कला-संस्कृति

हिन्दुत्व की रक्षा : भाग २

ॐ श्रीगणेशाय नमः ।

हिन्दुत्व की रक्षा, भाग २ – ’भौतिक संसार’ में विजय के लिए भी अध्यात्म उपयोगी

 

विशेष : यह त्रिभागीय शृङ्खला का द्वितीय भाग है । प्रथम भाग यहाँ पढ़ा जा सकता है – “https://www.pravakta.com/defend-the-hindutva-part-1-a-message”

 

अभी तक हमने जाना कि हिन्दुत्व की रक्षा के लिए यह अनिवार्य है कि हम हिन्दुत्व को अपना साधारण व्यवहार बना लें (वस्तुतः तभी हम “हिन्दू” कहलाने योग्य हैं) । केवल हिन्दुत्व को समझना या उस पर गर्व करना पर्याप्त नहीं है ।

 

तो आगे प्रश्न यह उठता है, कि हिन्दुत्व को व्यवहार बनाने का तात्पर्य क्या है ? अन्य शब्दों में, ऐसे कौन से गुण हैं जिनके हमारे व्यवहार में आने से हम यह कह सकते हैं कि हिन्दुत्व हमारे व्यवहार में है ?

 

इसमें कोई भी सन्देह नहीं है, कि हिन्दुत्व का आधार अध्यात्म है । ऐसा मानना कि अध्यात्म और भौतिकता में परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं है, यह अज्ञान है । लेखक के मत में, इस भौतिक संसार में सुखी रहने के लिए, यहाँ विजय प्राप्त करने के लिए, अध्यात्म उपयोगी भी है और आवश्यक भी । यह सोच लेना कि अध्यात्म का अवलम्बन केवल वृद्धावस्था में ही करना पर्याप्त है, केवल हमारे अज्ञान को ही प्रमाणित करता है । जीवन के किसी भी छोटे या बड़े प्रसङ्ग में अध्यात्म का अवलम्बन हमारे लिए महान् सहायक सिद्ध होता है ।

 

अब २ प्रश्न उठते हैं –

 

१. क्या यह कहना कि संसार का हर व्यक्ति अध्यात्म का अवलम्बन करे, व्यावहारिक (practical) है ?

 

२. यदि कोई अध्यात्म का अवलम्बन करना भी चाहे, तो वह कैसे इस मार्ग में प्रवेश कर सकता है और कैसे भौतिक संसार में इसका उपयोग कर सकता है ?

 

लेखक इसी क्रम में दोनों प्रश्नों के उत्तर आगे देता है ।

 

१. नहीं, यह कहना कदाऽपि व्यावहारिक नहीं है, कि जन जन अध्यात्म का अवलम्बन करे । परन्तु यह कहना उचित है, कि हर वह व्यक्ति जो अध्यात्म का अवलम्बन करना चाहता है, वह ऐसा कर सकता है । ध्येयहीन व्यक्ति अध्यात्म का अवलम्बन प्रायः नहीं कर सकता, परन्तु ध्येयवान् व्यक्ति ऐसा कर सकता है, अपने ध्येय की प्राप्ति हेतु । फिर ध्येय स्वयं चाहे आध्यात्मिक प्रगति का हो, या भौतिक उपलब्धि का । विशेषतः, जिनका ध्येय हिन्दुत्व की रक्षा का है, उन्हें तो ऐसा अवश्य करना ही चाहिए, क्यूँकि अध्यात्म के बिना हिन्दुत्व का नाममात्र ही शेष रह सकता है, या प्रायः वह भी नहीं ।

 

२. अध्यात्म मार्ग पर प्रवेश और भौतिक ध्येय की उपलद्भि के लिए अध्यात्म का उपयोग कैसे हो, विशेषतः उनके द्वारा जो हिन्दुत्व की रक्षा के इच्छुक हैं, इसका उत्तर लेखक अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर देने का प्रयास कर रहा है । साथ ही लेखक का पाठकों से निवेदन है, कि अपने स्वतन्त्र विचार प्रस्तुत कर इस उत्तर को परिपूर्णता की ओर ले जाने में सहायक हों ।

 

यहाँ ३ तत्त्वों को मुख्य मानता हूँ –

 

