मुझे कुछ कहना है.. बु़ज़ुर्गों से..

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अक्सर कहानियों मे, उपन्यासों मे, फ़िल्मों मे, टी.वी. धारावाहिकों मे या लोगों की बातचीत मे यह बात सुनाई देती है कि जवान पीढी बड़े बूढ़े बुज़ुर्गों का आदर नहीं करती या माता पिता को बोझ समझने लगती है। कभी उन्हे घर से निकालने या वृद्धाश्रम मे भेजने के किस्से सामने आते हैं। बनारस और वृन्दावन मे बहुत सी विधवा बूढ़ी औरते एक बेसहारा जिन्दगी जी रही हैं। मेरा तो ये मानना है कि भारतीय युवक और युवतियाँ आज भी बड़ो का जितना मान करते हैं, आदर सम्मान करते हैं ध्यान रखते हैं उतना शायद ही किसी देश मे करते हों। हाँ, कुछ मामले ऐसे होते हैं जहाँ वृद्धों का धन लेकर औलाद ने उन्हे बेघर कर दिया हो पर इसके विपरीत कमसे कम इनके मुक़ाबले सौ गुना घर ऐसे होंगे जहाँ माता-पिता बहू बेटे और उनके परिवार के साथ ख़ुशी ख़ुशी पूरे सम्मान के साथ रहते हैं बेटे माता-पिता के हर सुख दुख मे उनका सहरा बनते हैं, पर आजकल नई पीढ़ी पर दोष डालना एक फैशन सा बन गया है। कभी कभी माता पिता बच्चों से विशेषकर बेटों से ऐसी अपेक्षायें कर बैठते हैं जो पूरी करना उनके बेटों के लिये बहुत कठिन हो जाता है और फिर वही सारा दोष जवान पीढी के सर.. बुज़ुर्ग यदि अपना व्यवहार संतुलित रक्खें तो नई पीढ़ी के साथ तालमेल बिठाना इतना मुश्किल भी नहीं है।हर बात पर रोकना..टोकना..बीते वख्तों की दुहाई देते रहना युवाओं को अच्छा नहीं लगता। बच्चों को भूल कर भी यह याद दिलाना कि आपने कितने कष्ट सहकर उन्हे पाला है बिल्कुल ग़लत है। बच्चे मांता पिता की ज़िम्मेदारी होते हैं कोई निवेष नहीं कि जवानी मे बैंक मे जमा किया था बुढ़ापे मे सूद सहित वसूलना है। बच्चे चाहें साथ रहें या अलग उन्हे उनकी ज़िन्दगी अपने तरीक़े से जीने का ह़क देना बड़ों की जिम्मेदारी है। तानाशाही या ताने देकर बुज़ुर्ग अपने लियें ख़ुद ही खाई खोदते हैं।

नये ज़माने की हर चीज़ बुरी है इस सोच से भी बुज़ुर्गों को बाहर निकलना चाहिये। समय के साथ समाज मे आये परिवर्तन यदि स्वीकार नहीं किये तो समाज आपको अस्वीकार देगा और आप बिलकुल एकाकी हो जायेंगे। यद्यपि यह इतना आसान नहीं है पर असंभव भी नहीं है, कम से कम कोशिश तो की ही जा सकती है। आज के जमाने मे श्रवण कुमार की तरह माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने का समय युवाओं के पास नहीं है। वो अपने परिवार और कैरियर की ज़िम्मेदारियों मे बहुत उलझे हुए हैं जिससे वह भी तनाव महसूस करते हैं, अपनी अपेक्षायें उन पर लाद कर उनके तनाव को बढ़ाना भी ठीक नहीं है। कभी दफ्तर की डैड लाइन और टारगैट, कभी बच्चों की पढाई, कभी मकान और कार की किश्तों की चिन्ता उन्हे रहती है, ऐसे मे यदि वो बुज़ुर्गों को अधिक समय नहीं दे पाते तो इसमे उनका दोष नहीं है।

बुजुर्गों को जहाँ तक संभव हो थोड़ा शारीरिक व्यायाम करना चाहिये जो शारिरिक और मानसिक स्वास्थ ठीक रखने मे मदद करता है। अपना ख्याल रखना चाहियें और अपने सब काम जहाँ तक संभव हो ख़ुशी ख़ुशी ख़ुद निपटाने चाहियें । कोई पुराना शौक फिर से शुरू कर सकते हैं, बच्चों को पढ़ा सकते हैं जिससे समय व्यस्थित रूप से कटेगा और आत्मसंतोष भी मिलेगा।ये सब काम किसी मजबूरी मे नहीं प्रसन्नता पूर्वक हाथ मे लेने चाहियें। घर के जो काम कर सकते हैं उनकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली जा सकती है।

