ॐ –जापानी भाषा कैसे विकसी ?
ॐ –जापान को देवनागरी की सहायता.
ॐ —जापानी, हमारी भाषा से कमज़ोर थी.
ॐ —अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ की नीति अपनायी .
(१) जापान और दूसरा इज़राएल.
मेरी सीमित जानकारी में, संसार भर में दो देश ऐसे हैं, जिनके आधुनिक इतिहास से हम भारत-प्रेमी अवश्य सीख ले सकते हैं; एक है जापान और दूसरा इज़राएल.
आज जापान का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. जापान की जनता सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित कुछ अलग है, वैसे ही इज़राएल की जनता भी. इज़राएल की जनता, वहाँ अनेकों देशों से आकर बसी है, इस लिए बहु भाषी भी है.
मेरी दृष्टि में, दोनों देशों के लिए, हमारी अपेक्षा कई अधिक, कठिनाइयाँ रही होंगी. जापान का, निम्न इतिहास पढने पर, आप मुझ से निश्चित ही, सहमत होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है.
(२) कठिन काम.
जापान के लिए जापानी भाषा को समृद्ध और सक्षम करने का काम हमारी हिंदी की अपेक्षा, बहुत बहुत कठिन मानता हूँ, इस विषय में, मुझे तनिक भी, संदेह नहीं है. क्यों? क्यों कि जापानी भाषा चित्रलिपि वाली चीनी जैसी भाषा है. कहा जा सकता है, (मुझे कुछ आधार मिले हैं उनके बल पर) कि जापान ने परम्परागत चीनी भाषा में सुधार कर उसीका विस्तार किया, और उसीके आधार पर, जपानी का विकास किया.
(३)जापानी भाषा कैसे विकसी ?
जापान ने, जापानी भाषा कैसे बिकसायी ? जापान की अपनी लिपि चीनी से ली गयी, जो मूलतः चित्रलिपि है. और चित्रलिपि,जिन वस्तुओं का चित्र बनाया जा सकता है, उन वस्तुओं को दर्शाना ठीक ठीक जानती है. पर, जो मानक चित्र बनता है, उसका उच्चारण कहीं भी चित्र में दिखाया नहीं जा सकता. यह उच्चारण उन्हें अभ्यास से ही कण्ठस्थ करना पडता है. इसी लिए उन्हों ने भी, हमारी देवनागरी का उपयोग कर अपनी वर्णमाला को सुव्यवस्थित किया है.
(४) जापान को देवनागरी की सहायता.
जैसे उपर बताया गया है ही, कि, जपान ने भी देवनागरी का अनुकरण कर अपने उच्चार सुरक्षित किए थे.“आजका जापानी ध्वन्यर्थक उच्चारण शायद अविकृत स्थिति में जीवित ना रहता, यदि जापान में संस्कृत अध्ययन की शिक्षा प्रणाली ना होती. जापान के प्राचीन संशोधको ने देवनागरी की ध्वन्यर्थक रचना के आधार पर उनके अपने उच्चारणों की पुनर्रचना पहले १२०४ के शोध पत्र में की थी. जपान ने उसका उपयोग कर, १७ वी शताब्दि में, देवनागरी उच्चारण के आधारपर अपनी मानक लिपि का अनुक्रम सुनिश्चित किया, और उसकी पुनर्रचना की. —(संशोधक) जेम्स बक.
लेखक: देवनागरी के कारण जपानी भाषा के उच्चारण टिक पाए. नहीं तो, जब जापानी भाषा चित्रमय ही है, तो उसका उच्चारण आप कैसे बचा के रख सकोगे ? देखा हमारी देवनागरी का प्रताप? और पढत मूर्ख रोमन लिपि अपनाने की बात करते हैं.
(५) जापान की कठिनाई.
पर जब आदर, प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा, इत्यादि जैसे भाव दर्शक शब्द, आपको चित्र बनाकर दिखाने हो, तो कठिन ही होते होंगे . उसी प्रकार फिर विज्ञान, शास्त्र, या अभियान्त्रिकी की शब्दावलियाँ भी कठिन ही होंगी.
और फिर संकल्पनाओं की व्याख्या करना भी उनके लिए कितना कठिन हो जाता होगा, इसकी कल्पना हमें सपने में भी नहीं हो सकती.
इतनी जानकारी ही मुझे जपानियों के प्रति आदर से नत मस्तक होने पर विवश करती है; साथ, मुझे मेरी दैवी ’देव नागरी’ और ’हिंदी’ पर गौरव का अनुभव भी होता है.
ऐसी कठिन समस्या को भी जापान ने सुलझाया, चित्रों को जोड जोड कर; पर अंग्रेज़ी को स्वीकार नहीं किया.
(६)संगणक पर, Universal Dictionary.