२.क) देह के अन्दर के ६ शत्रुओं को पहचान कर उनका निग्रह करने का प्रयास आवश्यक है । ये शत्रु हैं – काम, क्रोध, मद (= अहंकार, या यह मानना कि ’मुझे’ सब ज्ञात है, ’मेरा’ कहा या किया सब उचित है, आदि), मोह (सांसारिक घटनाओं को ही परं सत्य मान लेना), लोभ और मात्सर्य (जिसमें ईर्ष्या, घृणा और द्वेष भी अन्तर्भावित हैं) । सर्वप्रथम तो, इन ६ शत्रुओं के नाम याद रखें । द्वितीय, प्रतिदिन अपने ही व्यवहार का सूक्ष्मता से अवलोकन करें । सहसा ही क्रोध मन में प्रविष्ट कर कुछ समय बाद निकल गया । अब स्वयं को स्मरण कराएँ, “मुझे क्रोध आया था, कारण जो भी हो, नहीं आना चाहिए था” इति । हमने किसी (दुर्व्यवहारी को ही) घृणा (disgust) या द्वेष (hatred) की दृष्टि से देखा, मन ही मन उसका अपमान किया, तो बाद में, शान्त होने पर, स्वयं को स्मरण कराएँ, “ऐसा करने से हानि केवल मेरी ही हुई और लाभ किसी का नहीं” इति । किसी घटना का वृत्तान्त जानकर हम अत्यन्त दुखी हों, तो स्वयं को समझाएँ, “यह घटना सांसारिक है, इसलिए मेरा मोह ही है, फिर जैसी भगवान् की इच्छा” इति । जब हम इस प्रकार आत्मावलोकन करके स्वयं के भीतर इन ६ शत्रुओं को देखने के आदि हो जाते हैं, तब स्वतः ही हमारा अपने मन पर संयम वर्धित हो जाता है और हम धीरे धीरे प्रतिप्रसङ्ग इनके मन में निवेश की कालावधि को न्यून करते हुए इन शत्रुओं का निग्रह करने के योग्य भी हो जाते हैं !

 

२.ख) त्याग और परोपकार के अभ्यास के लिए निरन्तर प्रयत्न करना आवश्यक है । त्याग एक योग्यता है, एक सिद्धि है । इसके प्रयास से अपनी स्पृहा (desire) को वश में किया जा सकता है, जिससे प्रचण्ड बल प्राप्त होता है । क्यूँकि, स्पृहा के कारण ही मनुष्य दूसरों का दास बनता है, और निःस्पृह व्यक्ति ही पूर्णतः स्वतन्त्र होता है । अपने हितों का चिन्तन करे बिना परोपकार में निरत रहना सज्जनों का गुण बताया गया है । सर्वप्रथम अपनी निजी स्पृहा का निग्रह करते हुए अपने कुटुम्ब के लिए एक आदर्श बनना चाहिए । कुटुम्ब को निःस्पृहता का अवलम्बन करते हुए समाज के लिए आदर्श बनना चाहिए । यह हिन्दुत्व की रक्षा के लिए उपयोगी व आवश्यक है । स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि त्याग और परोपकार ही भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं, इन दोनों का वर्धन करने से शेष सब कुछ स्वतः ही हो जाएगा । स्वामीजी के शब्दों में –

“The national ideals of India are renunciation and service. Intensify her in those channels, and the rest will take care of itself” |

 

२.ग) धर्म एक बन्धन है, एक मर्यादा है । अतः धर्म ही ध्येयप्राप्ति के मार्ग को और कठिन बनाता है । परन्तु, जहाँ धर्म का उल्लङ्घन हो, वहाँ हिन्दुत्व का भी उल्लङ्घन माना जाना चाहिए । अन्य शब्दों में, हिन्दुत्व की रक्षा के इच्छुक हमको को सर्वप्रथम धर्म की रक्षा का महत्त्व समझना चाहिए । शत्रु को धर्म का उल्लङ्घन करते देख यदि हमने भी उसका अनुसरण करते हुए धर्म का उल्लङ्घन कर दिया, तो उसमें और हममें क्या अन्तर रह गया ? इतिहास के उदाहरणों पर आधारित भय के वश में भी धर्म का उल्लङ्घन करना युक्त नहीं है । एक बार भी धर्म का उल्लङ्घन करने से व्यक्ति धर्मोल्लङ्घन का आदि बन जाता है । पश्चात् विभिन्न परिस्थितियों में वह यह नहीं देखता कि धर्मोल्लङ्घन हिन्दुत्व की रक्षा के लिए है या निजार्थ के लिए । अतः इसके प्रति अति सचेत रहना चाहिए ।

 

कुछ प्रेरणादायी उदाहरण

अधोलिखित सभी ’भौतिक’ उदाहरणों में ’अध्यात्म’ के अंश को दर्शाने का प्रयास किया है ।

 

