मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ

नरेश भारतीय- 

 poetry-sm

बनती बिगड़ती आई हैं युगों से

सुरक्षित, असुरक्षित

टेढ़ी मेढ़ी या समानांतर

जोर ज़बरदस्ती या फिर

व्यापार के बहाने, घुसपैठ के इरादे से

वैध अवैध लांघी जाती रहीं

अंतर्राष्ट्रीय मानी जाने वालीं सीमाएं

प्रवाहमान हैं मानव संस्कृतियाँ

सीमाओं के हर बंधन को नकारती

समसंस्कृति संगम स्थल को तलाशतीं.

 

सीमाओं को तो मैंने भी लांघा है

नियम बन्धनों को जाना और माना है

किया है कानूनों का सम्मान सदा

उनके पालन से कभी मुख नहीं मोड़ा

लेकिन सीमाओं में बंधे इतिहास में

ऐसा कोई पन्ना भी नहीं जोड़ा

नाम या बदनाम कुछ हो जाता

न्याय का साथ, अन्याय को चुनौती

अराजकता, आतंक, विध्वंस का विरोध

मज़हब के नाम पर हिंसा को नकारा सदा.

 

न किया किसी पर आक्रमण

न ही मानव मर्यादाओं का उल्लंघन

न चाह कर कभी युद्ध किए मैंने

न ही किया कोई रक्तपात

देखा है न तुमने कैसे उसने

अकारण शस्त्र उठा नफरत की राह अपनाई

‘संयम से काम’ की किसने दी शिक्षा?

इस पर भी स्वयं वह रुका कहाँ?

मानव रक्त बहता जाता है

यह किसकी जय है, किसकी पराजय?

 

दानव से मानव की

दुर्जन से सज्जन की रक्षा हेतु

विश्व को विनाश से बचाने को

मानवता की रक्षा का संकल्प लिए

स्वधर्म निभाने को कर्मक्षेत्र में उतरा हूँ

मेरे विराट को तुम अब फिर से जानोगे

दिव्यास्त्र सुदर्शन की गति को पहचानोगे

न कभी मुझे विजय का हर्ष हुआ

न कुछ खो देने का ही विषाद

बहु-संस्कृतियों के संगम स्थल की

मैंने ही सतत संरचना की है

दुर्जन से मानवता की मैंने ही रक्षा की है.

 

मैं संस्कृति संगमस्थल हूँ

युद्ध नहीं, शांति का ही पक्षधर

सकल जगत हो सावधान

मैं निर्बल नहीं, अाशक्त नहीं

पांचजन्य का तुमुल घोष हूँ

नव अर्जुन का रथचालक बन

पुन: सन्नद्ध मैं धरती पर उतरा हूँ

उसके गांडीव की टंकार मात्र से

सत्तामद, गर्व, घमंड चूर चूर होगा

पुन: पुन: महाभारत होगा

हर दुर्योधन, हर दु:शासन पराजित होगा.

 

अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार या दुराचार

विभक्त समाज का सदा होता आया है विनाश

सर्वजन साँझा लक्ष्य संधान संकल्प लिए

विकास पथ के अनुगामी बन, अवरोध हटें

आगे बढ़ने को उत्सुक, परस्पर हाथ पकड़

मिल कर नव भारत का निर्माण करें

खाइयों को भर दें नवयौवन की सुधियाँ

असहज को सहज बना दें राष्ट्रधर्म की विधियाँ

शांति, सद्भाव, सहअस्तित्व का बिगुल बजातीं

सदा प्रवाहमान, भारत में ही हैं, सम-संस्कृतियाँ.

 

अपने अनेक प्रवासों में मैंने देखा है

बौद्ध मंदिरों के प्रांगण में होता शिव पूजन

देवी देवों के संग अनेक पंथ सर्वहित चिन्तन

धर्म एक है, पंथ अनेक सर्व मान्य है सत्य यही

विश्व बंधेगा ऐक्य सूत्र में, शांति सर्वत्र विचरेगी

मानवता के इस मुक्त प्रवाह को रोक नहीं पाएँगे

हिंसा, प्रतिहिंसा, विरोधों और घृणा के ये पत्थर पाषाण

पुलों के निर्माण का युग है और मैं संकल्पित हूँ

भारतवर्ष या हिन्दुस्थान जो भी चाहो कह लो

मैं ही सतत प्रवाहमान संस्कृति संगम स्थल हूँ

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