राजनीति

गाँधी को समझे अरुंधती..

-आशीष तिवारी

क्या आपको याद है कि वर्ष २००४ में सिडनी शांति पुरस्कार किसे मिला था? नहीं याद है तो हम याद दिला देते हैं। ये पुरस्कार मिला था अरुंधती रॉय को। कितनी अजीब बात है ना! कभी अपने अहिंसात्मक कार्यों के लिए इतने बड़े सम्मान से नवाजे जाने वाली महिला आज उसी अहिंसा को नौटंकी के समकक्ष रखने पर तुली है। मुंबई में एक कार्यक्रम के दौरान अरुंधती रॉय ने कहा था कि ‘गांधीवाद को दर्शकों की ज़रुरत होती है’…ये एक पंक्ति ही काफी है कि हम अरुंधती रॉय की मनोदशा के बारे में समझ सके। अरुंधती रॉय के गाँधी के विचारों के प्रति क्या नजरिया है ये भी आसानी से समझा जा सकता है। जिस तरीके से अरुंधती रॉय ने मावोवादियों के समर्थन में अपने सुर अलापे हैं उसका निहितार्थ देश की वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था से परे है।

आज देश में आतंरिक सुरक्षा को लेकर जो सबसे बड़ा खतरा है वो है नक्सालियों और मावोवादियों से और इस बात को आम आदमी से लेकर ख़ास तक जानता है तो क्या इसे अरुंधती रॉय नहीं समझ रही हैं। दंतेवाडा में सुरक्षा बलों पर हमले के बाद जिस तरीके से झारग्राम में ट्रेन को निशाना बनाया गया उसे देखकर क्या कोई भी शख्स इनका समर्थन कर सकता है?

यकीनी तौर पर यह कहा जा सकता है कि देश में हमेशा शांति नहीं रह सकती..और तब तो और जब संसाधनों का बंटवारा समान रूप से ना हुआ हो और उसका उपयोग वो समाज ना कर पा रहा हो जिसने उन संसाधनों को सुरक्षित रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। नक्सलबाड़ी से जब एक आवाज़ उठी तो वो अपने अधिकारों की बात कर रही थी। उसका मकसद एक ऐसे अहिंसात्मक आन्दोलन को खड़ा करना था जो समता मूलक समाज की अवधारणा से प्रेरित था। लेकिन राजनीतिक नेतृत्व से भटकाव इस आन्दोलन को एक ऐसे मोड़ पर ले आया जहाँ इसका विरोध इसके अपने ही करने लगे। यहीं से शुरू हो चुकी थी एक ऐसी जद्दोजहद जहाँ अपने को सही साबित तो करना ही था साथ ही अपना हक भी लेना था लेकिन राजनीतिक नेतृत्व से समन्वय ना हो पाना दुखद साबित हो रहा था। नक्सलवाद का समर्थन करने वालों को लगा कि अहिंसात्मक आन्दोलन से कुछ हासिल नहीं होने वाला लिहाजा बंदूकों का इंतज़ाम होने लगा। देश के जंगलों में जहाँ कभी माहौल खुशनुमा रहता था वहां की हवा में बारूद कि महक घुल गयी। बूटों की आवाजें आने लगी। इन बूटों की आवाजों के नीचे गाँधी की अहिंसात्मक सोच कराह रही थी। अभी तक अपना हक मांग कर अपनी ज़िन्दगी खुशहाल बनाने की सोच रखने वाले अब दूसरों की ज़िन्दगी को दुखों से भर रहे थे। हैरानी की बात थी कि मर्ज़ बढ़ रहा था और सरकार इस बात पर सोच विचार कर रही थी कि ये रोग कितना फ़ैल सकता है? रोग को फैलना था सो फैला और सरकारें आती जाती रहीं। इसी दौरान इसी भारत में एक ऐसा वर्ग भी बन गया जो इस रोग के समर्थन में आ रहा था।

जहाँ तक मुझे मालूम है अरुंधती रॉय ने अपने जीवन में एक ही उपन्यास लिखा है(और लिखा हो कृपा करके बताएं क्योंकि मेरा अंग्रेजी उपन्यासों का ज्ञान शून्य है)। एक उपन्यास लिख कर अरुंधती जी आज देश में बुद्धजीवी वर्ग का चेहरा हैं। ये वर्ग जब अंग्रेजी में कुछ कहता है तो वह बेहद गंभीर बात हो जाती है।

