‘हिंदी प्रलाप’ – अरुण माहेश्वरी

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दक्षिण अफ्रीका के विश्व हिंदी सम्मेलन से घूम कर आने के ठीक बाद हिंदी के प्रोफेसर और भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के पूर्व निदेशक शंभुनाथ का एक लेख ‘हिंदी का अरण्यरोदन’ जनसत्ता के आज (26 सितंबर 2012) के अंक में प्रकाशित हुआ है। थोड़ा सा ध्यान से पढ़ने पर ही यह लेख भारत सरकार के हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिये किये जा रहे सारे उपक्रमों की तरह ही एक बहुत ही रोचक और अनोखा लेख जान पड़ता है। उद्देश्य और विन्यास, दोनों ही लिहाज से एक अबूझ पहेली की तरह रोमांचक और रहस्यात्मक। अंतत:, अगर मुद्दे की बात सिर्फ लूटने और लुटाने की रह जाए तो फिर शब्द-राशि या धनराशि, कुछ भी क्यों न हो, क्या फर्क पड़ता है! बदले में लेखन भले कोरा प्रलाप बन जाए और आयोजन विशुद्ध मस्ती!

इस लेख के अमूल्य विचारों की कुछ बानगी देखिये-

पहली पंक्ति है : हिंदी का जन्म ही आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता की देन है। इसीलिए इसे मानसिक आजादी की भाषा या लोकतंत्र की भाषा के रूप में देखा जाता है।

पुन:, दूसरे पैराग्राफ की पहली पंक्ति है : हिंदी लोकचेतना और लोकतंत्र की देन है। लेकिन इसी पैरा की अंतिम पंक्ति है : हिंदी लोकतंत्र की भाषा सिर्फ तब बनेगी जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।

पुन:, आगे के दो पैराग्राफ बाद नये पैराग्राफ की शुरूआत इन प्रश्नों से होती है : लोकतंत्र में हिंदी कहां है, किस दशा में है? हिंदी में लोकतंत्र कितना है, किस दशा में है?

आगे एक और पैरा के शुरू का वाक्य है : हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर उसे लोकतंत्र की भाषा बनना बाकी है।

पूरा लेख इसी प्रकार के हिंदी और लोकतंत्र से लदे जुमलों से भरा हुआ है।

गौर करने की बात यह है कि लेख की शुरूआत तो इस प्रकार हुई मानो जहां भी ‘आजाद और लोकतांत्रिक मानसिकता’ होगी, वहीं हिंदी होगी। आगे भी यही कहते हुए बढ़ा गया है कि ‘हिंदी लोकतंत्र और लोकचेतना की देन है।’

लेकिन तत्काल इस नतीजे पर आने में जरा भी देर नहीं लगती कि हिंदी लोकतंत्र की भाषा तब बनेगी, जब सूचना और मनोरंजन की भाषा से आगे बढ़ कर ज्ञान और संवेदना की भाषा बने।

अर्थात्, अभी हिंदी लोकतंत्र की भाषा नहीं है।

इसमें भी ‘बूझो तो जानू’ वाली पहेली की बात यह है कि ‘सूचना और मनोरंजन’ का ‘ज्ञान और संवेदना’ से ऐसा कौनसा अंतर्विरोध है कि एक लोकतांत्रिक नहीं और दूसरा लोकतांत्रिक है!

इसी क्रम में, ‘लोकतंत्र में हिंदी तथा हिंदी में लोकतंत्र’ वाले गूढ़ सवालों के साथ यह फतवा कि हिंदी बाजार की भाषा बन चुकी हो, पर इसे लाकतंत्र की भाषा बनाना बाकी है और भी ज्यादा रहस्यमय है।

सच कहा जाए तो यह पूरा लेख सारी दुनिया में अब तक हुए भाषा संबंधी विमर्श को हिंदी के एक प्रोफेसर द्वारा दिखाये गये ठेंगे की तरह है। भाषा और व्यवस्था पर चर्चाओं का अपना लंबा इतिहास है। भाषा को किसी खास तंत्र मात्र का बताना कोरी बकवास है।

इस लेख में जगह-जगह अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व का रोना रोया गया है और साथ ही अंग्रेजी भाषा के बारे में यह फतवा भी दिया गया है कि इस समय अंग्रेजी खुद ही खोखली नहीं होती जा रही है, यह दुनिया की सारी भाषाओं और लोगों के जीवन को खोखला बना रही है।

जो भाषा खुद खोखली होती जा रही है, उसका आतंक हिंदी जैसी ‘ठोस’ भाषा के प्रोफेसर और अधिकारी को सता रहा है! क्या कहा जाए इस प्रमाद को?

