लगभग 200 किलोमीटर की यात्रा में भी 10 घंटे ही लगे। वाराणसी स्टेशन पर यह ट्रेन सुबह 6 बजे पहुंची। लोगों से पता चला कि यह गाड़ी अथवा इस रूट पर चलने वाली कोई भी गाड़ी जैसे-जैसे पूर्व दिशा की ओर बढ़ती जाएगी इसकी दशा भी दयनीय होती जाएगी। पता चला कि इस रूट पर विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेंश से लेकर बिहार तक ट्रेन की चेन खींचकर गाड़ी रोकने वालों का खुला साम्राज्‍य है। यह सुनकर मेरी चिंता और बढ़ गई क्योंकि मुझे तो पटना तक इसी ट्रेन से जाना था और शेष तमाम यात्रियों ने तो सियालदाह (कोलकाता) तक का सफर भी इसी रेल से ही करना था।

बहरहाल वाराणसी स्टेशन पर चाय बेचने वाले दिखाई दिए। पाठकगण विश्वास करें क्‍योंकि इसमें कोई अतिशोक्ति नहीं है। बनारस में 5 रुपये कप के भाव से जो चाय मिल रही थी वह निश्चित रूप से पांच घूंट चाय भी नहीं थी। जिस प्रकार के प्लास्टिक के कप व मिट्टी के अत्यंत छोटे कुल्हड़ों में यह चाय बेची जा रही थी इतने छोटे बर्तन भी मैंने पहली बार देखे थे। परंतु जाहिर है चाय विक्रेताओं, ठेकेदारों तथा इस नेटवर्क से जुड़े लोगों को पता है कि भारतीय रेल के यात्री तथा लगभग सभी भारतीय सुबह सवेरे एक कप चाय तो जरूर पीते हैं। बस इसी कमजोरी का लाभ उठाकर सभी रेल यात्रियों को दोनों हाथों से लूटा जा रहा था। यहां चाय का स्वाद का जिक्र कर आपके मुंह का स्वाद खराब करने से भी कुछ हासिल नहीं। बस यूं समझिए कि खुशकिस्मत हैं वे लोग जो बनारस तथा अन्य ऐसे ठगी के वर्चस्व वाले रेल स्टेशनों पर चाय नहीं पीते। इसी बनारस स्टेशन पर एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति हमारी बोगी में आकर भीख मांगने लगा। उसकी सेहत ऐसी कतई नहीं थी कि वह मजबूर, असहाय या वृद्ध लगे। किसी यात्री के भीख न देने पर वह भिखारी उसी यात्री को भाषण देने लगा- बाबू मुझे ऐसा-वैसा मत समझना मैं बनारसी सिल्क की साड़ी बनाने वाली फैक्ट्री का मालिक था। जबकि वह व्यक्ति बातचीत, बोल, भाषा कहीं से भी ऐसा कुछ नहीं प्रतीत हो रहा था। जैसाकि वह अपने बारे में बताना चाह रहा था। सहसा उसकी बातों के बाद मुझे ध्यान आया कि अरे यह तो वही बनासस की नगरी है जहां की यदि गंगा मैया व काशी विश्वनाथ मशहूर है तो वहीं इसी बनारस के ठग भी काफी प्रसिद्धि प्राप्त हैं।

बनारस से लेकर पटना तक के सफर के बीच तो हमारा आरक्षित कंपार्टमेंट गोया जनरल कंपार्टमेंट बन गया। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब रूट पर जो सवारियां इस भयवश आरक्षित डिब्बों में यात्रा करने से हिचकिचाती हैं कि कहीं उन्हें जुर्माना अथवा रिश्वत न देनी पड़ जाए वहीं बनारस व पटना के बीच यात्रीइस प्रकार आरक्षित डिब्बों में बेधड़क घुस रहे थे गोया उनके लिए आरक्षित व अनारक्षित डिब्बे में कोई अंतर ही न हो। टिकट निरीक्षक भी संभवत: अपनी इज़त आबरू बचाने के चलते ऐसे बेलगाम यात्रियों से न तो कुछ पूछते न टोकते। यहां तक कि उनसे टिकट पूछने तक की भी तकलींफ न करते। बहरहाल दोपहर बारह बजे हमारी ट्रेन पटना जंक्शन स्टेशन पर 6 घंटा देरी से पहुंची। ट्रेन से उतरते ही एक दर्दनाक नजारा यह देखा कि एक वृद्ध व्यक्ति जो कोई लावारिस भिखारी प्रतीत हो रहा था पटना जंक्शन प्लेटफार्म पर मृत पड़ा है तथा उस की लाश पर मक्खियां बैठ रही हैं। किसी रेल कर्मचारी, पुलिस अथवा स्थानीय व्यक्ति ने उसे वहां से उठाना-हटाना तो दूर उस पर चादर ढकने तक की जहमत गवारा नहीं की। न जाने बाद में उस मृत आत्मा का क्या हश्र हुआ होगा। पटना जंक्शन पर दुर्गंध, गंदगी व भारी भीड़ का खुला साम्राज्‍य था। प्लेटफार्म पर चूहों के बड़े-बड़े अनगिनत बिल तथा उसमें से बाहर निकलते व अंदर जाते चूहे यात्रियों से बराबर कदमताल कर रहे थे। ऐसा लग रहा था गोया रेल विभाग ने इन चूहों को पटना आने वाले यात्रियों के स्वागत हेतु प्लेटफार्म पर छोड़ रखा है।

