बलात्कार से निजात कैसे?

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

 एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?

देश की राजधानी में एक युवती के साथ चलती बस में बलात्कार की घटना की चर्चा सारे देश में हो रही है। संसद में हर दल की ओर से इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी और बलात्कार के अपराधियों को नपुंसक बना देने की सजा का कानून बनाने के सुझाव दिए जा रहे हैं और 21 वीं सदी में इन आदिम सुझावों पर लगातार चर्चा और परिचर्चा आयोजित की जा रही है। हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपने रुग्ण विचारों को जहाँ-तहां उंडेल रहा है। राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष भी हमेशा की भांति अनर्गल बयान दे रही हैं! सबसे बड़ा आश्चर्य तो ये है कि जिन्हें कानून, न्याय और अपराधशास्त्र का पहला अक्षर भी नहीं आता वो भी बलात्कार के अपराध को रोकने हेतु कानून बनाने के बारे में नये-नये सुझाव दे रहे हैं।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध की कठोर सजा दी जानी चाहिये, लेकिन सजा तो घटना के घटित होने के बाद का कानूनी उपचार है। हम ऐसी व्यवस्था पर क्यों विचार नहीं करना चाहते, जिसमें बलात्कार हो ही नहीं। हमारे देश में केवल स्त्री के साथ ही बलात्कार नहीं होता है, बल्कि हर एक निरीह और मजबूर व्यक्ति के साथ हर दिन और हर पल कहीं न कहीं लगातार बलात्कार होता ही रहता है!

एक पुलिस का जवान कानून व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिये पुलिस में भर्ती होता है, लेकिन पुलिस अधीक्षक उसे अपने घर पर अपनी और अपने परिवार की चाकरी में तैनात कर देता है। (जो अपने आप में आपराधिक न्यासभंग का अपराध है और इसकी सजा उम्र कैद है) जहॉं उसे केवल घरेलु कार्य करने होते हैं-ऐसा नहीं है, बल्कि उसे अफसर की बीवी-बच्चियों के गन्दे कपड़े भी साफ करने होते हैं। क्या यह उस पुलिस कॉंस्टेबल के सम्मान का बलात्कार नहीं है?

जब एक व्यक्ति न्याय के मन्दिर (अदालत) में, सब जगह से निराश होकर न्याय पाने की आस लेकर जाता है तो उसे न्याय के मन्दिर में प्रवेश करने के लिये सबसे पहले वकीलों से मिलना होता है, जिनमें से कुछेक को छोड़कर अधिकतर ऐसे व्यक्ति के साथ निर्ममता और ह्रदयहीनता से पेश आते हैं। वे अपनी मनमानी फीस के अलावा कोर्ट के कागज बनवाने, नकल लेने, मुंशी के खर्चे और अदालत के बाबू को खुश करने आदि न जाने कितने बहानों से न्यायार्थी से हर पेशी पर मनमानी वसूली करते रहते हैं। जिसकी पूर्ति के लिये ऐसे मजबूर व्यक्ति को अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़ते हैं। अपने बच्चों को बिना सब्जी रूखी रोटी खिलाने को विवश होना पड़ता है। अनेक बार अपनी अचल सम्पत्ति भी गिरवी रखनी या बेचनी पड़ती है। (जिसके चलते ऐसा व्यक्ति उस श्रेणी के लोगों में शामिल हो जाता है जिनके साथ हर पल बलात्कार होता रहता है!) क्या यह सब न्यायिक बलात्कार नहीं है? आश्‍चर्य तो यह कि हाई कोर्ट में 67 प्रतिशत जज वकीलों में से ही सीधे जज नियुक्त किये जाते हैं, जो इस सारी गंदी और मनमानी कुव्यवस्था से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं, लेकिन इस कुचक्र और मनमानी कुव्यवस्था से देश के लोगों को निजात दिलाने के लिये कोई भी सार्थक पहल नहीं की जाती है!

जब एक बीमार उपचार के लिये डॉक्टर के पास जाता है तो वह अस्पताल में उसकी ओर ध्यान नहीं देता है। ऐसे में उसे डॉक्टर के घर मोटी फीस अदा करके दिखाने को विवश होना पड़ता है! केवल फीस से ही डॉक्टर का पेट नहीं भरता है, बल्कि अपनी अनुबन्धित लेबोरेटरी पर मरीज के अनेक टेस्ट करवाये जाते हैं और मंहगी कीमत वाली दवाएँ लिखी जाती हैं। जिनमें से डॉक्टर को प्रतिदिन घर बैठे मोटी राशि कमीशन में मिलती है। शरीर का इलाज कराते-कराते मरीज आर्थिक रूप से बीमार हो जाता है। क्या यह मरीजों का डॉक्टरों द्वारा हर दिन किया जाने वाला बलात्कार नहीं है?

