विविधा विश्ववार्ता

कार्यकर्त्ता कैसा हो ?


डॉ. मधुसूदन​

(एक)​अनुरोध:​विश्व हिन्दू परिषद (यु. एस. ए.) के नेतृत्व नें अगली पीढी के कार्यकर्ता को, मार्गदर्शक हो, ऐसा आलेख चाहा था। ​अब, ऐसा आलेख बिना किसी व्यक्तित्व का संदर्भ दिए, इस पाश्चिमात्य देश य़ु. एस. ए. में केवल सिद्धान्तों पर विश्लेषित किया तो जा सकता है। पर नई पीढी पर परिणामकारी होने के लिए जीवन्त उदाहरणों से भरा आलेख ही, सफल होने की संभावना अधिक है। (अधिक उदाहर्णॊं पर अगला आलेख भी होगा।) ओर इस विषय पर अनेक कार्यकर्ताओं के संदेश भी आए हैं। सारे कार्यकर्ता इस व्यक्ति से प्रभावित हैं। एक संदेश तो उन्हें अवतारी व्यक्तित्व  तक मानता है। ​​जो भी हो, आलेख बन ही गया है। आप भी नीर क्षीर विवेक से जो आपको,ग्राह्य हो, उसे स्वीकारे और त्याज्य हो उसे त्यज दें। पर लेखक ने, ऐसा आलेख लिखना ही उचित मानकर शब्दबद्ध किया है। इस आलेख को रमेश जी पर लिखे गए आलेख “त्याग, विवेक और कर्मठता की त्रिवेणी श्री रमेश पटेल ….” आलेख से, जोडकर  पढें।​​

(दो)​एक निःस्वार्थी, समर्पित कार्यकर्ता​​

इस युग में  और इस भौतिकता प्रधान अमेरीका में भी, वि. हिं. परिषद  (U S A ) के पास रमेश पटेल जैसे निःस्वार्थी, समर्पित कार्यकर्ता हैं, यह अत्यन्त हर्ष और गौरव की बात है। वैसे, आज रमेश जी,आजीवन कार्यरत रहने के बाद, निवृत्त नागरिक ( रिटायर्ड सिनियर सीटीज़न) बन चुके हैं। मैं रमेश जी और उनके कार्य को, चार दशकों से जानता हूँ। और मानता हूँ, कि मित्रों की दृष्टि में,  सफल कार्यकर्ता की कसौटी पर भी वे, खरे ही उतरे हैं। कार्यकर्ताओं के संदेशों पर और लेखक के अनुभव पर यह आलेख आधारित है। ​​विशेष में, डॉ. महेश और रागिनी मेहता, योगेश नायक, गिरीश और बकुला गांधी, मीनल पण्ड्या, अतुल पण्ड्या .डॉ. हेमेन्द्र आचार्य, परेशा आचार्य, पल्लवी झवेरी, और अन्य कार्यकर्ता जिन्होंने मौखिक रीतिसे रमेश जी का अनुभव साझा किया है, उन सभी का आधार लेकर यह आलेख लिखा गया है। ​वैसे अन्य प्रसिद्धि विन्मुख कार्यकर्ता हैं ही। पर लेखक  अपनी जानकारी की सीमा में ही लिख सकता है। और वह स्वयं रमेश जी की प्रेरणा  नितांत सात्विक ही पाता है।

स युग में  और इस भौतिकता प्रधान अमेरीका में भी, वि. हिं. परिषद  (U S A ) के पास रमेश पटेल जैसे निःस्वार्थी, समर्पित कार्यकर्ता हैं, यह अत्यन्त हर्ष और गौरव की बात है। वैसे, आज रमेश जी,आजीवन कार्यरत रहने के बाद, निवृत्त नागरिक ( रिटायर्ड सिनियर सीटीज़न) बन चुके हैं। मैं रमेश जी और उनके कार्य को, चार दशकों से जानता हूँ। और मानता हूँ, कि मित्रों की दृष्टि में,  सफल कार्यकर्ता की कसौटी पर भी वे, खरे ही उतरे हैं। कार्यकर्ताओं के संदेशों पर और लेखक के अनुभव पर यह आलेख आधारित है। ​​विशेष में, डॉ. महेश और रागिनी मेहता, योगेश नायक, गिरीश और बकुला गांधी, मीनल पण्ड्या, अतुल पण्ड्या .डॉ. हेमेन्द्र आचार्य, परेशा आचार्य, पल्लवी झवेरी, और अन्य कार्यकर्ता जिन्होंने मौखिक रीतिसे रमेश जी का अनुभव साझा किया है, उन सभी का आधार लेकर यह आलेख लिखा गया है। ​वैसे अन्य प्रसिद्धि विन्मुख कार्यकर्ता हैं ही। पर लेखक  अपनी जानकारी की सीमा में ही लिख सकता है। और वह स्वयं रमेश जी की प्रेरणा  नितांत सात्विक ही पाता है।