मैं ने जब संगणक पर, Universal Dictionary पर जाकर कुछ शब्दों को देखा तो, सच कहूंगा, जापान के अपने भाषा प्रेम से, मैं अभिभूत हो गया. कुछ उदाहरण नीचे देखिए. दिशाओं को जापानी कानजी परम्परा में कैसे लिखा जाता है, जानकारी के लिए दिखाया है.
निम्न जालस्थल पर, आप और भी उदाहरण देख सकते हैं. पर उनके उच्चारण तो वहां भी लिखे नहीं है.
https://www.japanese-language.
上 up =ऊपर—- 下 down=नीचे —-
左 left=बाएँ——右 right= दाहिने—
中 middle = बीचमें —前 front =सामने
後 back = पीछे —–内 inside = अंदर
外 outside =बाहर —東 east =पूर्व
南 south = दक्षिण —西 west =पश्चिम
北 north = उत्तर
(७) डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का आलेख:
डॉ. राम मनोहर लोहिया जी के आलेख से निम्न उद्धृत करता हूँ; जो आपने प्रायः ५० वर्ष पूर्व लिखा था; जो आज भी उतना ही, सामयिक मानता हूँ.
लोहिया जी कहते हैं==>”जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है. ९०-१०० बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से भी कमज़ोर थी. १८५०-६० के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए. उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं? कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले.
पर, जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे. (जैसे हमारे नौकर दिल्ली में करते हैं,–मधुसूदन) जब जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया. सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी.
उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी. अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो. घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा. उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा.”
(८) संकल्प शक्ति चाहिए.
आगे लोहिया जी लिखते हैं,
“हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है. सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं. अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है. इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं.”
(९)हिंदी किताबों की कमी?
लोहिया जी आगे कहते हैं; कि,
“जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी? अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी. हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ.
संदर्भ: डॉ. लोहिया जी का आलेख, Universal Dictionary, डॉ. रघुवीर
श्रद्धेय डॉक्टर साहब,भारत में वास्तविक खतरा लॉर्ड मेकाले के मनुष्य पुत्रो से ही रहा है। इनहोने देश के देसीपन को समाप्त कर आधुनिकता के नाम पर उस पर विदेसीपन का ठप्पा लगाने का राष्ट्र विरोधी कार्य किया है।1991 की जनगणना में देश में 50 हजार लोगों की भाषा संस्कृत थी । इनमे से 90 प्रतिसत उत्तर प्रदेश से थे,दूसरे स्थान पर बिहार,तीसरे पर कर्नाटक,चौथे पर मध्य प्रदेश,पंचवे पर दिल्ली,छटे पर हरियाणा,सतवे पर राजस्थान,आठवे पर महाराष्ट्र,नौवे पर आंध्र प्रदेश,दसवे पर तमिलनाडू और ग्यारवे पर हिमाचल प्रदेश था । आपका हिन्दी और संस्कृत प्रेम प्रसंसनीय है इन दोनों श्रद्धास्पद भाषाओं की दुर्गति मे नेहरू परिवार का विशेष योगदान है नेहरू एंड कंपनी हिन्दी को तुलसीदास की रामचरितमानस और रेलवे की समय सारणी तक सीमित करके हेय भाव से देखती थी और इसका मज़ाक उड़ाती थी। राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति को पनपने नहीं दिया। आपके लेखो में ये दोनों तत्व विद्यमान होते है । नमन ।
