समलैंगिकता मानसिक रोग ही नहीं, समाज व प्रकृति के विरूद्ध अपराध भी

Homosexuality-2देखा जाये तो हमारी वर्तमान सोच में बड़ी विसंगतियां हैं, बड़ी विकृतियां हैं, बड़ा विरोधाभास भी है। एक ओर तो हम अपनी संस्कृति, अपनी भारतीयता तथा अपने आदर्शों पर बड़ा गर्व करते हैं तो दूसरी ओर हम उदारवादी भी बनना चाहते हैं। बिना सोचे-समझे पश्चिम की नकल भी मारना चाहते हैं चाहे वह हमारे आदर्शों व संस्कृति के विरूद्ध ही क्यों न हो।

यही भौंड़ी नकल मारने की कोशिश कर रहे हैं कुछ लोग समलैंगिकता की के पक्ष बनकर।

पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मसले को और भी प्रासंगिक बना दिया और एक ज़ोर की चर्चा भी छिड़ गई है।

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 तत्कालीन अंग्रेज़ सरकार ने तब भारतीय मान-मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुये ही बनाई थी जिसके अनुसार किसी स्त्री, पुरूष या पशु से समलैंगिक यौन प्रक्रिया को प्रकृति के विरूद्ध आचरण की संज्ञा देकर इसे अपराध करार दिया गया था।

माननीय न्यायालय ने इस अक्षम्य कुकर्म को एक मानवीय व्यवहार की संज्ञा देकर तो बड़ा ही अन्याय किया है और तर्क भी अजीब प्रस्तुत किया है। इसे अपराध की सूची से खारिज करते हुये कहा कि ऐसा करना समानता के भाव को मान्यता देना है जो हर व्यक्ति की मान-प्रतिष्ठा को संवर्धित करता है।

व्यक्ति अपनी मान-प्रतिष्ठा अपने आदर्श आचरण व व्यवहार से अर्जित करता है। मर्यादाओं तथा मान्यताओं के पालन से प्राप्त करता है। कानून व सामाजिक मान्यताओं के आदर से अर्जित करता है। इनके उल्लंघन व इनको तोड़ कर नहीं। एक राजनैतिक व सामाजिक व्यक्ति अपनी मान-प्रतिष्ठा ग्रहण करता है सामाजिक, राजनैतिक व कानूनी आस्थाओं, मर्यादाओं तथा संस्कृति के अनुसार आचरण व व्यवहार से न कि इन सब के उल्लंघन से। माननीय न्यायालय तो इनके उल्लंघन करने वालों और इनके पालन करने वालों को समान मान-प्रतिष्ठा देना चाहता है।

समलैंगिकता तो प्रकृति के कानून के विरूद्ध है। प्रकृति तो एक ही सम्बंध को मान्यता देती है और वह है स्त्रीलिंग और पुलिंग को। इस प्राकृतिक व्यवस्था का पालन सारी प्राकृतिक संरचना करती है। पशु-पक्षी भी ऐसा आचरण नहीं करते। तो क्या मनुष्य अपने आचरण में पशु-पक्षियों से भी गिर जायेगा?

माननीय न्यायालय ने आपसी सहमति से समलैंगिक संम्बन्धों को संवैधानिक करार देते हुये लगता है कि धारा 377 के उस प्रावधान को ध्यान में नहीं रखा जिस में किसी मनुष्य का किसी पशु के साथ भी ऐसा आचार अपराध है। तो इस निर्णय का यह अर्थ भी निकाल लिया जाये कि मानव का किसी पशु के साथ ऐसा आचरण अब अपराध नहीं रहा क्योंकि पशु की सहमति या असहमति कोई साबित नहीं कर सकता? न ही कोई न्यायालय इस पर अपना निणर्य दे सकता है।

माननीय न्यायालय ने धारा 377 को संविधान के विरूध्द बताते हुये तीन तर्क दिये हैं। एक, कि यह संविधान की धारा 14 का उल्लंघन करता है जो हर व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता और संरक्षण का प्रावधान करता है। दो, कि यह धारा 15 का उल्लंघन करता है जो किसी व्यक्ति के लिंग के आधार पर भेदभाव को अवैध करा देता है। तीन, कि यह यह धारा 21 का उल्लंघन है जो कहती है कि ”किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नही”।

समलैंगिकता व्यक्तिगत स्वतन्त्रता नहीं, उच्छृंखलता है और संविधान उच्छृंखलता की रक्षा करने का कही प्रावधान नहीं करता। धारा 21 तो साफ कहती है कि ”विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही” किसी को ”उसके प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता से” ही ”वंचित किया जायेगा”। और ”विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही” तो किया गया है।

