मैं सागर में एक बूँद सही

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मैं सागर में एक बूँद सही,

मैं  पवन  का एक कण  ही सही,

मैं भीड़ में  इक  चेहरा सही,

जाना  पहचाना भी न सही,

मैं  तृण  हूँ  धरा  पर एक सही,

अन्तर्मन की गहराई में  कभी,

मैंने जो उतर कर देखा है कभी,

सीप में बन्द मोती की तरह,

उन्माद निराला पाया है,

उत्कर्ष शिखर का पाया है।

 

जब भी कुछ मैंने लिखा है कभी,

ख़ुद को ही ढ़ूंढ़ा पाया है ।

तब,लेखनी ने इक दिन मुझसे कहा,

‘’मैंने तुमसे तुम्हे मिलाया है।‘’

मैंने फिर उससे कुछ यों कहा,

‘’ओ मेरी लेखनी मेरी बहन!

तूने मुझको तो मेरी नज़र में,

कुछ ऊपर ही  उठाया है।‘’

मैं सागर की एक बूंद सही,

मैंने अपना वजूद यहाँ

केवल तुझ से  ही पाया है।

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