श्री मधुसुदन जी जब भी कुछ भी लिखते हैं तो बह प्राय नया विषय होता हैं और लेख भी तर्क सांगत होता हैं. अपने इस नए लेख “जापानी भाषा केसे विक्सित हुयी ” में देवनागरी लिपि के योगदान का बरनन हैं . देवनागरी लिपि को विश्व में वैगानिक दृष्टी से सम्पुरण और संतोषजनक बताया गया हैं. देवनागरी लिपि का उर्दू भाषा के विकास में भी योगदान हैं, उर्दू में बहुत से शब्दों का उछारण के लिए कोई मात्र नहीं हैं. इस समस्या का हल करने के लिए नगरी लिपि की सहत्या ली गयी. पहले उर्दू लिपि में अक्षर के नीचे बिंदी नहीं होती थी. उर्दू में उचाचारण समस्या के हल के लिए उर्दू वालो नें नगरी लिपि की तरह अपने अक्षर के निचे बिंदी लगाना आरम्भ कर दिया. विश्व में कई देश नगरी लिपि की सहायाता से अपनी भाषा का विकास कर रहे हैं किन्तु भारत में कई लोग विसेश्कर प्रसारण माध्यम के लोग नागरी लिपि और हिंदी भाषा को नस्त करने पर तुले हुए हैं. हिंदी के लिए नागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि के पर्योग को प्रोथ्सहन दिया जा रहा हैं. फिल्म उद्योग तो हमेशा नगरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि का पर्योग करता हैं. प्रसारण माध्यम के लोग तो हमेशा हिंदी के स्थान पर उर्दू शब्दों के प्रोयोग को अधिक महत्व देता. जैसे आजका हमेशा तहत, मुल्क, शक्सियत, नवाजा ,शिकस्त सियासत तवाबजू , मुहैया ख्वाइश जैसे उर्दू शब्दों का हिंदी में हमेशा पर्योग होता हैं. आशा हैं के श्री मधुसुदन जी निकट भविष्या में कोए ऐसा लेक लिखे गे जो यह बाताये के हिदी शब्दों प्रसारण माध्यम द्वारा नस्त या लुप्त करने से क्या हानि हैं. क्यों के ऐसा लगता हैं के प्रसारण माध्यम के लोग हिंदी के कुछ शब्दों को मिटा मिटा देना चाते , प्रसारण माद्यम के लोग उपयुक्त हिंदी शबद होने के बाबजूद हिंदी में उर्दू शब्दों का पर्योग करना उपयुक्त समझते हैं और उर्दू शब्दों का परचार करते हैं . हिंदी प्रसन माध्यम के लोग यह नहीं संम्झते के बह लोग हिंदी का कितना अहित कर रहे हैं. यह आशा करनी चाचिए के श्री मधुसुदन जैसे लोग ही हिंदी शब्दों को लुप्त, और मिटने से बचा सकगे.
हमेशा की तरह पुनः एक झकझोरता हुआ लेख
जापानियों के सहस व् दृढ संकल्प को नमन| जापानी और भी बहुत सारी बातों में अनुकरणीय हैं|
जब चीन और जापान कर सकते हैं तो हम क्यूँ नहीं| पर हम न तो गांधी को सुनते हैं न ही लोहिया को|
राघवेन्द्र कुमार जी, एवं प्रतिभा जी–धन्यवाद.
आप दोनों की टिप्पणियाँ सही है. जब डॉ. राम मनोहर लोहिया जी ने, ५० वर्ष पहले जो लिखा उस से भी देश जगा नहीं, और महात्मा गांधी जी ने भी उसी बात को दोहराया था, उस से भी कोई अंतर नहीं आया था, तो क्या किया जाए?
वास्तव में गांधी जी के नाम का लाभ लेकर, जो पक्ष सत्ता में आया था, वह गांधी द्रोही कैसे निकला?
पर, निराश नहीं होंगे–सच्चाई को बार बार अलग अलग रीतिसे कहते ही रहना है।
यदि सही गणित किया जाता,(मुझे कुछ जानकारी उपलब्ध हुयी है) तो आज भारत कहीं का कहीं, आगे निकल गया होता।
जो जापान कर पाया, उसकी अपनी भाषा जो हमारी देवनागरी लिपित हिंदी से कमसे कम ५ गुना कठिन होंगी, उसके आधार पर. उतना परिश्रम तो भारत को करना नहीं था. न आवश्यकता थी. यदि ऐसा होता, तो?
तो आज हमें यह परिश्रम करना ना पडता.
और क्या कहूँ?
अगला आलेख जापान ने कैसे प्रगति की, इस पर विचार कर रहा हूँ.
आप का अनुग्रह बना रहे, धन्यवाद.
आदरणीय डॉ. मधुसुदन जी से क्षमा याचना के साथ स्पष्टवादिता से कहना चाहूँगा की इस देश में भाषा ही नहीं राष्ट्रीयत्व से जुड़े जितने भी प्रश्न हैं और राष्ट्रिय अस्मिता से जुडी जितनी भी समस्याएं हैं उन सबके लिए एकमेव हमारे प्रथम प्रधान मंत्री, जो धोंसपट्टी के सहारे सरदार पटेल को हटाकर प्रधान मंत्री बने, जवाहरलाल नेहरु जी जिम्मेदार थे. और उनके उत्तराधिकारियों में इतना सहस व नैतिकता नहीं थी की उनके गलत और राष्ट्र घातक निर्णय को सुधार सकें.साठ के दशक में जब देश में हिंदी आन्दोलन तेज हुआ तो उसके विरुद्ध दक्षिणी राज्य तमिलनाडु (जिसका नाम उस समय मद्रास राज्य था) में उग्र आन्दोलन हुआ. और उस आन्दोलन को सी आई ए द्वारा भड़काया गया था.देश में आज इतनी समस्याएं उत्पन्न हो चुकी हैं कि यदि आज कोई देशाभिमानी नेता आगे आता है तो भी भाषा का प्रश्न संभवतः प्राथमिकताओं में पीछे रह जायेगा.हाँ दीर्घ कालीन योजना बनाकर शुरुआत कि जा सकती है जिसमे समय आने पर तेज और कठोर निर्णय लिए जा सकते हैं.अस्तु इस सब के लिए मानसिक तैय्यारी आवश्यक है. और सुदूर अमेरिका में रहकर और अभियांत्रिकी से जुड़े होकर भी भाषा के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से डॉ, मधुसुदन जी द्वारा जो किया जा रहा है वह स्तुत्य है. मेरा श्रद्धापूर्ण नमन.
