कविता

मेहनत किसान की

-रवि श्रीवास्तव-
poem

आखिर हम कैसे भूल गये, मेहनत किसान की,
दिन हो या रात उसने, परिश्रम तमाम की।

जाड़े की मौसम वो ठंड से बड़े,
तब जाके भरते, देश में फसल के घड़े।

गर्मी की तेज धूप से, पैर उसका जले,
मेहनत से उनकी देश में, भुखमरी टले।

बरसात के मौसम में, न है भीगने का डर,
कंधों पर रखकर फावड़ा, चल दिये केत पर।

जिनकी कृपा से आज भी,चलता है सारा देश,
सरकार उनके बीच में, पैदा हुआ मतभेद।

मेहनत किसान की, भूल वो रहे,
कर्ज़, ग़रीबी, भुखमरी से, तंग हो किसान मरे।

दूसरों का पेट भर, अपनी जान तो दी,
आखिर हम कैसे भूल गये , मेहनत किसान की।

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मुस्कुराहट फूल की

कांटों के बीच खिलकर भी, मुस्कुराता शान से
तोड़ लेते लोग मुझको, बस अकेला जान के।

खुशबू सो अपनी मैं तो, महकाता पूरा ये बाग
साथ खेलने को है मेरे, भौंरों और तितलियों का साथ।

खुशियां हो य हो ग़म, आता हूं मैं सब में काम
मुझे चढ़ाकर ईश्वर पर, जपते हैं सब प्रभु का नाम।

शोभा मेरी बढ़ी निराली, सबको जो आकर्षित करती
प्यार दोस्ती और शान्ति का, मुझसे ही मिसाल बनती।

सुंदरता है मेरी निराली, खिलता हूं हर पौधे हर डाली
राह मेरे दुख दर्द भरे है, हर जगह मेरे शत्रु खड़े हैं।

जीवन अपना न्यौछावर करता, दूसरों को देकर खुशियां
बस इतनी विनती है तुमसे, तोड़ो न मेरी कलियां।

सीखोगे मुझसे बहुत कुछ, सोचोंगे जब ध्यान से
कांटों के बीच खिलकर भी, मुस्कुराता शान से

तोड़ लेते लोग मुझको, बस अकेला जान के।

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पानी की बर्बादी

मत करो मुझको बर्बाद, इतना तो तुम रखो याद।
प्यासे ही तुम रह जाओगे, मेरे बिना न जी पाओगे।

कब तक बर्बादी का मेरे, तुम तमाशा देखोगे,
संकट आएगा जब तुम पर, तब मेरे बारे में सोचोगे।

संसार में रहने वालों को, मेरी जरूरत पड़ती है,
मेरी बर्बादी के कारण, मेरी उम्र भी घटती है।

ऐसा न हो इक दिन मैं, इस दुनिया से चला जाऊं
खत्म हो जाए खेल मेरा, लौट के फिर न वापस आऊं।

पछताओगे रोओगे तुम, नहीं बनेगी कोई बात,
सोचो समझो करो फैसला, अब तो ये है तुम्हारे हाथ।

मेरे बिना इस दुनिया में, जीना सबका मुश्किल है,
अपनी नही भविष्य को सोचो, भविष्य भी इसमें शामिल है।

मुझे ग्रहण कर सभी जीव, अपनी प्यास बुझाते हैं,
कमी मेरी पड़ गई अगर तो, हर तरफ सूखे पड़ जाते हैं।

सतर्क हो जाओ बात मान लो, मेरी यही कहानी है।

करो फैसला मिलकर आज, मत करो मुझको बर्बाद,
इतना तो तुम रखो याद।