कविता

भीड़ में क्या मांगूं ख़ुदा से

-क़ैस जौनपुरी-
poem

रमज़ान का महीना है
भीड़ में क्या मांगूं ख़ुदा से

दुनियाभर के मुसलमान एक साथ रोज़ा रखते हैं
सुना है रोज़े में हर दुआ क़ुबूल भी होती है
अल्लाह मियां के पास काम बहुत बढ़ गया होगा
आख़िर इतने लोगों की दुआएं जो सुननी हैं
और फिर सिर्फ़ मुसलमान ही क्यूं
उन्हें तो पूरी दुनिया का भी ख़याल रखना है
आख़िर पूरी दुनिया उन्हीं ने तो बनाई है

सोचता हूं अकेले में मांगूं ख़ुदा से
ताकि वो सुन ले
साल में किसी ऐसे दिन रोज़ा रखूं
जिस दिन कुछ न हो
और ख़ुदा फुर्सत में हो

सोचता हूं हज़ भी तब जाऊं
जब वहां कोई न हो
सिर्फ़ मैं रहूं
और मेरा ख़ुदा रहे
ताकि अच्छे से मुलाकात हो सके
हर साल इतनी भीड़ जमा हो जाती है
धक्का-मुक्की में भला ख़ुदा कहाँ से मिलेगा
मैं तो तब जाऊंगा जब हज का महीना न होगा
सब खाली-खाली रहेगा
फिर एक सजदा…
और फिर उठने की कोई ज़रूरत नहीं
वहीँ आदम की निशानी पे
जहां वो उतरे थे
वहीँ बैठ जाऊंगा
और कहूंगा
इंसान को तुमने यहीं उतारा था
आदम यहीं उतरे थे
मैं आदम के खानदान से हूं
और मैं आदम की जात से बहुत परेशान हो चुका हूं
आपने किस काम के लिए भेजा था
और सब क्या कर रहे हैं

बस, अब मैं वापस नहीं जाऊंगा
अब मुझे यहीं से अपने पास बुला लो…

अरसा हुआ
तुम्हें देखा नहीं है