ऐसे अनेकों और भी उदाहरण हैं। शिक्षक स्कूल में नहीं पढाते। पोषाहार को बेच दिया जाता है। आँगनवाड़ी केन्द्रों पर बच्चों की देखरेख करने के बजाय उन्हें कुछ घण्टे के लिये कैद करके रखा जाता है। कारागृहों में बन्द महिला कैदी गर्भवती हो जाती हैं। अस्पतालों में अनेक महिला नर्सों को न जाने कितनी बार डॉक्टरों के साथ सोना पड़ता है। दलित और आदिवासियों की स्त्रियों के साथ हजारों वर्षों से समर्थों द्वारा अधिकारपूर्वक यौन शोषण किया जाता रहा है। आज भी गरीब, निर्धन, निरक्षर, दलित, दमित और आदिवासी परिवार की लड़कियों और विवाहिता स्त्रियों को अपने जीवन में अनेकों बार समर्थों की कामवासना का शिकार होना ही पड़ता है। दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है!धान में प्रतबंधित होने के उपरांत भी ये सब लागातार होता रहा है, हो रहा है और होता रहेगा। इसे कठोर कानून बनाने मात्र से रोका नहीं जा सकता! हत्या करने पर फांसी की सजा भी हो सकती है, ये कानून है, फिर भी हर दिन हत्याएं हो रही हैं! ऐसे में कठोर कानून अकेला कुछ नहीं कर सकता है। इस बारे में तब ही कुछ सुधार हो सकता है, जबकि हम हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन के लिये तैयार हों और कानून बनाने, लागू करने और सजा देने तक कि प्रक्रिया पर सच्ची और समर्पित निगरानी की व्यवस्था हो और सारी की सारी पुरातनपंथी परम्पराओं और प्रथाओं से देश को क्रमश: मुक्त करने की दिशा में कार्य किया जा सके।

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

4 COMMENTS

  1. पहले पहल संपादक को इस लेख में पहले परिच्छेद को हटा देना चाहिए क्योंकि इसे उपयुक्त रूप से लेख में अन्य स्थान पर प्रस्तुत किया गया है|

    लेखक के “हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा अपने रुग्ण विचारों को जहाँ-तहां उंडेल रहा है“ विचार से मैं वास्तविक रूप से सहमत हूँ| यदि प्रशासन में हर कोई ऐरा-गैरा-नत्थू-खैरा होगा तो विचारों में भी उनका आभास अवश्य देखने को मिलेगा| सम्पूर्ण व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन द्वारा भारत जैसे पुरातन क्षेत्र में पुरातनपंथी परम्पराओं और प्रथाओं में से ही बलात्कार से निजात ढूंढना होगा|

  2. डाक्टर निरंकुश इस तरह आपने भ्रष्टाचार और बलात्कार को एक ही माना है.व्यापक अर्थों में यह परिभाषा सही भी है.पर यहाँ जब नारी उत्पीडन और बलात्कार की बात हो रही है तो इस पर अलग से भी विचार की नितांत आवश्यकता है.ऐसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने से बलात्कार पर भी बहुत हद तक अंकुश लग जाएगा,पर मेरे विचार से नारी उत्पीडन और शोषण पर अलग से भी विचार अकारण नहीं है और इस समस्या का त्वरित समाधान ढूंढना भी अत्यंत आवश्यक है.यह शोषण सामान्य शोषण से अलग है क्योंकि इसमे उनके द्वारा भी शोषण होता है जो स्वयं शोषण के शिकार हैं.

  3. पुरुषोत्तमजी,

    पहली बार में आपके लेख में लिखी बातों से सहमत हूँ.. लेख अच्छा लगा.. आपने बहुत ही बारीकी से विश्लेषण कर इन बातों को लिखा यह सच है.. हमें बुरे पहले अपने अन्दर और समाज से ख़तम करनी होगी… ताकि सजा देने की ज़रुरत ही न पड़े.

    अच्छे लेख के लिए साधुवाद,

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