हिना रब्बानी की भारत यात्रा – भारतीय मीडिया और “सेकुलर” राजनीति को नंगा करती एक घटना…

सुरेश चिपलूनकर

26 जुलाई को पाकिस्तान की नई-नवेली विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार, भारत की आधिकारिक यात्रा पर नई दिल्ली आईं। पाकिस्तान ने एक युवा और अनुभवहीन स्त्री को पता नहीं क्या “सोच-समझकर” या न जाने कौन सी योजना के तहत विदेशमंत्री बनाया यह तो वे ही जानें… लेकिन हिना रब्बानी (Hina Rabbani Khar) की इस यात्रा से, 60 वर्ष पुराने लोकतांत्रिक शासनकाल में पल्लवित हुए भारतीय मीडिया और कांग्रेस-पोषित “सेकुलर” राजनीति का बदबूदार चेहरा अवश्य खुलकर सामने आ गया…।

हालांकि विगत चन्द वर्षों में भारतीय मीडिया ने “गिरावट” के अपने नित नये ऐतिहासिक तलों को छूना शुरु कर दिया है, और काफ़ी लोग कथित न्यूज़ चैनलों(?) को देखना बन्द कर चुके हैं। लगातार भारत के “भाण्ड” मीडिया के रवैये को लेकर खबरें आती रहती हैं, परन्तु मीडिया “परिपक्व” होना तो दूर, बल्कि धीरे-धीरे छिछोरा और एक सीमा तक देशद्रोही भी होता जा रहा है… हिना रब्बानी की भारत यात्रा के दौरान भी ऐसा ही हुआ। पहले हम सरकार के “भूकम्पकारी रुख” के बारे में जान लें, क्योंकि वह जनता के प्रति अधिक जवाबदेह है, मीडिया का क्या है, वे तो “धंधा करने” बैठे हैं…

जिस दिन हिना रब्बानी भारत की यात्रा पर दिल्ली पधारीं, उन्होंने उसी दिन कश्मीर के सभी अलगाववादी हुर्रियत (Hurriyat Conference) नेताओं जैसे, सैयद अली शाह गिलानी, मीरवायज़ उमर फ़ारुक, अब्दुल गनी बट, आगा सईद बडगामी और बिलाल लोन से मुलाकात की। किस जगह? पाकिस्तान के दूतावास में…। सामान्य सी “प्रोटोकॉल” और कूटनीतिक समझ रखने वाला निचले स्तर का अफ़सर भी समझ सकता है कि इसके गहरे निहितार्थ क्या हैं। प्रोटोकॉल के अनुसार पाकिस्तान के विदेश मंत्री को अपनी “आधिकारिक” भारत यात्रा पर सबसे पहले विदेश मंत्रालय के उच्चाधिकारियों, विदेश मंत्री या किसी राज्य के मुख्यमंत्री से ही मुलाकात करना चाहिए… (व्यक्तिगत यात्रा हो तो वे किसी से भी मिल सकते हैं), लेकिन ऐसा नहीं हुआ, भारत सरकार की “औकात” सरेआम उछालने के मकसद से हिना रब्बानी ने जानबूझकर हुर्रियत नेताओं से पाकिस्तान के दूतावास में मुलाकात की, जबकि यदि उन्हें कश्मीर की वाकई इतनी ही चिंता थी तो उन्हें उमर अब्दुल्ला से मिलना चाहिए था, अगले दिन एसएम कृष्णा से आधिकारिक चर्चा होनी ही थी, फ़िर सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं से मिलने की क्या तुक है?

इसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि हुर्रियत के इन सभी नेताओं में से अधिकतर “सरकार की निगाह” में “नज़रबन्द” हैं, तो फ़िर ये लोग श्रीनगर से दिल्ली कैसे पहुँचे? क्या सरकार इस बारे में जानती थी कि ये लोग क्यों और किससे मिलने आ रहे हैं? यदि जानती थी तब तो यह बेहद गम्भीर बात है क्योंकि इससे साबित होता है कि “प्रशासनिक मशीनरी” में ऐसे तत्व खुलेआम घुस आए हैं जो कश्मीर को पाकिस्तान के सामने पेश करने के लिये मरे जा रहे हैं, और यदि सरकार इस बारे में कुछ भी नहीं जानती थी, तब तो यह जम्मू-कश्मीर और केन्द्र सरकार की सरासर नाकामी और निकम्मापन है कि “नज़रबन्द” नेता दिल्ली पहुँच जाएं और पाकिस्तान के विदेश मंत्री से मुलाकात भी कर लें…। क्या यह देश की सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं है कि सुरक्षा एजेंसियों को पता लगे बिना अलगाववादी नेता आराम से दिल्ली आते हैं और सरेआम सरकार को तमाचा जड़कर चले गये? भारत सरकार और आम जनता के प्रतिनिधि विदेश मंत्री या उमर अब्दुल्ला हैं या हुर्रियत वाले? और फ़िर भी सरकार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें-हें करते बैठी रही? ऐसा क्यों… एक सवाल एसएम कृष्णा जी से पूछने को जी चाहता है, कि क्या भारत के विदेशमंत्री की इतनी “हिम्मत” है कि वह पेइचिंग में सरकारी मेहमान बनकर वहीं पर “दलाई लामा” से मुलाकात कर ले?