इसी बीच ये बात भी जाहिर हो गयी कि लम्बे समय तक निराशा और हताशा के बाद अहिंसा, हिंसा की ओर बढ़ने लगी। ऐसे में कोई हैरानी नहीं हुयी कि देश के बुद्धजीवी वर्ग का नमूना मानी जाने वाली अरुंधती रॉय ने इस खून खराबे का समर्थन किया। वैसे अरुंधती रॉय जैसे लोग हमारे देश में अब बहुतायत में पाए जाते हैं। ये भारत को ‘इण्डिया’ कहते हैं इसीलिए ये ‘एलीट’ वर्ग के हो चले हैं। भारत को जो लोग भारत कहते हैं वह निम्न हैं और जो इसे’ भारत माता’ कह दे वो तो निम्नतर हो जाते हैं। अरुंधती रॉय जब मावोवादियों के साथ जंगल में गयी तो उन्हें पता चला कि ऐसी समस्याओं का हल गाँधी के अहिंसात्मक नज़रिए से नहीं हो सकता। जहाँ तक मुझे लगता है अरुंधती रॉय के विचारों में आया ये त्वरित परिवर्तन किसी ऐसे व्यक्ति के लिहाज से बिल्कुल उचित था जो वातानुकूलित कमरों और गाड़ियों का आदि हो चला हो और अति उत्साह में उसे कुछ गर्म जंगलों में पैदल घूमते हुए जंगली कीड़ों के बीच बिताना पड़े…पर इस सब के बीच दुःख इस बात का हुआ कि सुश्री रॉय ने गाँधी की अहिंसात्मक सोच पर प्रश्नचिंह लगा दिया। दरअसल वो भूल गयी कि जिन आदिवासियों के बारे में उन्होंने अब जाकर सोचना शुरू किया है उनके बारें में गाँधी ने लगभग सौ वर्ष पूर्व ही सोच लिया था। हाँ ये बात और है कि तब ये महज आदिवासी थे, नक्सली या मावोवादी नहीं। गाँधी ने कभी भी जंगलों और आदिवासियों को अलग करने की बात नहीं कही, बल्कि उन्होंने रस्किन के उस अवधारणा का कि श्रम की वास्तविकता से अलग हुआ असमान सामजिक जीवन अहिंसा की सम्भावना को आगे नहीं बढ़ने देता है, का हमेशा समर्थन किया। स्पष्ट है कि गाँधी जी इस बात को समझते थे कि यदि देश में असमान विकास हुआ तो वंचित लोग अहिंसा का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं। लिहाजा उन्होंने हमेशा एकरूप सामाजिक ढांचे का समर्थन किया। गाँधी जी के अहिंसात्मक आंदोलनों को निष्क्रिय समझने वाले भी भूल करते हैं। हालाँकि शुरूआती दौर में किये गए आन्दोलन ज़रूर कमजोर थे लेकिन इस बात से प्रेरणा लेते हुए स्वयं गाँधी ने अपने आंदोलनों को सक्रिय रूप दिया। इसी के बाद सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ। गाँधी जी और तत्कालीन राजनीतिक विशेषज्ञों ने इसे बन्दूक की बदौलत बुलंद की गयी विरोध की आवाज़ से अधिक प्रभावशाली माना था। सविनय अवज्ञा आन्दोलन की अवधारणा अन्याय के खिलाफ सक्रिय विरोध का सुझाव देती है। इस अवधारणा में कानून के प्रति गहन सम्मान भी निहित था। अरुंधती रॉय के साथ वाला बुद्धजीवी वर्ग आज जिस गाँधी को नक्सली समस्या के आईने में गलत साबित कर रहा है उसी गाँधी ने शहरों के विकास को गलत माना था। ख़ास तौर पर भारत जैसे देश के लिए उन्होंने शहरों को अशुभ बताया था। अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज्य’ में गाँधी जी ने निर्धनता और आधुनिक सभ्यता के ‘पाप’ के लिए प्रौद्योगिकी और उद्योगीकरण को जिम्मेदार ठहराया था। ऐसे में गांधी ना तो आदिवासियों के विरोधी हो सकते हैं और ना ही उनके अधिकारों के फिर जंगलों में रहने वाले इन लोगों को गाँधी के रास्ते पर चलकर मंजिल क्यों नही मिल सकती? दरअसल इस देश में गाँधी की तस्वीर को दीवारों पर छिपकलियों के लिए टांग दिया जाता। समय समय पर अरुंधती रॉय जैसा बुद्धजीवी वर्ग छिपकलियों के साथ गाँधी को भी गाली दे देता है। आज ज़रुरत इस बात कि है गाँधी के नज़रिए को वर्तमान परिपेक्ष्य में समझा जाये और देश को असमान विकास से एक समान विकास की ओर ले जाया जाये और मेरी एक छोटी सी सलाह और है कि शहरी लोगों को जंगलों में ना जाने दिया जाये।

हे राम..!