राजनीति

आखिर कब तक चलेगा शहादतों का सिलसिला?

-गोपाल सामंतो

एक बार फिर हमारे वीर जवानों के रक्तरंजित शरीरों को नम आँखों से श्रद्धांजलि की चादर ओढ़ाई गयी। कुछ और विधवाओं ने सिस्टम से जन्म लिया और कुछ अनाथों का देश से नया रिश्ता जुड़ गया। जब जब नक्सली हमला होता है तो पूरा देश बेचैन दिखता है और प्रशासन खामोशी से अपने को बचाने मे लग जाती है, खाली बातें होती हैं, प्रेस कांफ्रेंस ली जाती है और फिर दोबारा जवानों को मौत की घाटी में झोंक दिया जाता है। क्या इन प्रशासनिक पदों पर कार्य करने वालो का खून पानी में तब्दील हो चुका है जो इन्हें उन बर्बर नक्सलियो से बदला लेने की नहीं सूझती। सरकार क्या इतनी लाचार हो गयी है कि इन मौतों से उसकी कुम्भकरनी नींद नहीं टूट रही है। दूसरी ओर देश का सबसे बड़ा मंत्रालय (रेल मंत्रालय) पहले से ही नक्सलियों के सामने घुटने टेक बैठी है और अपने ट्रेनों का संचालन करना रात को बंद कर चुकी है, पर इस बात से रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी को कुछ ख़ास लेना देना नहीं है क्योंकि वे अभी सामने आने वाले बंगाल चुनाव में मस्त है चाहे यात्री कितना ही पस्त है। अब सवाल उठता है कि आखिर कब तक ये शहादतों का सिलसिला जारी रहेगा? कब तक वीर जवान शहीद होते रहेंगे कब तक उनकी निर्दोर्ष पत्नियां विधवाएं बनती रहेगी? क्या इसका कोई अंत होगा?

ये कैसा देश है जहां एक ओर हम अपने अतीत के शहीदों की वीर गाथा गाते नहीं थकते तो दूसरी ओर वर्तमान के सैनिकों को खुले मैदान मे मरने छोड़ देते है। काफी दिनों से खोखली बातें चल रही है कि नक्सलियो से लड़ने के लिये नयी रणनीति तैयार की जाएगी, सेना की मदद ली जाएगी वैगरह वैगरह। आखिर कब यह सब किया जायेगा, जब हमारे देश में सीआरपीएफ में भर्ती होने से लोग कतराने लगेंगे तब या जब तक कोई बड़ा मंत्री या नेता शहीद नहीं होगा तब तक, पता नहीं कौन सी काली रात इन मंत्रियो को होश में लाने का काम करेगी।

गौर करने वाली बात ये है कि अब तक नक्सली हमले में मरने वालो की संख्या किसी युद्ध से कम नहीं है फिर भी हमारे कई मंत्री नेता गाहे बगाहे बयान दे देते है कि ये सशस्त्र संग्राम नहीं है ये वैचारिक मतभेद है। क्यों ऐसी बाते करके अपनी कायरता को छुपाते है इसका इनके पास कोई जवाब नहीं है। देश की 110 करोड़ जनता अपने लीडर के रूप में किसी कायर को पसंद नहीं करती और आज भी उम्मीद करती है कि कोई लौह पुरुष आये और इस नक्सली समस्या से देश को निजात दिलाये, पर क्या करे राजनीति के अन्दर बंटते खीर मलाई ने सब नेताओ के हाथ पैर नाकाम कर दिए है। आखिर केंद्र सरकार की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो हर बार नक्सली हमले होने के बाद राज्य शासनों के ऊपर दोष मढने में कोई कसार नहीं छोडती है, पर सेना के इस्तमाल के नाम पर सारे केंद्रीय मंत्रियों की राय अलग हो जाती है और गृह मंत्री भी ख़ामोशी की चादर लपेट चुप हो जाते है। ये वही केंद्रीय मंत्रिमंडल है जो परमाणु मुद्दे पर अमरीका से हाथ मिलाने को एकजुट दिखती है, महंगाई बढाने पर एक मत दिखती है, घोटालो को अंजाम देने एक साथ दिखती है तो फिर इस मुद्दे पर अलग अलग क्यों? इसकी भी जांच होनी चाहिए। किस पार्टी को किन नक्सली क्षेत्र में चुनावों में सफलता मिल रही है इस पर भी नज़र होना चाहिए क्योंकि अगर हाथ मिलाना ही है तो खुलेआम मिलाओ नक्सलियो से, पर जवानों के लाशों पर बैठकर नहीं।

क्या सचमुच हमारे देश की सेना जिसके लिए साल भर में हजारो करोड़ रूपये खर्च किये जाते हैं, इस नक्सली समस्या से दो दो हाथ करने में नाकाम है, या फिर देश के प्रशासन की इच्छाशक्ति में कमी है। मुझे तो सैनिको के कार्य क्षमता में कोई कमी नज़र नहीं आती है नहीं तो हम कारगिल जैसे मुश्किल हालातो में विजयश्री प्राप्त नहीं कर पाते। मुझे इन नेताओं के नियत और इच्छाशक्ति में ही खोट नज़र आती है जो आर-पार की लड़ाई से अपना पल्ला बचाने में लगे है क्योंकि उन्हें अपने वोट बैंक का डर और चुनावों में इन नक्सलियों से की गयी सांठ गाँठ के न बचने का डर सता रहा है।

बस्तर में पिछले कई दशक से नक्सलवाद की हवाए गर्म है और न जाने कितने ही बेगुनाहों के खून का इस्तमाल इस हवा को गर्म रखने के लिए अब तक किया गया हो। अगर गिनती की जाये तो नक्सली हिंसा में मरने वालो की संख्या हजारो में आएगी, ये कैसी क्रांति है जो एक देश के ही दो निवासियों को आपस में खून बहाने को मजबूर कर रही है, ये कैसी क्रांति है जो छोटे छोटे दूधमुंहे बच्चो को अनाथ बनाते जा रही है, ये कैसी क्रांति है जो न जाने कितनो के मांग उजार चुकी है। मुझे इन क्रांतिकारियों से भी पूछना है कि आखिर ऐसी कौन सी माया है जो तुम अपने धरती माता का ही सौदा कर बैठे हो और उसे खून पिलाने की कसम खा चुके हो और वो भी अपने ही भाइयो का खून। कुछ कहते है कि देश में नक्सली समस्या के पीछे चीन का हाथ है तो कुछ और मत रखते है पर सच्चाई तो ये है कि आज ये किसी युद्ध से कम नहीं और अगर हम इसे युद्ध की तरह न ले तो वो दिन दूर नहीं जब भारत माता की कोख से एक दूसरे देश का उदय हो जायेगा। अब ये साफ़ हो चुका है आपकी बाते सुनने वाला कोई नहीं बचा है अगर सुनेंगे तो सिर्फ गोलियों की आवाज और सर झुकायेंगे तो सिर्फ सेना के सामने, तो फिर ये टालमटोल क्यों, जो करना है जल्दी करो, अब और शहीदों का बोझ नहीं उठा सकती है, अब वो समय आ गया है जब रिअक्ट नहीं अपितु रिसल्ट की जरुरत है ।