आपसे मिलने जब कोई मित्र आयें या रिश्तेदार आयें तो केवल ये रोना न ले कर बैठें कि बुढ़ापा है हम तो अब किसी लायक नहीं है वगैरह.. इससे आने वालों को लगेगा कि आप ख़ुश नहीं है, उनसे आपको हमदर्दी मिलेगी कुछ देर के लियें बस..अगर आप मन से ख़ुश होंगे तो इस तरह की हमदर्दी बटोरने की इच्छा ही नहीं होगी। कभी कभी अपने एकाकीपन से या किसी अन्य कारण से मन निराश होने लगे तो भी यह बात आये गये महमानों से कहना अच्छा नहीं लगता। महमान सुनकर चले जायेंगे आपको सहारा तो आपके बच्चों से ही मिलेगा। महमान जो सुनकर जायेंगे वह कहीं और किसी और रूप मे ही सुनायेंगे।

बच्चों के साथ रह रहे हों या अलग दादा दादी नाना नानी अपने नाती पोतों पोतियों से बहुत प्यार करते हैं।उन्हे अच्छी अच्छी कहानियाँ भी सुनाते हैं।उनके स्कूल का गृहकार्य कराने मे और पढ़ाने मे भी सहयोग दे सकते हैं,पर उनको अनुशासित करने के लियें माता पिता यदि कुछ सख्ती करें तो बच्चों की तरफदारी उस समय कभी नहीं करनी चाहिये। बच्चों की परवरिश से संबधित कोई सलाह अलग मे दी जा सकती है,पर बच्चे माता पिता की ही ज़िम्मेदारी होते हैं इसलियें ज़्यादा दख़ल देना भी सही नहीं होगा। सबसे प्रमुख बात यह है कि छोटी छोटी बातों को आत्म सम्मान का विषय बना कर नहीं देखना चाहिये।हर समय यह कहना कि हमने भी अपने बच्चे पाले हैं हम अनुभवी है भी सही नहीं है। समय समय की मांग अलग अलग होती है।

अपनी जवानी मे अपने बुढ़ापे के लियें कुछ बचत करके रखना बहुत ज़रूरी है ख़ासकर उन लोगों को जिनको पैंशन नहीं मिलने वाली है। स्वावलम्बी होने से स्वाभिमान बना रहता है। बच्चे आपके लियें कितना कर पायें कितना नहीं कहा नहीं जा सकता। आर्थिक रूप से स्वावलम्बी न होने पर हो सकता है अकारण ही आपको अपना सम्मान खोने का डर सताता रहे। पारिवारिक लेन देन, विभिन्न अवसरों पर उपहार आदि देने की ज़िम्मेदारी स्वयं संभालना ही अच्छा है, उसके लियें युवा बच्चों पर बोझ नहीं डालें। यदि यह बुजुर्गों की सामर्थ्य से बाहर हो तो अपने बच्चों पर ही छोड़ दें कि उन्हे जो सही लगे वो करें। यदि आप किसी कारण से आर्थिक रूप से अपने बच्चों पर निर्भर भी हैं तो कोई बात नहीं आप अपना व्यवहार संतुलित रखेंगे तो बच्चे अवश्य अपनी क्षमता के अनुसार आपकी आर्थिक सहायता करेंगे, परन्तु ऐसे मे बुज़ुर्गों अपनी आवश्यकतायें सीमित रखनी चाहियें और अपनी तरफ से उनपर कोई दबाव नहीं डालना ही उचित है।

यदि बुजुर्गों के पास बहुत अधिक धन संपत्ति हो तो अपने जीवन काल के लियें उपयुक्त धन राशि अपने पास रखकर शेष अपने जीवन काल मे ही ब्च्चों मे बाँट देना चाहिये, जिससे वह अपनी कुछ आवश्यकतायें और शौक पूरा कर सकें। यदि आपके पास सीमित आर्थिक साधन हैं तो उन्हे अपने पास ही रखना सही है। हाँ, वसीयत ज़रूर कर देनी चाहिये, ताकि धन संपत्ति को लेकर बाद मे कोई विवाद हो। सभी माता पिता को प्रयास करना चाहिये कि उनके जीवन काल मे, या बाद मे उनके बच्चों मे कोई मनमुटाव हो।