समलैंगिकता प्रकृति के नियमों के विरूध्द आचार है। इसे कानून द्वारा अपराध घोषित किया गया है। यदि ”प्राण या दैहिक स्वतन्त्रता” की ही रक्षा करनी है तो तो बहुत से कानूनों को हटाना पड़ेगा और बहुत से अपराध मुआफ करने पड़ेंगे। प्रकृति की हर चीज़ पर प्राणी का अधिकार है वह चाहे वन हों या पानी, धरती या पुरूष-महिला के बीच सम्बन्ध। इस स्वतन्त्रता की रक्षा करनी है तो हम किसी व्यक्ति को अपनी ही भूमि-खेत में खड़े वन से वृक्ष काटने के मौलिक अधिकार से कैसे वंचित कर सकते है? अपनी ही भूमि, अपने जलस्रोत या नदि-नाले से जैसी चाहे छेड़छाड़ करे, उससे कैसे रोका जा सकता हैं? व्यक्ति लिफाफे या थैले काग़ज़ के बरते या पालीथीन के। उसकी स्वतन्त्रता पर आंच नहीं आनी चाहिये।

किसी भी महिला-पुरूष को परपुरूष-परस्त्री से सम्भोग से रोकना भी तो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर आघात है। विवाह कानून को भी निरस्त करना होगा क्योंकि यह परस्त्री या परपुरूष से सहमति के आधार पर सम्भेग को व्यभिचार (परस्त्रीगमन या परपुरूषगमन) का अपराधी बनाता है।

कानून बनाने या उसकी व्याख्या करने वालों की भी अजीब दास्तान है। हम पारस्परिक सहमति से व्यभिचार को तो ग्राहय मानने को तैयार हैं, पर किसी को अपने जीवन से तंग आकर अपनी आत्महत्या या आत्मदाह की स्वतन्त्रता देने को तैयार नहीं। हम अनेकों समाचार पढते हैं जिस में लोगों ने सरकार व न्यायालय से अपने असाघ्य रोगों के कारण अनेकों मास व वर्ष प्रतिदिन तड़प-तड़प कर अमानवीय जीवन जीने से स्वयं मरने की अनुमति मांगी है। पिछले दिनों एक समाचार आया कि एक अभागी महिला ने अपने बच्चे के प्राण की मुक्ति की सरकार से याचना की थी क्योंकि असाध्य रोग से पीड़ित अपने बच्चें को हर पल तड़पता देखना उसके लिये असहय हो गया थां। पर कानून के ये रखवाले इन असहाय पीड़ितों की इस स्वतन्त्रता का सम्मान करने के साहस का परिचय नहीं देते।

आत्महत्या क्यों अपराध है? यह भी तो व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत सहमति से ही अपनी निजि स्वतन्त्रता का तो उपयोग करता है। व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता क्यों नहीं?

हमें अपनी इस उदारवादी स्वतन्त्रता से बचना होगा। समाज में रहना है तो सामाजिक कर्तव्यों, नियमों, मूल्यों व परम्पराओं का निर्वाहन, सम्मान करना ही होगा। भारत को भारत ही रहने देना होगा। दूसरे व्यक्तियों व दूसरे देशों की मान्यताओं की विवेकहीन, भौंड़ी नकल से बचना होगा। दूसरों की सब बातें, सब मान्यतायें, सब मूल्य सही व अतिउत्तम और अपने सब गलत और हीन — गुलामी की इस हीन भावना व मानसिकता से अपने आप को उबारना होगा।

समलैंगिकता को विश्व का कोई धर्म-सम्प्रदाय-समुदाय स्वीकार नहीं करता। कम से कम इस मुद्दे पर तो सभी एकमत हैं। इस स्थिति में यदि कुछ मुट्ठी भर लोग कहें कि हम ही ठीक हैं और बाकी सब गलत तो क्या कहा जा सकता हैं?

बाबा रामदेव ठीक ही कहते हैं कि समलैंगिक मानसिक रोग से पीड़ित हैं और उनका उपचार भी एक मानसिक रोगी की भान्ति ही होना चाहिये, पाप को पुण्य बना कर नहीं।
अम्बा चरण वशिष्ठ

6 COMMENTS

  1. समलैंगिक होने से व्यक्ति महसूस करता है , ये बात सामान्य लोग कभी नहीं समझ सकते , मै स्वयं अपने बारे में जानने के बाद आत्म हत्या करने की सोचने लगा था , मेरा जीवन नर्क जैसा लगने लगा था पर जब मैंने खुद को समझा की इसमें मेरी कोई गलती तो नहीं है, ये तो भगवान् ने ही मुझे ऐसा बनाया है ….तब मै जीने की इक्षा रख सका .
    मै जान गया की मै क्या हूँ …क्योकि किसी पुरुष के छूने से जो ख़ुशी मिलती है , वो किसी स्त्री के छूने से मुझे नहीं मिल रही है ,…. कोई भावना नहीं महसूस होती …तब मै क्या कर सकता हु …क्या पत्थर की तरह भावना शुन्य रहकर किसी स्त्री को झूठा प्रेम करूँ ? आप लोग ही बताओ ?
    मेरे पास दो रस्ते हैं , या तो मै सन्यासी हो जाऊं और यौन भावना का दमन करूँ या फिर इस जिंदगी को ही समाप्त कर दूँ
    आप बताओ मै क्या करू…..
    मै कोई हिजड़ा नहीं हूँ सामान्य लडको जैसा ही हु
    आप अपने जवाब मुझे मेल कर सकते हैं..
    sanu.stylish@gmail.com