अ. जब अर्जुन और दुर्योधन को श्रीकृष्ण ने २ विकल्पों – अपनी सम्पूर्ण नारायणी सेना और शस्त्र के बिना स्वयं – में से एक चुनने को कहा था, तो अर्जुन ने बिना किसी शङ्का के, नारायणी सेना के ’लोभ’ को छोड़कर, अध्यात्म की प्रतिमूर्ति श्रीकृष्ण को ही चुना था । नारायणी सेना भी अध्यात्म और धर्म के सामने पराजित हुई थी । तो हिन्दुत्व के रक्षक हम से भी अपेक्षा यही है कि अपनी सेना बनाने से पूर्व सर्वप्रथम तो अध्यात्म का अवलम्बन करें – अध्यात्म के त्याग के पश्चात् तो नारायणी सेना भी टिकी नहीं थी ।

 

आ. गीता के अमृतोपदेश को सुनने के पश्चात् अर्जुन अपने बन्धु-बान्धवों का वध करने के लिए तो सिद्ध हो गया था, परन्तु अपने मन में उनके प्रति ’द्वेष’ रखकर या राज्य के ’लोभ’ में नहीं ! प्रायः यह कहना भी उचित होगा कि क्यूँकि अर्जुन ने उपर्युक्त ६ शत्रुओं को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया था, अतः ही अर्जुन गीतोपदेश को सुनने-समझने योग्य था । इसलिए हिन्दुत्व के रक्षक हमारे मन में भी यदि ’द्वेष’, ’घृणा’ या ’क्रोध’ उत्पन्न होते हों, तो समझ लेना चाहिए कि अभी हम धर्मयुद्ध के लिए सिद्ध नहीं हैं ।

 

इ. पितामह भीष्म जैसे महाज्ञानी व महाबली योद्धा ने, यह जानते हुए भी कि दुर्योधन अधर्म के मार्ग पर चल रहा था और पाण्डव धर्म के मार्ग पर, दुर्योधन का ही साथ क्यूँ दिया ? दुर्योधन के प्रति न उनका ’राग’ था, और न पाण्डवों से उन्हें ’द्वेष’ । विजय और पराजय के बीच का अन्तर ’मोह’ के कारण प्रतीत होता है, वे ऐसा जानते थे । लेखक के मत में, अपने ’प्रजाधर्म की रक्षा’ करने के लिए ही उन्होंने कौरवों का साथ दिया, और वह भी अपनी सम्पूर्ण शक्ति सहित ।

 

ई. सिख गुरुओं ने अपने प्राणों का ’त्याग’ समाज के स्वातन्त्र्य की रक्षा हेतु किया था ।

 

उ. महाभारत के युद्ध के पश्चात्, द्वापर युद्ध के अन्त में, ५६ कोटि यदुवंशी, श्रीकृष्ण के सम्बन्धी, भीषण युद्ध करते हुए एक-दूसरे का रक्त बहाने के लिए व वध करने के लिए उद्यत हो गए । श्रीमद्भागवत्पुराण के रूप में राजा परीक्षित को श्री शुकदेव ने यह प्रसङ्ग सुनाया था । मोह माया से बने इस संसार में ऐसी घटनाओं को अपनी क्षीण बुद्धि से समझना अत्यन्त कठिन है, यदि असम्भव नहीं । उपर्युक्त प्रसङ्ग से यही सीख मिलती है, कि होता वैसा ही है, जैसी हरि की इच्छा होती है । धर्म को धैर्यपूर्वक समझ कर, उस के मार्ग पर चलने का प्रयास, वह भी फल की इच्छा से मुक्त होकर, करना आवश्यक है । यह बात गीता के इस श्लोक में भगवान् ने कही है –

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्म फलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

 

अर्थात्, क्या कर्म करना है, इसके निर्णय का अधिकार तो जीव को प्राप्त है, परन्तु उस कर्म का फल या प्रभाव क्या होगा, इसके निर्णय का अधिकार उसे प्राप्त नहीं है । अतः कर्म को फल की अपेक्षा से नहीं करना चाहिए, अपितु धर्म के पालन के लिए करना चाहिए । अपनी इच्छाओं का समर्पण हरि के चरणों में करना चाहिए, उनकी इच्छा से प्रतिपल अपनी इच्छा मिला देनी चाहिए । श्लोक के अन्तिम पाद (quarter) पर भी ध्यान देना आवश्यक है, जो बतलाना है कि, हम ऐसा न समझ लें कि यदि फल अपने हाथ में नहीं है, तो कर्म करने का कोई प्रयोजन भी नहीं है । कर्म करना आवश्यक है, धर्म की रक्षा के लिए, क्यूँकि धर्म से ही हम बन्धे हैं । कर्म करे बिना भी हम बन्धनमुक्त नहीं हो सकते ।

 

भगवान् हिन्दुत्व के रक्षकों को अध्यात्म-बल से युक्त कर, और उनके विवेक का वर्धन कर, उन्हें विजय का प्रसाद प्रदान करें !