​​(तीन)​कार्यकर्ता की  विशेष कसौटी क्या हो?  ​​

सोचिए कि  कार्यकर्ता की  सर्वमान्य विशुद्ध कसौटी  क्या होनी चाहिए ? ​मैं  मानता हूँ, कि, ऐसी सर्वोच्च कसौटी  उस कार्यकर्ता ने कितने और लोगों को  प्रेरित कर, काम में  जोडा, यही होगी। यह जोडना निजी स्वार्थ-पूर्ति के बलपर नहीं, किंतु निःस्वार्थ सात्विक वृत्ति की प्रेरणा पर ही माना जाएगा। यही रमेश जी का भी विशेष है। ​​रमेश जी ने अनेक कार्यकर्ता  v h p में जोडे अपने प्रभाव और व्यवहार के बलपर। साथ अर्धांगिनी और सुपुत्रों सह अपने कुटुम्ब का योगदान भी संपादित किया। ऐसा उदाहरण निश्चित अपवादात्मक ही पाया जाता है। बहुत लोग देखे हैं, जिनकी बात उनकी घरवाली भी सुनती नहीं, ऐसे लोग और किसे प्रभावित कर पाएँगे? रमेश जी इसमें अपवाद हैं। उनका दो सुपुत्र और अर्धांगिनी सहित सारा परिवार कार्य में जुडा हुआ था। ऐसा काया, वाचा ,मनसा अंतरबाह्य पारदर्शी व्यवहार  उनका विशेष था। कितने ऐसे परिवार आपने देखें हैं?​

(चार) निजी उपलब्धियों से बडे बने लोग:  ​​अपनी निजी उपलब्धियों से ही बडे कहानेवाले बहुत प्रवासी भारतीय लोग इस अमरिका में देखे हैं। ये लोग मुझे प्रभावित नहीं करते। ​सेनेटरों को वा कांग्रेसमनों को डोनेशन देकर पत्‍नी -सह फोटु खिंचवाने वाले भी काफी देखें हैं। ये लोग वाशिंग्टन डी. सी. के आस पास मँडराते रहते हैं। स्वयं अपनी ही प्रशंसात्मक प्रस्तुति के शंख बजाते हैं, और उस प्रस्तुति को बडी चतुराई से फैलाकर बडे समारोहों में स्वयं को आमन्त्रित करवाते हैं। और किराये पर वृत्तपत्रों में, आलेख भी छपवाते हैं। ​​

(पाँच) अंधा पीसे कुत्ता खाय!​डोनेशन देकर बदले में  मिले कागज का प्रमाण पत्र दिवाल पर सजाकर रखते हैं। “अंधा पीसे और कुत्ता खाय!” सार्थक। भारत को कोई लाभ नहीं। पर, ये सारा खोखली कांग्रेसी कल्चर का परिणाम है। जो गत दशकों से पनपी और अमरिका में भी निर्यात हुई है। पर ऐसे ढपोल शंख मुझे बिलकुल प्रभावित नहीं करते। पर निम्न पंक्तियों का स्मरण  अवश्य दिलाते हैं। ​​’ऊंचा भया तो क्या भया जैसे ताल खजूर ।​पथिकन को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥’  ​कबीर जी का लिखा याद आ रहा है।​ऐसे फल भारत नहीं पर, अमरिका में वितरित करने वाले और अपने आप को चतुराई से प्रमाण पत्र, दिलवाने वाले ढपोल शंख तुरंत पहचाने भी जाते हैं। हर समारोह में अगली पंक्ति में दिखाई देंगे। और यह  भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है। ​​