लगभग तीन दिन के बिहार प्रवास के बाद मेरी वापसी की यात्रा मुजफ्फरपुर से शहीद एक्सप्रेस के द्वारा शुरु हुई। मुजफ्फरपुर में शहीद एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से लगभग दो घंटा देरी से पहुंची। रेल लाईनों पर गंदगी का वह आलम था जिसे यदि यहां यथावत बयान किया जाए तो शायद पाठकगण भी इसके आगे पढ़ने की हि मत नहीं कर सकेंगे। बस एक वाक्य में यूं समझ लीजिए कि जैसे पूरे देश के रेलवे का मैला व कूड़ा कर्कट लाकर मुजफ्फरपुर जंक्शन स्टेशन की रेल लाईनों पर डाल दिया गया हो। एक झाडू लगाने वाला व्यक्ति प्लेटंफार्म नंबर 3 पर उतरने वाली सीड़ियों पर झाड़ू लगा रहा था। उसके झाड़ू लगाने की अदा तो देखते ही बन पड़ती थी। गोया वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं बल्कि यात्रियों तथा रेल विभाग के सिर पर एहसान कर रहा हो। वह बदतमीज सफाई कर्मचारी सीढ़ी के दोनों तरफ खड़े लोगों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए सीढ़ी के ऊपर की गर्द व कूड़ा कबाड़ नीचे प्लेटफार्म पर खड़े यात्रियों के सिर पर जानबूझ कर फेंक रहा था। और उधर असहाय, असंगठित, भारतीय रेल यात्री अपने सिरों व कपड़ों को झाड़ते हुए इधर-उधर भागने को मजबूर हो रहे थे। इस प्रकार बदतमीजी से झाड़ू लगाए जाने का नजारा मैंने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखा।

रेलगाड़ी में 50 रुपए प्रति थाली के रेट पर रेल यात्रियों को खाना उपलब्‍ध कराया जा रहा था। यह खाना उस खुराक से कहीं कम था जो कभी रेल यात्रियों को दस या पंद्रह रुपए में उपलब्‍ध कराई जाती थी। परंतु इसे खरीदना उन रेल यात्रियों की मजबूरी थी जिनके पास यात्रा के दौरान खाने को कुछ नहीं था। मुजफ्फरपुर से लखनऊ तक का सफ़र लगभग उसी प्रकार रहा जैसा कि लखनऊ से पटना तक का था। रास्‍ते में वही लूट-खसोट वाली दुकानदारी। कहने को 10 रुपए में चार या पांच पूरियां मिलती थीं परंतु एक पूरी एक निवाले की भी नहीं होती थी।

बावजूद इसके कि बिहार में रेलों में लूट व डकैती की घटनाएं अक्‍सर होती रहती हैं उसके बावजूद गश्‍ती पुलिस का कोई प्रबंध कहीं भी नहीं दिखाई दिया। यदि एक यात्री के रूप में बैठा सिपाही नज़र भी आया तो वह भी एक बिहारी युवक की पत्‍नी पर डोरे डालता हुआ दिखाई दिया। बहरहाल लखनऊ से आगे बढ़कर जैसे-जैसे हमारी ट्रेन अंबाला की ओर बढ़ती गई वैसे-वैसे अवांछित यात्री भी कम होते गए। रेल की गति में भी सुधार होता गया तथा अराजकता का माहौल भी कम होता नज़र आया। हां खाने-पीने की चीज़ों के नाम पर राजधानी होने के बावजूद दिल्‍ली स्‍टेशन पर भी कोई विशेष प्रबंध नज़र नहीं आया जबकि पानीपत रेलवे स्‍टेशन पर बदबूदार और न जाने कितने पुराने एवं चिपचिपे तेल में तले गए पकौड़े व ब्रेड पकौड़े धड़ल्‍ले से बिक रहे थे। पानीपत के इन पकौड़ों की भी यही विशेषता है कि इन्‍हें यात्री एक बार तो ज़रूर खना चाहते हैं परंतु जिसने एक बार इसे खाया वह जीवन में दुबारा इन्‍हें हरगिज़ नहीं खाना चाहेगा। कुल मिलाकर मुजफ्फरपुर से 3 घंटों की देरी से चली शहीद एक्‍सप्रेस ने हमें अपने निर्धारित समय पर अंबाला पहुंचा दिया। परंतु इस रेल यात्रा ने हमारे जे़हन पर यह छाप ज़रूर छोड़ी कि रेल मंत्री ममता बनर्जी भले ही स्‍वयं को राजनीति की कितनी बड़ी महारथी क्‍यों न समझती हों परंतु रेल विभाग पर उनकी पकड़ कम से कम उतनी तो बिल्‍कुल नहीं है। और एक बात यह भी कि गोया रेल यात्रा जैसे टिकट निरीक्षकों, गश्‍ती पुलिस वालों, ट्रेन तथा स्‍टेशन पर सक्रिय बैंडरों व हाकरों, भिखाडि़यों, हिजड़ों आदि के लिए लूट-खसोट का एक बेहतरीन ज़रिया बन चुकी है। न जाने कभी वह दिन आएगा भी या नहीं जबकि हम भारतवासी कभी भारतीय रेल तथा उससे संबंधित सुविधाओं, सुरक्षा तथा इससे संबंधित अन्‍य व्‍यवस्‍थाओं पर गर्व भी कर सकेंगे।