अब हम आते हैं भारत के “परिपक्व” मीडिया के रवैये पर, जो कि इस बात की दुहाई देते नहीं थकता कि वह “कितना महान” है… हमारे “भाण्ड मीडिया” और तथाकथित “बड़े पत्रकारों” में से किसी ने भी इस गम्भीर मुद्दे को उठाने या उस पर कोई स्टोरी चलाने की कोशिश नहीं की, सारे के सारे एंकर और “टट्टू” हिना रब्बानी का चेहरा, पर्स और सैण्डल देखते रहे। किसी ने भी सरकार से यह नहीं पूछा कि आखिर हिना रब्बानी, हुर्रियत के नेताओं से मिलीं, तो कैसे मिलीं? किसने अनुमति दी? जब पिछले सप्ताह ही हमें अमेरिका ने बताया है कि ISI के एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई (Ghulam Nabi Fai) द्वारा “पाले-पोसे बुद्धिजीवियों की जमात” में हुर्रियत के नेता भी शामिल हैं तब इन्हें हिना रब्बानी से मिलने की अनुमति क्यों दी गई?

उल्लेखनीय है कि 26 जुलाई को ही भारत के जांबाज़ सपूतों और वीरों द्वारा दिलवाई गई कारगिल विजय (Kargil Victory) की बारहवीं वर्षगाँठ भी थी, लेकिन धरती के लालों, हमारे सैनिकों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने के लिये सरकार ने ऐन उसी दिन हिना रब्बानी के सामने पलक पाँवड़े बिछा रखे थे। सो कॉल्ड “तेज” और “जागरूक” मीडिया के किसी चैनल ने (इक्का-दुक्का को छोड़कर) “कारगिल विजय दिवस” पर कोई विशेष कार्यक्रम नहीं चलाया, क्योंकि मीडिया को दो बच्चों की माँ, हिना रब्बानी की खूबसूरती का बखान करने से ही फ़ुरसत नहीं थी। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि एक “दुश्मन देश” की विदेशमंत्री, जिसके कारण हमने अपने कई अमूल्य जवान खोए हैं, उसे अधिक कवरेज मिलना चाहिए या बहादुर सैनिकों के बलिदान को… परन्तु मीडिया में बैठे “परजीवियों” को हमेशा से, “ड्यूटी” की बजाय “ब्यूटी” अधिक महत्वपूर्ण लगती रही है…। प्रमुख मुद्दों को छोड़कर मीडिया, राखी सावन्त, पूनम पाण्डे, मल्लिका शेरावत या ऐश्वर्या के बच्चे में ही उलझा रहता है। देश के लिए बलिदान करने वाले सैनिकों तथा “पाकिस्तानी मानस” में गहरे पैठी हुई भारत विरोधी मानसिकता को दरकिनार करते हुए हमेशा से हमारा मीडिया “अमन की आशा (Aman ki Asha) जैसे फ़ालतू विचार” को ही प्रमुखता देता रहा है।

 

चूंकि कारगिल की विजय भाजपा के शासनकाल में मिली थी, इसलिए केन्द्र की कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री या किसी अन्य मंत्री को कारगिल जाकर सैनिकों के बीच उनका मनोबल बढ़ाने अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करने का समय नहीं मिला। 26 जुलाई को सरकार के PIB (Press Information Bureau) की तरफ़ से अखबारों को कुल 16 प्रेस विज्ञप्तियाँ जारी की गईं, परन्तु किसी में भी “कारगिल विजय” का कोई उल्लेख नहीं था, कि कहीं “खूबसूरती” नाराज़ न हो जाए… और चूंकि कारगिल की विजय अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में मिली थी, तो स्वाभाविक है कि हुर्रियत नेताओं की “लल्लो-चप्पो” करने वाली यूपीए सरकार, सैनिकों को श्रद्धांजलि या जीत का जश्न कैसे मनाती? उलटा उसने पाकिस्तान की विदेश मंत्री की यात्रा हेतु वही दिनांक चुनी, क्या एक-दो दिन बाद की दिनांक तय नहीं की जा सकती थी?