आर. एस. एस. के ऋषितुल्य राष्ट्र-दृष्टा, नेता श्री गोलवलकर जी ने कहा था, कि स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही,
[१]: (क) राष्ट्र ध्वज, (ख) राष्ट्र गीत (ग) राष्ट्र भाषा घोषित कर देते, –तो उस उत्साह में सभी स्वीकृत हो जाता।
[२] यदि, भाषा आधारित प्रदेश ही ना बनते, तो प्रादेशिक आंदोलन कहाँ से होता?
[३] जब, यह किया नहीं गया, तो फिर –और एक पर्याय था, कि,
संस्कृत निष्ठ हिंदी को अपनाते, नाम उसका “राष्ट्र भाषा भारती” रखते। तमिल भाषियों को प्रयासोचित आर्थिक प्रोत्साहन देते। तेलुगु. मल्ल्याळम, कन्नड को भी तमिल भाषियों से कुछ कम, पर प्रोत्साहन दिया जाता, तो —आज भी इसी मार्गसे संभावना प्रतीत होती है।
जिस संस्कृत ने सारे भारत को जोड कर रखा है, उस की अवहेलना ने हमें असफल बनाया था।
[४} जब रामानंद सागर की रामायण दक्षिण में खिडकी में रखे दूरदर्शन पर राह की भीड इकठ्ठी कर सकती (है) थी। उन्हें तो तब अचरज हुआ, जब पता चला कि यह तो हिंदी भाषा है। वे हिंदी वर्चस्व वादिता से डरते हैं, उतने हिंदी से नहीं।
[५] जब विश्व की, समृद्धातिसमृद्ध भाषा संस्कृत का ८० % शब्द कोश, जो सारे भारत में समान है,और खडी बोलीका(हिंदी का ना कहो) व्याकरण हमारे पास था;
तो मैं तो ऐसी भाषा को “सरल संस्कृत” कहता, और केवल उर्दू के पीछे जाकर, राष्ट्र भाषा को सही अर्थसे सम्पन्न करता। उर्दू और अन्य प्रादेशिक भाषाओं से आयोग के द्वारा शब्द स्वीकृति होती।
[६]अंग्रेज़ी के शब्द लेने के पहले, हम अपनी प्रादेशिक भाषाओं से शब्द (उर्दू से भी) लेते।
यदि ऐसा होता, तो देशका स्वाभिमान और गौरव जग जाता।
[७] पर जापान ने मुझे बहुत बहुत बहुत अचंभित किया। कैसे उन्हों ने, अपनी चित्रमय भाषा को विकसाया, और समृद्ध बनाया। और हम संसार को पूर्णातिपूर्ण देव वाणी से सींचित कर देने वाले, अंग्रेज़ी के पीछे पागल? चुल्लुभर पानी में डुबकर मर जाना चाहिए।
—बहुत कुछ कहा जा सकता है। कभी समय से आलेख …..दूंगा। —-पर विचार दर्शाते रहें।मेरे लिए, सारे सुझाव स्वागतार्ह है।
आप सभी का धन्यवाद।
अति उत्तम लेख या यों कहें सुझाव, समस्या का समाधान करो या मरो से ही आता है। टालने से बला टलती नहीं है बल्कि बड़ी होती जाती है। देश से अगर प्रेम होता है तो हर वो कर्म किया जाता है जिससे देश आगे बढ़े। ना की धूर्तों की तरह नीचता पूर्ण आचरण किया जाए। और यही आचरण अगर तत्कालीन राजनैतिक नेतृत्व ने किया होता तो आज देश कई गुना आगे बढ़ चुका होता। आज इस देश के अधिकाँश बच्चे जो हिंदी या प्रादेशिक भाषाओँ से ज्ञान अर्जन कर रहे हैं, अंग्रेजी के कारण हीन भाव से ग्रस्त हैं। खैर अपने भी दिन बदलेंगे … इंशाल्लाह …. बहुत बहुत शुक्रिया आपका तथ्यपरक और उत्साहित करके लेख के लिए।
—
सादर,
शिवेन्द्र जी धन्यवाद।
(१) करो या मरो, का सुझाव जब डॉ. लोहिया जी ने ही दिया तो मेरा भी साहस हुआ।
(२) उसी भांति गांधी जी ने भी यही –पर कुछ अलग शब्दों में कहा है।
नमस्कार।