बढ़ती उम्र मे किसी भी कारणवश यदि बच्चों के परिवार के साथ तालमेल बिठाना बहुत कठिन लगे और अकेले रह पाना भी मुश्किल हो तो स्वेच्छा से किसी अच्छे वृद्धाश्रम मे रहने मे कोई हर्ज नहीं है। आजकल बूढों के लियें छोटे छोटे फ्लैट उपलब्ध जहाँ सभी सेवाओं का उचित प्रबंध होता है। अपने हम उम्र लोगों के साथ जीवन के शेष वर्ष सार्थक रूप से गुज़र सकते हैं। यह भी ख़ुशी ख़ुशी होना चाहिये, बच्चों से संबध तोड़कर नहीं। यहाँ रहकर भी अपने बच्चों से मिलते जुलते रहना अच्छा ही लगेगा।

बुज़ुर्ग यदि छोटी छोटी बातों का ध्यान रक्खेगे और अपने व्यवहार मे संतुलन और परिपक्विता बनाये रक्खेंगे तो युवा पीढी से तालमेल बनाकर रखना आसान होगा। जीवन की गोधूली वेला सुख चैन से बीतेगी।

युवाओं से….

युवाओं से भी कुछ कहना है पर इसे आप मेरी भाषण बाज़ी मत समझियेगा। मै उम्र के उस दौर मे हूँ जहाँ पुरानी पीढी के साथ वख्त गुज़ारे बहुत समय नहीं हुआ है और नई पीढ़ी के साथ हूँ, इसलयें दोनो पक्षों की उलझने समझती हूँ। आपसे बहुत कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। समय और समाज मे पिछले दशकों मे परिवर्तन बहुत तेज़ी से हुए हैं। बुज़ुर्ग समय के साथ क़दम मिलाना भी चाहेंगे तो कुछ पीछे रह जायेंगे, इसलियें उनका साथ देने के लियें यदि कभी कभी आपको अपनी चाल धीमी करनी पड़े तो इसे सहजता से लें।

एक आयु के बाद खानपान और रहन सहन की आदतें बदलना बड़ों के लिये आसान नहीं होता इसलियें उनपर व्यर्थ की बातों के लियें दबाव न डालें। अपनी व्यस्तता के बावजूद कुछ समय बड़ों के साथ बितायें।

बुज़ुर्ग दम्पति मे से जब केवल एक रह जाता है उसके लियें ये संभवतः जीवन का कठिनतम समय होता है, इस समय युवा बच्चों की ज़िम्मेदारी अपने माता या पिता के प्रति और बढ जाती है।युवाओं को ऐसे समय मे अधिक संवेदनशीलता बरतने की आवश्यकता होती है।

बुज़ुर्ग दम्पति मे से जब केवल एक रह जाता है उसके लियें ये संभवतः जीवन का कठिनतम समय होता है, इस समय युवा बच्चों की ज़िम्मेदारी अपने माता या पिता के प्रति और बढ जाती है।युवाओं को ऐसे समय मे अधिक संवेदनशीलता बरतने की आवश्यकता होती है।

मेरी यही कामना है कि हर घर मे दो तीन या कभी कभी चार पीढियाँ भी हों तो सब मे प्रेम और सामंजस्य बना रहे। एक दूसरे के कारण कोई तनाव न हो और अगर हो भी जाय तो उसे मिल बैठकर सुलझा लिया जाय।

 

7 COMMENTS

  1. शुक्रिया बीनू जी , मैंने आपका लिंक पढ़ा और सच कहूँ मुझे आपका लिखा हुआ बहुत अच्छा लगा . आपने जो सुझाव दिए है , बुजुर्गो ने वो सब वाकई करना चाहिए . आपका बहुत धन्यवाद.

  2. बीनू जी,आपने इस लेख में बुजुर्गों के प्रति जो शालीनता दिखाई है,आज के अधिकतर बुजुर्ग उसके अधिकारी नहीं हैं।डाक्टर रावत ने आज के बुजर्गों की कुछ असलियत दिखाने का प्रयत्न किया है,पर आज के बुजुर्ग ,जो नैतिकता का दंभ भरते हैं और नैतिक पतन का रोना रोते हैं,असल में इस नैतिक पतन के दोषी हैं।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र निर्माण का कार्य उन्हीं के युवा कन्धों पर आया था ,पर उन्होंने जिस गैर जिम्मेराना हरकत का परिचय दिया ,उसी की परिणति आज का भारत/इंडिया है।