लेखक हिंदी में ‘अंग्रेजी शब्दों के एकाधिकारवाद’ पर भी खास तौर पर चिन्तित है। खुद इस लेख में अंग्रेजी के कितने शब्दों-पदों का प्रयोग किया गया है, देखिये – ‘इंडेंजर्ड लेंग्वेजेज’, ‘पैसिव रेजिस्टेंस’, ‘नेशनल लेंग्वेज’, ‘इंग्लिश’, ‘इनसाइक्लोपीडिया’, ‘पावर ग्रिड’, ‘फेल’, ‘मीडिया’, ‘पेड न्यूज’, ‘रेजिमेंटेशन’। गौर करने की बात यह है कि इनमें से अधिकांश पदों के हिंदी पद काफी लोकप्रिय है।

इसके अलावा, ‘अंग्रेजी शब्दों के एकाधिकारवाद’ से क्या तात्पर्य है?

इस लेख से निकलने वाली न जाने कितनी पहेलियों में एक पहेली है – ‘हिंदी लोकतंत्र की भाषा है और लोकतंत्र अंग्रेजी की मुी में है।’

इसीप्रकार, ‘मीडिया की भाषा में जीवन का मजा है, पर जीवन का सौन्दर्य नहीं’।’ शास्त्र आनंद और सौंदर्य को एक और अभिन्न बताते है, लेकिन हिंदी-हितैषी की मान्यता कुछ और ही है! शायद यहां फर्क ‘आनंद’ की कुलीनता और ‘मजा’ के भदेसपन का हो। सोचने की बात यह है कि कुलीनता लोकतांत्रिक है और भदेसपन अलोकतांत्रिक!

बहरहाल, हिंदी, लोकतंत्र और अंग्रेजी के वर्चस्व की तरह के विषयों पर इस विशुद्ध प्रलाप के बावजूद इस लेख में कुछ तो ऐसा है जिसे लेकर लेखक महोदय सचमुच गंभीर और चिंतित है। यह एक हिंदी अधिकारी की चिंता है। यह भारत सरकार और हिंदी समाज को हिंदी के नाम पर और ज्यादा दरियादिली दिखाने के लिये प्रेरित करने की चिंता है। सरकारी हिंदी संस्थाओं के बजट को बढ़ाकर ‘हिंदी-जीवियो’ के हित-साधन की चिंता है। इसीलिये इस प्रलापनुमा लेख के अंत में हिंदी के ‘लोकतंत्र’ को आबाद रखने के लिये जो सुझाव दिये गये हैं, उनमें सरकार की ओर से हिंदी के अद्यतन विश्वकोश और हिंदी की उनचास उपभाषाओं-बोलियों के उनचास ‘हिंदी लोक शब्दकोश’ के दीर्घकालीन प्रकल्पों के अलावा सबसे ज्यादा जोर हर साल विश्व हिंदी सम्मेलन की तरह के आयोजन करने पर है। चार साल में एक विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी के ‘अरण्यरोदन’ की तरह है। ऐसा मजमा हर साल नहीं, बल्कि हर दिन लगा रहे तो हिंदी (हिंदीजीवी पढ़े) का जो कल्याण सधेगा इसे सहज ही समझा जा सकता है!

यही है इस पूरे प्रलाप का मूल संदेश।

4 COMMENTS

  1. ६५ वर्ष तो हो गए,
    और १०० वर्ष भी अंग्रेजी के बलपर शासन के जम्हूरे लाख प्रयास करें, देश की अंतिम पंक्तिका नागरिक उन्नत नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा.
    ०.००१ प्रतिशत की उन्नति के लिए सारी रेलगाड़ी कैलाश-मानस-सरोवर पर लेजाने वाले को आप क्या कहेंगे? मूरख या पढ़ात मूरख ?

  2. क्या शम्भू नाथ जी को इस सम्मलेन में सम्मानित किया गया है ? यदि हाँ तो उन के आने जाने का व्यय भी भारत सरकार ने वहां किया होगा ? इस लेख में वो क्या कहना चाहते हैं – यह स्पष्ट करना भी ज़रूरी था |

  3. अजि साहेब ये सरकार ही तो सारी समस्यओ, सारी मुसीबतो की जड है. इस जड को काटना ही सारी समस्यओ के समाधान का पहला पग होगा.

  4. क्या कहें? शायद चार वर्ष पहले अमरीका में शासकीय वैश्विक हिंदी सम्मेलन हुआ था, जिसमें अमरीका के हिंदी हितैषियों को ही बोलने के लिए समय दिया नहीं गया था.

    अमरीका के भारतीय विद्या भवन के निदेशक डॉ. जयरामन, जो शुद्ध हिंदी में अस्खलित भाषण देते हैं. संस्कृत पर भी जिनका अधिकार है, उन्हें भी बोलने के लिए समय नहीं मिल पाया.

    एक तकनीकी शब्द रचना पर मेरे द्वारा शोध पत्र भेजा गया था, उसकी स्वीकृति -अस्वीकृति का कोई
    प्रत्युत्तर दिया ना गया. शोधपत्र को दूर-मुद्रण (फैक्स) से दूतावास में भिजवाते थे.

    सुना था की भारत से चम्मच लोगों को, जनता का धन देकर अमरीका देखने भेजा गया था, जो आते ही, सम्मेलन में नहीं, पर न्युयोर्क देखने चले जाते थे.
    हिंदी की हीन दीन अवस्था के लिए शासन ही उत्तरदायी है.

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