होली है असत्य पर सत्य की विजय का पर्व

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ललित गर्ग
भारत संस्कृति में त्योहारों एवं उत्सवों का आदि काल से ही काफी महत्व रहा है। होली भी एक ऐसा ही त्योहार है, जिसका धार्मिक ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से विशेष महत्व है। पौराणिक मान्यताओं की रोशनी में होली के त्योहार का विराट् समायोजन बदलते परिवेश में विविधताओं का संगम बन गया है। इस अवसर पर रंग, गुलाल डालकर अपने इष्ट मित्रों, प्रियजनों को रंगीन माहौल से सराबोर करने की परम्परा है, जो वर्षों से चली आ रही है। एक तरह से देखा जाए तो यह उत्सव प्रसन्नता को मिल-बांटने का एक अपूर्व अवसर होता है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ पर मनाये जाने वाले सभी त्यौहार समाज में मानवीय गुणों को स्थापित करके लोगों में प्रेम, एकता एवं सद्भावना को बढ़ाते हैं। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहारों के पीछे की भावना मानवीय गरिमा को समृद्धि प्रदान करना होता है। यही कारण है कि भारत में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं उत्सवों में सभी धर्मों के लोग आदर के साथ मिलजुल कर मनाते हैं।
होली के त्यौहार में विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ होती हैंें, बालक गाँव के बाहर से लकड़ी तथा कंडे लाकर ढेर लगाते हैं। होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन किया जाता है, अट्टहास, किलकारियों तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश हो जाता है। होलिका-दहन से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। वस्तुतः होली आनंदोल्लास का पर्व है। इस पर्व के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध कथा प्रह्लाद तथा होलिका के संबंध में भी है। नारदपुराण में बताया गया है कि हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का पुत्र प्रह्लाद अनन्य हरि-भक्त था, जबकि स्वयं हिरण्यकशिपु नारायण को अपना परम-शत्रु मानता था। उसके राज्य में नारायण अथवा श्रीहरि नाम के उच्चारण पर भी कठोर दंड की व्यवस्था थी। अपने पुत्र को ही हरि-भक्त देखकर उसने कई बार चेतावनी दी, किंतु प्रह्लाद जैसा परम भक्त नित्य प्रभु-भक्ति में लीन रहता था। हारकर उसके पिता ने कई बार विभिन्न प्रकार के उपाय करके उसे मार डालना चाहा। किंतु, हर बार नारायण की कृपा से वह जीवित बच गया। हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। अतः वह अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश कर गई। किंतु प्रभु-कृपा से प्रह्लाद सकुशल जीवित निकल आया और होलिका जलकर भस्म हो गई। होली का त्योहार ‘असत्य पर सत्य की विजय’ और ‘दुराचार पर सदाचार की विजय’ का प्रतीक है। इस प्रकार होली का पर्व सत्य, न्याय, भक्ति और विश्वास की विजय तथा अन्याय, पाप तथा राक्षसी वृत्तियों के विनाश का भी प्रतीक है।