  3. आप सभी का धन्यवाद, मैने यह नहीं कहा कि विदेश जाने मे कोई बुराई है।विदेश जाकर वहाँ की संसकृति से भी
    जुड़़ना ही पड़ेगा। मुझे पश्चिमी सभ्यता (खाने पीने मे या पहनावे मे) को कुछ हद तक अपनाने मे भी आपत्ति नहीं है। नया अपनाने के लियें पुराना छोड़ना भी ज़रूरी नहीं है।बस… अपनी अपेक्षायें कम करनी ज़रूरी हैं।

  4. Meree gazal kaa pahlaa sher ( matla ) hai –

    hanste hue jo shakhs bitaataa hai budhaapaa
    us shakhs ke chehre ko suhaataa hai budhaapaa

    Binu ji ne bkhoobee bujurg logon par apnee prakhar lekhni chalaayee hai .

  5. बीनू जी,
    आप किसी भी मुद्दे के कई पक्ष देखती हैं, और उन्हें कितनी सरलता से पाठक के सामने रख देती हैं, यह आपकी खूबी है। मनोविज्ञान पर आधारित आपके सुझाव भी अच्छे हैं।
    बधाई।
    विजय निकोर

  6. आदरणीय बीनू जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से दोनों पीढियों को संभाल लिया है एक ही लेख में- यह उनकी लेखनी का और भाव
    संयोजन का संतुलन है, बड़ा गजब का है यह कौशल।

    आज और आवश्यकता है हमारे समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों.लेखकों को इस प्रकार के और लेख लिखने की जो संतुलन स्थापित करने में मददगार साबित हों। दोनों ही पीढियों के अनुभव अलग अलग होते हैं और जरुरतें अलग अलग होती हैं- बुजुर्गों के पास और जीवन नहीं होता और युवाओं को जीने की फुर्सत नहीं होती।

    ज्यादा ध्यान बचपन में ही दिया जाने की आवश्यकता है जिसके लिए हमारे पूरे समाज को अपनी सोच और शिक्षा व्यवस्था में बदलाव लाकर उसे संस्कारित करना होगा जिससे कि वह कहानियों के रुप में ही हमारे बच्चों के अवचेतन मस्तिष्क में चली जाएं तो फिर हमें अपने बच्चों को ज्यादा समझाने की जरुरत ही न रहेगी। हमारे मां बाप ने संस्कार दिए हमने बैसा जीवन जिया और हमने प्रतिस्पर्धा में बच्चे न पिछड़ जाएं उन्हें न नाना, नानी, चाचा, चाची, ताऊ, ताई, गांव घर कहीं नहीं मिलने घुलने दिया और अंग्रेजी की पद्धति से पढ़ाया तो उनमें वहीं का संस्कार आएगा ना। तो सर अपना फोड़ना चाहिए न कि बच्चों का।

    एक मजेदार बात बताता हूं – हमारे साथ के प्राध्यापक गणों के बहुत से बच्चे अमेरिका में हैं तो उनका रोना धोना लगा रहता है कि बच्चे पूछते नहीं आदि आदि… । मैंने एक से कहा कि उस बच्चे के दिमाग में अमेरिका जाने का सपना किसने भरा था- कि मैंने, क्या आपकी मां और पिताजी आपके साथ रहते थे – कि नहीं, क्या आप बीच बीच में गांव जाते थे – कि नहीं तो मैंने कहा कि फिर वह क्या गलत कर रहा है जैसा आपने सिखाया वह वही कर रहा है।

    इस संदर्भ में एक टीवी विज्ञापन बहुत अच्छा लगता है- कि एक छोटा बच्चा गाड़ी को बैक होते हुए पीछ झुक कर कहता है – नही नही और पिता गाड़ी बैक कर रहा है वह बार बार पूछता चलता है और बैक करता रहता है कि लगी , लगी लगी , बच्चा कहता है नही . नहीं…. और फिर एक दम गाड़ी दीवार से टकरा जाती है तो बच्चा कहता है हां अब लग गई……। तो यही गलती है परवरिश की- हम बच्चे से सवाल ही गलत पूछ रहे है कि लगी, लगी जबकि कहना चाहिए कि देखते रहना और लग न जाए उससे पहले बताना।

    क्यों कि यह बीनु जी का निजी अनुभव है और साथ ही उनके लेख में उनकी अनुभूति की भी महक है जिससे मैं इस पूरे लेख
    से व्यक्तिगत रुप से जुड़ गया हूं क्योंकि मेंरे अनभव और अनुभूतियां भी ऐसी ही हैं। बीनू जो को बहुत बधाइयां कि निजी डायरी के जैसे उदगारों को उन्होंने सबसे साझा किया है.।सादर

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