तात्पर्य यह है कि भारत के सत्ता संस्थान तथा मीडिया में ऐसे तत्व बहुतायत में भरा गये हैं, जिन्हें अब “देश की एकता और अखण्डता” नामक अवधारणा में कोई विश्वास नहीं है। सत्ता के करीब और “प्रियकर” यह “खास-तत्व”, अरुंधती को आज़ादी(?) देंगे, हुर्रियत को आज़ादी देंगे, कोबाद घांदी तथा बिनायक सेन के साथ नरमी से पेश आएंगे, नगालैण्ड और मणिपुर के उग्रवादियों से चर्चाएं करेंगे… सभी अलगाववादियों के सामने “लाल कालीन” बिछाएंगे… उनके सामने “सत्ता की ताकत” और “राष्ट्र का स्वाभिमान” कभी नहीं दिखाएंगे। परन्तु जैसे ही बाबा रामदेव या अण्णा हजारे कोई उचित माँग करेंगे, तो ये लोग तत्काल “सत्ता का नंगा नाच” दिखाने लगेंगे।

4 COMMENTS

  1. ये सब तो हमारे कांग्रेस एवं मीडिया की परंपरा रही है, पहले नेहरूजी, इंदिराजी, राजीवजी , और ab प्रियंका , राहुल …के लाइफ स्टाइल ड्रेस आदि को ..मीडिया इतनी प्रमुखता देता है …जैसे की देश में और कोई ज्वलंत मुद्दे है ही नहीं, येही सब अब पाकिस्तानी नेता भी दोहरा रहे hain..

    वासी भी पाकिस्तान से पहले पुराणी पढ़ी के नेताओं की जमात … आगरा ताज महल , चार मीनार , हज़रात निजामुद्दीन , या अजमेर शरीफ आती थी .. अब नयी पीढ़ी के तेज़ तर्रार एवं सुन्दर नेता आ रहे हैं

    …पाकिस्तान की कूटनीत तो पहले ही जग जाहिर है … “बोम्ब नीति, आतंकवाद नीति” उसी की प्रगति को हिना ने हुर्रियत नेताओं के साथ डिस्कस किया होगा..

    बाकी तो भगवान भरोसे है है न..

    Namaskar

  2. भाई श्री मीणा जी,
    अमरनाथ यात्रा विवाद एवं पत्थर-फ़ेंकुओं के गिरोह की हरकतों के बाद उक्त सभी हुर्रियत नेता सरकारी आदेशों के अनुसार “नज़रबन्द” ही हैं। हालांकि उन्हें कश्मीर से बाहर जाने हेतु सरकार की अनुमति की आवश्यकता होती है, परन्तु यह सब सिर्फ़ “कागजों” पर ही है। असल में तो वही होता है, जो हिना की भारत यात्रा के दौरान हुआ…

    मान लीजिये कि “नजरबन्दी” आदेश वापस भी ले लिया गया हो (चुपके से), तब भी जब हुर्रियत के ये सभी नेता एक साथ दिल्ली आए, पाक दूतावास गये, हिना से मुलाकात भी कर ली… तब तक खुफ़िया एजेंसियाँ और सरकार सोती रहीं???

  3. पहली बात : आपका ये पूरा लेख आपकी निम्न पंक्ति पर आधारित है :

    “इसमें सबसे खतरनाक बात यह है कि हुर्रियत के इन सभी नेताओं में से अधिकतर “सरकार की निगाह” में “नज़रबन्द” हैं, तो फ़िर ये लोग श्रीनगर से दिल्ली कैसे पहुँचे?”

    कृपा करके बताने का कष्ट करेंगे कि आपकी उक्त पंक्ति की सत्यता और विश्वसनीयता का आधार क्या है?

    दूसरी बात : आपने निम्न पंक्ति में जो लिखा है उस पर किसी भी भारतीय को आपत्ती नहीं होनी चाहिए|

    “भारत सरकार की “औकात” सरेआम उछालने के मकसद से हिना रब्बानी ने जानबूझकर हुर्रियत नेताओं से पाकिस्तान के दूतावास में मुलाकात की, जबकि यदि उन्हें कश्मीर की वाकई इतनी ही चिंता थी तो उन्हें उमर अब्दुल्ला से मिलना चाहिए था, अगले दिन एसएम कृष्णा से आधिकारिक चर्चा होनी ही थी, फ़िर सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं से मिलने की क्या तुक है?”

    तीसरी बात : आपके लेख के अन्य विचारों और निष्कर्षों पर टिप्पणी करने के लिए ऊपर चाही गयी जानकारी अपेक्षित है!

Leave a Reply to Suresh Chiplunkar Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here