होली के पर्व को मनाने के लिये और भी बहुत ही पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। उत्तर पूर्व भारत में होलिकादहन को भगवान कृष्ण द्वारा राक्षसी पूतना के वध दिवस के रुप में जोड़कर, पूतना दहने के रूप में मनाया जाता है तो दक्षिण भारत में मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को तीसरा नेत्र खोल भस्म कर दिया था ओर उनकी राख को अपने शरीर पर मल कर नृत्य किया था। तत्पश्चात् कामदेव की पत्नी रति के दुख से द्रवित होकर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया, जिससे प्रसन्न होकर देवताओं ने रंगों की वर्षा की। इसी कारण होली की पूर्व संध्या पर दक्षिण भारत में अग्नि प्रज्ज्वलित कर उसमें गन्ना, आम की बौर और चन्दन डाला जाता है। यहाँ गन्ना कामदेव के धनुष, आम की बौर कामदेव के बाण, प्रज्ज्वलित अग्नि शिव द्वारा कामदेव का दहन एवं चन्दन की आहुति कामदेव को आग से हुई जलन हेतु शांत करने का प्रतीक है।
होली के उपलक्ष्य में अनेक सांस्कृतिक एवं लोक चेतना से जुड़े कार्यक्रम होते हैं। महानगरीय संस्कृति में होली मिलन के आयोजनों ने होली को एक नया उल्लास एवं उमंग का रूप दिया है। इन आयोजनों में बहुत शालीन तरीके से गाने बजाने के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। घूमर जो होली से जुड़ा एक राजस्थानी कार्यक्रम है उसमें लोग मस्त हो जाते हैं। चंदन का तिलक और ठंडाई के साथ सामूहिक भोज इस त्यौहार को गरिमामय छबि प्रदान करते हैं। देर रात तक चंग की धुंकार, घूमर, डांडिया नृत्य और विभिन्न क्षेत्रों की गायन मंडलियाँ अपने प्रदर्शन से रात बढ़ने के साथ-साथ अपनी मस्ती और खुशी को बढ़ाते हैं। आज का सारा माहौल प्रदूषित हो चुका है, जीवन के सारे रंग फिके पड़ गए हैं। न कहीं आपसी विश्वास रहा, न किसी का परस्पर प्यार, न सहयोग की उदात्त भावना रही, न संघर्ष में एकता का स्वर उठा। बिखराव की भीड़ में न किसी ने हाथ थामा, न किसी ने आग्रह की पकड़ छोड़ी। यूँ लगता है सब कुछ खोकर विभक्त मन अकेला खड़ा है फिर से सब कुछ पाने की आशा में। कितनी झूठी है यह प्रतीक्षा, कितनी अर्थ शून्य है यह अगवानी। हम भी भविष्य की अनगिनत संभावनाओं को साथ लिए आओ फिर से एक सचेतन माहौल बनाएँ। उसमें सच्चाई का रंग भरने का प्राणवान संकल्प करें। होली के लिए माहौल भी चाहिए और मन भी चाहिए, ऐसा मन जहाँ हम सब एक हों और मन की गंदी परतों को उखाड़ फेकें ताकि अविभक्त मन के आइने में प्रतिबिम्बित सभी चेहरे हमें अपने लगें।
होली का आगमन बसंत ऋतु की शुरुआत के करीब-करीब आस-पास होता है। लगभग यह वक्त है, जब शरद ऋतु को अलविदा कहा जाता है और उसका स्थान वसंत ऋतु ले लेती है। इन दिनों हल्की-हल्की बयारें चलने लगती हैं, जिसे लोक भाषा में फागुन चलने लगा है, ऐसा भी कह दिया जाता है। यह मौसमी बदलाव व्यक्ति-व्यक्ति के मन में सहज प्रसन्नता, स्फूर्ति पैदा करता है और साथ ही कुछ नया करने की तमन्ना के साथ-साथ समाज का हर सदस्य अपनी प्रसन्नता का इज़्ाहार होली उत्सव के माध्यम से प्रकट करता है। इससे सामाजिक समरसता के भाव भी वर्धमान बनते हैं। भारतीय लोक जीवन में होली की जड़ें काफी गहरी जम चुकी हैं।