(छः) लेखक की दृष्टि में निःस्वार्थी काम ही श्रेष्ठ:  ​​जितना निरपेक्ष और निःस्वार्थी उद्देश्य से कोई सांस्कृतिक योगदान करता है, इस लेखक की दृष्टि में उतना ही ऊंचा उठता है।​अपने लिए ही काम कर फिर अपना नाम और दाम कमानेवाला मुझे प्रभावित नहीं करता। ​​इससे विपरीत,  इसी यु एस ए में रमेश जी के व्यवहार से प्रभावित और प्रेरित पर्याप्त  सक्रिय कार्यकर्ता मिलेंगे। सारे कनेक्टिकट और कनेक्टिकट के परिसर में, जो कार्यकर्ता सम्मिलित हुए, उनकी नामावली लम्बी होगी। इसका श्रेय लेने में भी रमेश जी हिचकिचाएँगे। श्रेय वैसे किसी एक कार्यकर्त्ता का नहीं होता यह सत्य  होते हुए भी रमेश जी  इसके प्रधान निमित्त निश्चित ही रहे हैं।​

(सात) न नाम की आकांक्षा? ​​इस देश में जब दैनंदिन सम्पर्क असंभव था; भारतीयों की संख्या भी विरला थी। नियमित शाखाएँ लगाना संभव नहीं था। तब भारतीय ​परिवारों में सम्पर्क बनाकर संस्कार कार्य अबाधित रखने के लिए रमेश जी ने जो  उपक्रम किया वह प्रशंसनीय़  था। परिवारों के घर घर जाकर पूजा पाठ कथा वार्ता से समाज को संस्कारित करने का अभिनव उपक्रम रमेश जी ने किया।  जिसका विवरण मैं ​आलेख “त्याग, विवेक और कर्मठता की त्रिवेणी श्री रमेश पटेल ….” में कर चुका हूँ। पाठक उसे अवश्य पढें।​​वैसे आज भी यहाँ शाखाएँ साप्ताहिक ही लगती है। समाज दूर दूर बसने के कारण ऐसा ही करना पडता है। भारत की  दैनंदिन शाखा में  प्रत्यक्ष देखा-देखी जैसा अनुकरणीय  गहरा संस्कार होता है, वैसा  दृढ संस्कार शाखा का नाम देने मात्र से अमरिका में  संभव नहीं लगता। यहाँ​साप्ताहिक शाखाएँ ही संभव लगती हैं। ​​सच मुच, भारत में, संघ-शाखा प्रणाली मौलिक और बेजोड है। यह राजनीति से प्रेरित दूसरे को उल्लु बनाने की विधा नहीं है। काया, वाचा, मनसा अंतरबाह्य एकात्म्य प्रेरणा पर यह प्रणाली निर्भर करती है। और शनैः शनैः विकसित और विस्तरित होती चली गई है। ​वैसे शाखा के अधिकारियों का विशुद्ध और निःस्वार्थी और हर संकट में साथ खडा रहनेवाला  पारिवारिक, प्रेमपूर्ण व्यवहार ही संघ की परिचय मुद्रा  है। यही मुद्रा मानस पटल पर अंकित होकर , संघ में चिरजीवी संस्कार बन पनपती है। यह अपनेपन की भावना पूर्णतः विश्लेषित नहीं की जा सकती। ​यु.एस.ए. में, ऐसी प्रक्रिया के अभाव में, रमेश जी ने जो अंतरंग संबंध प्रस्थापित किए उसकी मौलिक झाँकी उनके व्यवहार में देखी जा सकती है। अगली पीढी के कार्यकर्ता को यह प्रक्रिया अवश्य जान लेनी चाहिए। ऐसी सुदृढ और गहरी आधार शिलाओं पर परिषद आज तक सफल हो सकी है। यह चमत्कार किसी युक्तिबाजी का वा शॉर्ट कट का परिणाम नहीं है। ​मुक्त और स्वतंत्र टिप्पणियाँ दीजिए।​