  2. समलैंगिकता एक दुसरे के प्रति प्रेम का ही भाव है.. और यह बहुत ही प्राकृतिक है पहले यह चोरी छुपे होता था परन्तु आज समाज के खुलेपन के कारन इसमें कोई बुराई नहीं मानी जाती… जो एक अच्छा संकेत हैं… हमें अपने विचारो को और बड़ा करना होगा..

  3. समलैंगिकता बिलकुल क़ुदरती है। यह रब का काम है।

  4. हम अपनी उदारवादिता में यह भी भूल जाते हैं कि प्रकृति के नियमों के विरूध्द आचरण व व्यवहार की हम बहुत सज़ा भुगत रहे हैं। यह अलग बात है कि हम इस तथ्य से हम जानबूझ की ही आंख मून्द रहे हैं। पर्यावरण को बराबर दूषित कर, वृक्षों की अन्धाधुन्द कटाई कर, जीव-जन्तुओं की हत्या कर, बिना सोचे-समझे भूमि तथा नदी-नालों के किनारे कटाई कर, और अनेक तरीकों से प्रकृति के विरूध्द आचरण कर हम सारी सांसारिक व्यवस्था को ही बिगाड़ रहे हैं। यही कारण है कि आज हम कहीं सूखे से, कहीं कम कहीं अतिवृष्टि से या बाढ़, वातावरण में लगातार ऊषणता, हिमशिखरों के लगातार पिघलने से, ध्रुवों पर पिघलती बर्फ, भूमि पर प्रतिदिन नीचे जाता जलस्तर तथा नदी-नालों में कम होते जल से हम ही नहीं सारी प्रकृति परेशान है। सह सब हमारी उदारवादिता तथा प्रकृति के नियमारें तथा नियति का उल्लंघन करने का ही तो परिणाम है। हमें इस पर गम्भीरता से अवश्य विचार करना होगा।

  5. आपने जो कहा वे इकदम सही कहा कुछ सिरफिरों के कारन पुरे देश की आवाज नहीं समझना चाहिए

  6. आप्ने प्रक्रिति को थीक से सम्झ नहीन .यह विक्रिति नही प्रक्रिति की प्रयोग्शल मे निर्मित एक असामन्यता है.जन्मना . उसे समलैन्गिक चुनते नहीन. उसी तरह जैसे ट्रन्स्जेन्डर .सम्लैन्गिक प्रवित्रि अल्प्मत मे होती है . लेकिन प्रक्रिति उन्की यौन रुझान तय करती है.वे तो हम जैसे बहुमत (असमान लैन्गिक) सामान्य जीवन मे यौन रुझान जैसा होता है वैसे ही उनका प्राक्रितिक निर्माण भी सम्लैन्गिकता या बहुलैन्गिक्ता निहित होता है. हमारे रिशियोन ने इसे समझा भी था जाना भी था और उन्के लिये तिरश्कर भी नहीन था .नैतिकता आदि के मापडन्ड बदलते रहते हैन.उन्हेन बहुमत अप्ने हिसाब से तय करता है.प्रक्रिति नियमन की तह मे जायेन तो वैग्यनिक विवेचन से सम्लैन्गिकता पर विचार करेन तो उन्की प्रक्रिति जन्य ’ असामान्यता के प्रति आप्को सहानुभुति ही होगी.वे न्ययिक समानता का हक रख्ते हैन और यही होना भी चाहिये .
    और किसी बाबा वगैरह की दुहायी ना देन . जितने मठ ,मिशन ,ननरी ,आश्रम या किसी भी धर्म मे जहान ब्रम्ह्चर्य अनिवार्य होता है तो नैतिक्ता की आड मे जो सम्लिन्गी सम्बन्ध होते हैन वही कुकर्म है. क्योन्कि यौन सामान्यता त्याग और त्याज्य बना कर एक असामान्यता जीने के नाटक मे ही सब से भीशण रूप से यह अपराधिक सम्लैन्गिकता व्याप्त है और नैतिकता का थेका वहीन से आता है. बाबा पहले मथोन का सर्वे कर लेन.

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