होली शब्द का अंग्रेजी भाषा में अर्थ होता है पवित्रता। पवित्रता प्रत्येक व्यक्ति को काम्य होती है और इस त्योहार के साथ यदि पवित्रता की विरासत का जुड़ाव होता है तो इस पर्व की महत्ता शतगुणित हो जाती है। प्रश्न है कि प्रसन्नता का यह आलम जो होली के दिनों में जुनून बन जाता है, कितना स्थायी है? डफली की धुन एवं डांडिया रास की झंकार में मदमस्त मानसिकता ने होली जैसे त्योहार की उपादेयता को मात्र इसी दायरे तक सीमित कर दिया, जिसे तात्कालिक खुशी कह सकते हैं, जबकि अपेक्षा है कि रंगों की इस परम्परा को दीर्घजीविता प्रदान की जाए। स्नेह और सम्मान का, प्यार और मुहब्बत का, मैत्री और समरसता का ऐसा शमां बांधना चाहिए कि जिसकी बिसात पर मानव कुछ नया भी करने को प्रेरित हो सके।
पवित्रता को मुख्य रूप से तीन कोणों से देखा जा सकता है। इसका प्रथम बिन्दु है-मानसिक पवित्रता। जब तक व्यक्ति स्वयं के भीतर से पवित्रता को उद्घाटित करने की मानसिक तैयारी में नहीं होगा, उसके अगले पड़ाव बेमानी होंगे। यदि ध्येय के प्रति मन ईमानदार है, सोच समर्पित है तो मानना पड़ेगा कि यात्रा का प्रस्थान सही है।
दूसरा बिन्दु है वाणी की पवित्रता। अनेक बार देखा गया है कि कड़वी-कसैली वाणी समूचे तंत्र को ध्वस्त कर देती है। भले ही वाक्पटुता एवं ऊपरी मुलम्मे के शब्द समूह से दुष्प्रभाव को रोकने की कोशिश हो, पर वाणी की मधुरता एवं विवेकशीलता ही ऐसे आधार हैं जिससे व्यक्ति पारस्परिकता के सूत्र में आबद्ध रहता है।
पवित्रता का एक बिन्दु है- व्यवहार की पवित्रता। जब तक हमारे व्यवहार एवं आचरण पवित्र नहीं होंगे, संभव है सब कुछ प्राप्त करके भी हम कुछ नहीं पाने की स्थिति में आ जाएं। उस केलकुलेटर की तरह, जिसने प्लस-माइनस की लम्बी कसरत की, पर अचानक हाथ जीरो पर दब गया और स्क्रीन पर सब कुछ साफ हो गया। पवित्रता को विस्तृत परिवेश में देखें तो बदलते परिप्रेक्ष्य में इसके कई अन्य रूप भी हैं। व्यक्ति का रहन-सहन, खान-पान, क्रिया-कलाप, व्यापार-व्यवसाय किसी भी क्षेत्र में जाए, पवित्रता की आवश्यकता नितांत रूप से प्रकट होती है।
होली के पावन प्रसंग पर हमें इस बात के लिए दृढ़ संकल्पित होना होगा कि अपने मन, वाणी और व्यवहारों में अंतर्निहित आसुरी प्रवृत्तियों का परिष्कार करें एवं उसके स्थान पर पवित्रता की देवी को प्रतिष्ठित करें, जोड़-घटाव घटित हुए हैं, जिन्होंने व्यक्ति को कहीं राजमार्ग, तो कहीं अंधी गलियों में जाने को विवश किया है। राजनैतिक दृष्टि से भी इस शताब्दी का पहला दशक अनेक परिदृश्य उपस्थित कर चुका है। जापान का भूकम्प और सुनामी इस सदी के नाम ही लिखे जा चुके हैं।
होली जैसे त्यौहार में जब अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, ब्राह्मण-शूद्र आदि सब का भेद मिट जाता है, तब ऐसी भावना करनी चाहिए कि होली की अग्नि में हमारी समस्त पीड़ाएँ दुःख, चिंताएँ, द्वेष-भाव आदि जल जाएँ तथा जीवन में प्रसन्नता, हर्षोल्लास तथा आनंद का रंग बिखर जाए। होली का कोई-न-कोई संकल्प हो और यह संकल्प हो सकता है कि हम स्वयं शांतिपूर्ण जीवन जीये और सभी के लिये शांतिपूर्ण जीवन की कामना करें। ऐसा संकल्प और ऐसा जीवन सचमुच होली को सार्थक बना सकते हैं।

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